एक राजा था। वह हमेशा प्रजा की भलाई के बारे में सोचा करता था। उसके राज्य में सारी प्रजा खुश थी। उसके राज्य में अक्सर अकाल पड़ा करता था, लेकिन प्रजा को इसका एहसास नहीं होने दिया जाता था। वह प्रजा की हर जरूरत का ध्यान रखता था, जिससे राजकोष पर भी प्रभाव पड़ता था। अगले वर्ष राजकोष को संतुलित रखने के लिए प्रजा को अधिक कर चुकाना पड़ता था। राजा को क्या जाता है ? सब मार प्रजा को ही झेलना पड़ता है। पर राजा हो या प्रजा प्रकृति के आगे सभी को घुटने टेकने पड़ते हैं। मनुष्य कुछ दिए बिना सब कुछ हासिल करना चाहता है, परन्तु प्रकृति कुछ लिए बिना सब कुछ देता है। यूं कहें तो मनुष्य जैसा स्वार्थी और प्रकृति जैसा दानी, पृथ्वी पर कोई नहीं है। वह प्रजा का हालचाल जानने के लिए अभी-कभी रूप बदलकर अपने राज्य में घुमा करता था। एक बार लोगों को बात करते पाया, “जिस रफ्तार से प्रकृति अपनी करवट बदल रही है, उसी रफ्तार से हम विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इसके लिए राजा को कोई ठोस कदम उठाना चाहिए।”
राजा ने पूछा, “कैसा कदम उठाना चाहिए ?”
प्रजा, “ऐसा कदम जिससे समाज और प्रकृति दोनों का भला हो सके।”
राजा सोचता हुआ चला जाता है,”ऐसा कदम जिससे समाज और प्रकृति दोनों का भला हो सके। अच्छा विचार है। ये बात मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई। ये कौन सा कदम हो सकता है ?” कई दिनों तक प्रजा की बात राजा के दिमाग में घुमती रही, तत्पश्चात् पुरे राज्य में एलान करवाया, “जो एक वर्ष में अपने राज्य के लिए “सच्चे जन कल्याणकारी कार्य” करेगा उसे इनाम दिया जाएगा। इस अवधि में किसी तरह की मदद की जरूरत हो, तो लिया जा सकता है। अगर कोई धन का दुरुपयोग करता पाया गया तो उसे सजा भी दी जा सकती है।
‘जन कल्याणकारी कार्य’ यानी ऐसे कार्य जिसमें समाज का कल्याण हो। युवा वर्ग नये उत्साह के साथ लग गये। राजकोष से धन प्राप्त कर किसी ने जगह-जगह पर प्याऊ बनवाया, तो किसी ने मोसाफिरखाना । किसी ने यतीमखाना बनवाया तो किसी ने वृद्धाश्रम। किसी ने गरीबों की बेटियों के सामूहिक विवाह करवाकर उनके दुःख को कम करने का काम किया। सभी अपने-अपने तरिके से जन कल्याण के कार्य में लगे थे। परन्तु आदिवासी समाज बंजर भूमि पर पानी का व्यवस्था कर वृक्षारोपण का काम शुरू किए।
आदिवासियों का प्राचीन काल से जंगल से लगाव रहा है। वे जंगल से फल-फूल, लकड़ी व औषधि प्राप्त करते हैं। आदिवासियों का पेड़ से प्रेम इतना है कि जन्मदिन हो या त्योहार, पेड़ लगाना इनके परंपरा का हिस्सा है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए पेड़ पौधों को संरक्षित रखना अति आवश्यक है। पेड़ पौधे संरक्षित रहेंगे तो पर्यावरण हरा भरा रहेगा और हमारा शरीर भी स्वस्थ रहेगा। देश में प्राचीन काल से ही पेड़ों के महत्व को पूर्वजों ने समझा था और उसे अपने जीवन शैली में आत्मसात किया था।
पेडों का हमारे सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ के दृष्टिकोण से काफी महत्व है। वहीं तुलसी व नीम का औषधि के रुप में प्रयोग किया जाता है। पीपल और बरगद का पर्यावरण की दृष्टि से काफी महत्व है। आज के समय में ऑक्सीजन युक्त, फलदार समेत छायादार पेड़ों के पौधरोपण और उनके संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है।
आदिवासी समाज में सखुआ, महुआ, पलाश व कदम के पेड़ को कभी नुकसान नहीं पहुंचाते। उनकी मान्यता के अनुसार सखुआ व महुआ का बहुत ज्यादा महत्व है। सखुआ पर ही मां सरना निवास करती हैं। शादी विवाह के समय वे लोग महुआ पेड़ का फेरा लेते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार पीपल एवं बरगद का पेड़ पर काली शक्तियों का वास होता है। इस कारण आदिवासी समुदाय के लोग काली शक्तियों के भय से उन पेड़ों को नुकसान नहीं पहुंचाते। कारण चाहे जो भी हो। परंतु मामला एक ही है कि किसी भी हालत में पीपल एवं बरगद इत्यादि के पेड़ों को संरक्षित किया जाए। आदिवासी समुदाय के लोग किसी भी पेड़ की डाली या पेड़ काटने के पहले उसे प्रणाम करते हैं। उनसे आग्रह करते हैं कि जिस काम के लिए हम उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं हमारा वह काम पूर्ण हो।
आज भी आदिवासी समाज जंगल से उतना ही प्रेम करते हैं। ये अक्सर जंगलों में ही निवास करते हैं। ये कंद-मूल, फल-फूल आदि खाकर स्वास्थ्य एवं निरोग रहते हैं। कई बीमारियों के औषधि पेड़ पौधों से प्राप्त कर स्वयं उपचार कर लेते हैं।
साल पूरा होने को था। आदिवासी समाज हजारों पेड़ लगा चुके थे। बंजर जमीन हरे-भरे पौधों से लहलहा रही थी। नज़र हटाये नहीं हटती थी। देखते ही देखते एक साल पूरा हो गया। सभी ईनाम के लालसा से राजा के समक्ष उपस्थित हुए। सभी अपने-अपने कार्य को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किए। आदिवासियों ने कहा, “हुजूर हम अपनी बड़ाई क्या करें। चलकर आंखों से देख लेते तो अच्छा होता।”
राजा को को प्रस्ताव अच्छा लगा। दूसरे दिन राजा सभी के कार्य का नीरिक्षण किए। आदिवासियों के अथक प्रयास से बंजर भूमि पर लहलहाते पौधे तिस पर रंग-बिरंगे पंछियों की चहचहाहट राजा के मन मोह रहे थे। राजा की प्रसन्नता की सीमा न थी। उनका मन बरबस बोल उठा ‘यही है जन कल्याणकारी कार्य।’ विनाश से बचने के लिए यही है ठोस कदम। राजा ने प्रसन्न होकर आदिवासियों को ईनाम दिए और राज्य के सभी लोगों को वृक्षारोपण का आदेश दिए। चार-पांच साल के अन्दर राज्य में लाखों पेड़ लगाये गए । वातावरण खुशनुमा हो गया। मानसून समय पर आने लगा। समय पर पर्याप्त बारिश होने लगी। जल स्तर में भी वृद्धि होने लगी। अब पूरा राज्य खुशहाल था। सब का दिल यही कहता था, “पर्यावरण बचाओ! समाज बचाओ! हॉं यही है सबसे बड़ी समाज सेवा।
अजीत कुमार
गुरारू, गया, बिहार
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