विद्यालयों में ग्रीष्मकालीन अवकाश शुरू हो गए थे।मैथिली पिछले पाँच वर्ष से एक निजी विद्यालय में नौकरी कर रही थी।रघुवीर भी मल्टीनेशनल कंपनी में मैंनेजर है।मैथिली को काम करने की आवश्यकता नहीं थी,पर उच्च शिक्षा का कुछ अच्छा उपयोग हो और उसका समय भी कट जाए,इसलिए उसने तय कर रखा था कि जहाँ भी रघु को भेजेगी कम्पनी,वो वहाँ पास ही के किसी स्कूल में काम करेगी।मैथिली का बचपन दादा-दादी के साथ बीता था और पापा के शहर आने पर भी वो दोनों को साथ लेकर आये थे।अतः मैथिली और विराज(उसका भाई)पिता के अच्छा व्यवसाय व पैसा होते हुए भी सदा ज़मीन पर पैर टिकाए रहे।दोनों भाई-बहन को प्रकृति से अथाह प्रेम था। इस बार की छुट्टियों में मैथिली ने तय किया कि चार-पाँच दिन के लिए ही सही,वो सबको लेकर दादा के गाँव जाएगी।रघुवीर ने भी अपने ऑफिस से एक सप्ताह की छुट्टी ले ली।पूरे रास्ते मैथिली बड़े उत्साह से रिनी और बॉबी(बच्चों)को अपने बचपन और गाँव की सुंदरता,शीतलता और शुद्ध वातावरण के बारे में बताती रही।
स्टेशन से ही उन्होंने किराए की टैक्सी(कार)ले ली थी,तीन दिन के लिए,ताकि अपने गाँव के साथ साथ वे आसपास की अन्य जगहों पर भी घुमा फिरा सके बच्चों को।पर ये क्या!!गाँव की सीमा में घुसते ही बदबू की वजह से उन्हें गाड़ी के शीशे चढ़ाने पड़े।पूरे गाँव में यहाँ-वहाँ पक्के मकान बन गए थे और घर-घर में एसी तक लग चुके थे,जबकि वो थी कि पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखते,उसने इतना पैसा होते हुए भी पापा के घर की तरह ही अपने यहाँ एसी नहीं लगवाया था।एक ओर सम्पन्न घरों की सूरत पूरी तरह आधुनिक हो चुकी थी तो दूसरी ओर पशुपालन और खेती पर निर्भर कुछ ग़रीब परिवारों की हालत खराब थी।खेतों में भर भर कर रासायनिक खाद डाली जा रही थी, पॉलिथीन यहाँ भी भरपूर मात्रा में पसर चुके थे।सम्पन्न लोगों के घरों में बच्चे अक्सर बीमार रहते और गरीबों को बीमार होने की अनुमति नहीं थी,क्योंकि अब देसी दवा नहीं डॉक्टर की दवा से बीमारी ठीक होती है जो खरीदना उनके लिए सम्भव नहीं है।मैथिली की हालत बहुत ख़राब हो गई।पूरी रात रोती रही वो।रघुवीर से उसकी हालत देखी नहीं गई और वो सुबह होते ही सबको लेकर रवाना हो गया।इस वर्ष की छुट्टियां बहुत उदासी में बीत गई,क्योंकि सबको प्रकृति से जोड़े रखकर सदा हँसती रहने वाली मैथिली बहुत उदास थी।
अवकाश के दिन ख़त्म हुए।सब अपने-अपने काम पर लग गए।मैथिली के दिल में क्या उथल-पुथल चल रही थी,इससे सभी अंजान थे।वो आने वाले साल की छुट्टियों के लिए अपना ज़बरदस्त कार्यक्रम तय कर चुकी थी।उदासी के घेरे से बाहर निकल उसने एक बहुत बड़ा निर्णय लिया था, पर डर था कि रघुवीर मना ना कर दे।एक वर्ष बीत गया।बच्चों और मैथिली के स्कूल की छुट्टियां शुरू हुईं, फिर से।मैथिली ने हिम्मत जुटाई और पति व बच्चों को अपना निर्णय सुनाया।साथ ही उसने ये भी कह दिया कि अगर उन सबको मंजूर हो तो ही वो अपने निर्णय को मूर्त रूप देगी।एक रात सोचने का समय माँग, सभी सोने चले गए।मैथिली को देर तक नींद नहीं आई,पर सुबह जब वह उठ कर कमरे से बाहर आई तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा।सहर्ष सबने उसके निर्णय को न केवल स्वीकारा वरन आज ही गाँव जाने की तैयारी करके ही मैथिली को जगाया था उन्होंने।इस बार अपने गाँव में मैथिली एक नई शुरूआत करने आई थी।अपनी कमाई का सारा पैसा उसने गाँव के ग़रीब किसानों की हालत सुधारने में लगाया।गाँव में रहकर उसने जैविक खेती के लिए सबको समझाना शुरू किया।दादा के साथ उसने गायों की देखभाल का जो काम सीखा था, वो आज उसके काम आ रहा था।जब हम स्वयं अपने निर्णय अनुसार काम करके दिखाते हैं, तभी लोग विश्वास करते हैं हम पर और साथ आने की हिम्मत करते हैं।गाँव आते ही दो देसी गायों के पालन-पोषण से शुरू किया मैथिली का कार्य एक वर्ष में पूरे साँठ गाय-बैलों की गौशाला में बदल चुका था।कुछ सम्पन्न किसानों ने विरोध भी किया,पर वो डरी नहीं।विदेश में उसके बच्चों की जिम्मेदारी रघु ने सम्भाल रखी थी।
आज पूरे एक वर्ष बाद बच्चे और पति को सामने देख वो बहुत ख़ुश थी।रात को भोजन के बाद खुली छत पर ठंडी हवा का आनन्द लेते जब सब सोने की तैयारी में थे तो रघु ने भी मैथिली को अपना एक निर्णय सुनाया,जिसे सुन कर मैथिली स्तब्ध रह गई।रघु के साथ बच्चों ने भी उसके पास, यहीं आकर रहने का निश्चय कर लिया था।मैथिली का अपने गाँव की दशा सुधारने का एक निर्णय अब उन सबके लिए एक अभियान बन गया था।मैथिली के प्रयासों ने कई घरों के दीपक बुझने से बचा लिए थे।अब उसके अपने गाँव में ही नहीं, वरन आसपास के कई गाँवों में कर्ज में डूबने की वजह से होने वाली आत्महत्याएं रुकने लगीं थीं।इस पूरे परिवार ने अपने जीवन को एक आंदोलन के रूप में समर्पित कर दिया और न सिर्फ दूषित पर्यावरण को बचाकर प्रकृति की सेवा की बल्कि सभी पढ़ेलिखे, आधुनिक लोगों के लिए एक मिसाल कायम की।
मैथिली-“शिक्षा और आधुनिक विचारधारा को अपनाने का अर्थ अपनी जड़ों को कमज़ोर करना नहीं, वरन अपने अर्जित ज्ञान से अपने पर्यावरण, अपने लोगों व अपनी संस्कृति को संरक्षित करना है।आज हम पर्यावरण को बचाने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम आयोजित करते हैं।लम्बे-चौड़े भाषण देते हैं।हमारी सरकारें कई योजनाएं बनाती है।करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं, फिर भी हमें वांछित परिणाम नहीं मिलते।आखिर क्यूँ??मुझे इस क्यूँ का उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है, शायद।क्योंकि हम सभी के पास ही इस प्रश्न का उत्तर मौजूद है।हमें केवल अपनी अनावश्यक इच्छाओं पर थोड़ा सा अंकुश लगाना है।आज से लगभग बीस-तीस बरस पहले जब घर-घर में एसी नहीं थे।जब हम वातानुकूलित मशीनों के आदि नहीं थे,तब क्या ग्रीष्म ऋतु आती ही नहीं थी??तब भी ऋतुएँ अपने समयानुसार आती थीं और अपने स्वभाव के अनुसार परिणाम भी दे जाती थीं।पर शायद वे परिणाम इतने भयंकर नहीं थे,जितने हमनें अपनी बुरी आदतों से पैदा कर लिए हैं, आज।
तो आइए!!हम सभी अपने पर्यावरण से सर्वप्रथम क्षमा याचना करें,उसकी दुर्दशा करने के लिए,साथ ही उसे बचाये-बनाये रखने के लिए अपने-अपने स्तर पर कोई भी एक छोटा सा निर्णय लें।कम से कम हम सभी अपने स्वयं के लिए एक पेड़ लगा, उसके संरक्षण का वचन तो उठा ही सकते हैं।”(निरन्तर पर्यावरण संरक्षण के लिए,अपनी इसी सीख व प्रेरणास्प्रद बातों के साथ प्रयास करती हुई।)
अरुणा अभय शर्मा
जोधपुर(राजस्थान)
8875015952