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पर्यावरण पर संस्‍मरण-विजय मिश्र

बात लगभग साठ वर्ष पहले की है।गर्मियों में तब से लेकर अब तक मैं अपने गाँव में ही रहता आया हूँ।मेरा बचपन गाँव में ही बीता है।मुझे वे दिन याद हैं जब मैं अपने सहपाठियों के साथ मिडिल स्कूल में पढ़ने के लिए पैदल जाया करता था।हम लोग गर्मी के मौसम में स्कूल जाने के लिए प्रातःकाल छः किलोमीटर की दूरी पगडंडी से तय करते थे।लौटते समय हम कच्ची सड़क के किनारे लगे आम, महुआ, कटहल आदि के पेड़ों की छाया प्राप्त करने के लिए एक किलोमीटर की अतिरिक्त दूरी तय करते थे।बीच में करौंदी बाजार में एक साइकिल का पंक्चर बनानेवाले की दुकान पर रुकते और उसकी लोटा-डोरी से कुइयाँ का पानी निकालकर प्यास बुझाते,सुस्ताते और आराम से घर आते।
जब मैं कलकत्ते में अध्यापक बना तब भी गर्मी की छुट्टियों में गाँव आ जाता।पिताजी ने जब नया मिट्टी का घर बनवाया था तो उन्होंने घर के सामने छप्पर का ओसारा बनवाया था और नीम के तीन पेड़ लगा दिए थे।नीम की घनी छाँव और खुले ओसारे में दुपहरिया बड़े आराम से कट जाया करती थी।ओसारे में लेटे-लेटे या पढ़ाई करते हुए कुछ ही दूरी पर पके जामुन तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े हुए और नीचे से जामुन लोकने के शोर सुनकर वहाँ पहुँच जाने के लिए मैं भी अधीरता से भाग जाया करता था। जामुन लाकर उसे धोकर कटोरी में रखकर नमक लगाकर पिताजी के साथ खाने का लुत्फ भी खूब उठाया है।कभी-कभी जल्दबाजी में जामुन खाने के चक्कर में उसकी गुठली भी पेट में चली जाती थी।कुछ लोग कहते कि चलो अब जामुन का पेड़ पेट से ही निकल आएगा।खूब मजा रहेगा।हम लोग आराम से जामुन पा जाया करेंगे।अब वैसी बातें कहाँ होती हैं?
मुझे वे दिन अच्छी तरह याद हैं जब संध्याकाल आँधियाँ आ जाया करती थीं और हम लोग अपनी बाग में अपने पेड़ों के पास दौड़ते हुए पहुँच जाया करते थे।हम अरहर के डंठल से बनी झौली या पलड़े में आम बीनते और घर लाते।तब आमों में हरसाल फल आते और बहुत अधिक मात्रा में आते।मेरा एक आम का पेड़ ‘बड़का आम’ कहकर पुकारा जाता था।उसके आम भारी होने के नाते हल्की आँधी में भी जमीन पर बिछ जाते।उसी से खटाई बन जाती थी।बड़के आम को पकाने के लिए उसको हाथ से तोड़ा जाता था और भूसे में पाल डाल दिया जाता था।पक जाने पर वह पीला हो जाता था।उसके मीठे रस को हम लोग गिलास भर भरकर पीते थे।मेरी माताजी पक्का आम गाँव में भी बँटवा देती थीं।मैंने उनके आदेश पर अड़ोस-पड़ोस में आम पहुँचाए हैं।गाँव का वह मेल मिलाप,सद्भाव और आपसी लगाव कैसे भूला जा सकता है!
मेरे पड़ोसी के बाग में एक गोलिया नाम का आम था जो सबसे पहले पकता था।मैं सवेरे उठते ही उनके यहाँ जा धमकता और मेरे छोटे-छोटे दोनों हाथ गोल-गोल ‘गोलिया आम’ से भर जाते।दतुअन करने के बाद मेरा यही प्रथम आहार होता।
जब मैं सातवें में पढ़ता था तो अक्टूबर महीने में नवरात्र की छुट्टियों में माताजी के साथ परवल के मचान की सफाई करते समय एक आम के कोमल कल्ले को देखकर बहुत खुश हुआ।माताजी की आज्ञा लेकर खुरपी से उसके चारों ओर मिट्टी का घेरा (थाला) बना दिया और आगे चलकर उसमें नियमित रूप से पानी डालने लगा।प्यार-दुलार की भाषा पेड़-पौधे भी समझते हैं।मेरा पालित वह पौधा एक वर्ष में ही मेरे बराबर ऊँचाई का हो गया।उसमें डालियों के कल्ले भी आने लगे।जिस वर्ष मैं बी.एस.सी.फाइनल में पहुँचा उस वर्ष के वसंत में उसमें बौर आए।मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।मैं अक्सर उसके मंजरों को निहारता।मैं सिर उठाकर जब मंजरियों को ताकता तो मेरे पालित आम्रविटप की डालियाँ मानो झूम झूमकर कहतीं,”हमें खूब पानी पिलाए हो।हम तुम्हें आम्ररस पिलाएँगी।”
क्या ही अद्भुत संयोग बना कि मेरे पोषित इस आम्रतरु के फल भी उसी समय पकने लगे जब हमारे पड़ोसी का ‘गोलिया’ आम पकता था।पहला फल स्वयं नहीं खाया जाता, इसलिए माताजी ने इसके पाँच पके फल पड़ोसिन को दिए।इसका आकार दशहरी आम जैसा था।पके फलों के गिरने की आवाज पट्ट की नहीं भद्द की होती है।रात को जब इसके फल भद्द की आवाज करके गिरते तो मैं थोड़ी ही दूर पर बिछी खटिया छोड़कर उसका अभिनंदन करता और हाथ में ले लेता।यह क्रम बहुत सालों तक चला।
पिताजी जल्दी ही अपनी स्नेह की छाया से वंचित कर स्वर्गवासी हो गए।तब मैं बंगाल में ही मास्टरी कर रहा था।इसके तीन वर्ष बाद जब माताजी ने भी आँख मूँद लिया तो मुझे सेंट एलॉएशियस को अलविदा कहकर गाँव में मास्टरी का बंदोबस्त करना पड़ा।कच्चे मकान की जगह आंशिक रूप से पक्का मकान बनाकर बच्चों के साथ रहते हुए लगभग बीस वर्ष और निकल गए।
जून माह के अंतिम दिन थे।दो दिन से जोर की बारिश हो रही थी।मैं बरामदे में बेठा हुआ था।अँधेरा था।बिजली नहीं थी।दरवाजे के सामने लालटेन का मंद प्रकाश था।बच्चे घर के अंदर थे।वर्षाकालीन उमस भी थी।आँधी का एक जोर का झोंका आया।अचानक चुरचुर की आवाज हुई।मेरे कान खड़े हो गए।मैं बाहर आकर खड़ा हो गया।चुरचुर की आवाज खरखराहट में बदल गई और चुट के साथ थम गई।मेरा पालित आम्रविटप निर्मूल होकर बरामदे की छत का सहारा लेकर बचे-खुचे फलों के साथ अलविदा कह गया।
आज भी उसकी अंतिम विदाई को याद करता हूँ तो रो पड़ता हूँ।कितनी अदाकारी के साथ उसने थम थमकर संघर्ष करके अपनी अंतिम साँसें लीं,यदि एकबारगी गिरता तो बरामदे की छत के साथ ही धराशायी होता।

विजयशंकर मिश्र ‘भास्कर
लखनऊ

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