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गंगा के प्रति राज्य और समाज का कर्तव्य-हेमंत चौकियाल

यह भारत भूमि की एक बड़ी विशेषता है कि यहाँ के हरेक तीज-त्योहार, रीति-रिवाज,धार्मिक संस्कारों के पीछे एक लम्बा वैज्ञानिक इतिहास है। अगर हम तथाकथित आधुनिकता के चश्मे को किनारे रख, बिना पूर्वाग्रह ग्रसित हुए बिना देखें तो पायेंगे कि हमारे ऋषि-मुनियों और पूर्वजों ने लम्बे अध्ययन और शोध के बाद वैज्ञानिकता के साथ समाज को सही दिशा में बढ़ने के लिए कुछ धार्मिक,नैतिक,सांस्कृतिक, पर्यावरणीय तीज त्योहारों रिवाजों का प्रादुर्भाव किया ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी उस तीज त्योहार रीति रिवाज को निभाते हुए अपना और विश्व का कल्याण कर सके। नवरात्रि, दीवाली, होली,नव सम्वतसर, गंगा दशहरा सहित बहुत से पर्व ऐसे हैं जिनसे हमारी वर्तमान पीढ़ी के साथ साथ भावी पीढ़ी इन रस्मों, रीति-रिवाजों व अनुष्ठानों की महत्ता व वैज्ञानिकता के साथ इनके इतिहास से परिचित होती है।

गंगा मात्र नदी भर नहीं-
विश्व भर में गंगा भारत की राष्ट्रीय पहचान है। विश्वभर के लोगों द्वारा भारत का नाम सम्मान के साथ उच्चारित करने के लिए इसे “गंगा का देश” कहा जाता है। दो अलग-अलग धर्मों का सांस्कृतिक रूप से समवेत आदर के लिए भारत को “गंगा-जमुनी” तहजीब का देश भी कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि गंगा भारत की जीवन रेखा होने के साथ साथ राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक और पहचान भी है। अगर हिमालय भारत का भाल है तो गंगा उस भाल से निकलती जल धार से सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बांधे रखने का रक्षा सूत्र। क्योंकि सुदूर उत्तर से लेकर दक्षिण तक पूर्व से लेकर पश्चिम तक सम्पूर्ण देश की छोटी बड़ी नदी रूपी जलधाराएं मिलकर इसे पूर्णता प्रदान कर,बड़े गौरव से सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधित्व करते हुए किसी न किसी रूप में सेवा करती है।
क्यों कहा जाता है गंगा तेरा पानी अमृत-
“गंगा तेरा पानी अमृत” की धारणा प्रत्येक भारतवासी के मन में रची बसी है। यह मान्यता या धारणा असत्य भी नहीं थी। क्योंकि हिमालय अपने आप में रत्नों का विशाल भण्डार है। इसकी तराई में अवस्थित बुग्याल और पहाड़ियाँ, जंगल अप्रतिम औषधीय पादपों, जड़ी बूटियों खनिजों के भण्डार हैं, इन्ही बुग्यालों, पहाड़ियों, जंगलों से गुजरने वाली गंगा जब इन्ही औषधीय पादपों, जड़ी बूटियों का सत्व लेकर मैदानों में उतरती है तो वह इन जड़ी बूटियों के असर से वास्तव में अमृत सा असर रखती थी। सदियों से यह कहावत प्रसिद्ध थी कि गंगा का जल एक सौ साल तक भी खराब नहीं होता। आज से सात दशक पूर्व भी जब विगत सौ सालों से बोतल में बंद गंगा जल का परीक्षण किया गया तो वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित रह गये कि उस गंगा जल में कोई भी खराबी या अशुद्धि नहीं पाई गई बल्कि वह विशुद्ध रूप से पीने लायक बना हुआ था।

वैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह बात सत्य साबित हुई कि “बैक्ट्रिया फोस” नामक जीवाणु पानी के अंदर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले अवांछनीय पदार्थो को खाता रहता है जिस कारण वर्षों तक जल की शुद्धता बनी रहती है।
विदेशियों ने भी किये सत्यता के परीक्षण- देश दुनिया को गंगा की पवित्रता की इस सच्चाई का पता तब चला था जब आज से सवा सौ साल पहले आगरा में तैनात ब्रिटिश डॉक्टर एमई हॉकिन ने वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध किया था कि हैजे जैसा महामारी का बैक्टीरिया भी गंगा के पानी में डालने पर कुछ ही देर में मर जाता है। तब जाकर विदेशियों को गंगा की महत्ता का पता चला कि वास्तव में भारतीयों की यह धारणा सत्य है कि गंगा तेरा पानी अमृत।
वेद – पुराण, ग्रन्थ भरे पड़े हैं गंगा की महत्ता से-
सनातन संस्कृति का कोई भी वेद, पुराण, स्मृति, ग्रन्थ ऐसा नहीं है जिसमें गंगा का उल्लेख न हो। किसी न किसी रूप में इन सभी में गंगा की महिमा का वर्णन है।
वराह पुराण में गंगा के उद्भव के बारे में वर्णित है कि –
दशमी शुक्लपक्षे तु ज्येष्ठ मासि कुजेsहनि।
अवतीर्णा पत:स्वर्गात हस्तार्क्षे च सरिद्वरा ।।
अर्थात ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष दशमी तिथि मंगलवार हस्त नक्षत्र के शुभ योग में गंगा स्वर्ग से धरती पर उतरी।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि कुछ विद्वानों ने हिमालयी क्षेत्र को ही स्वर्ग कहा है।
छुद्र स्वार्थियों ने किया गंगा को अपवित्र-
लेकिन बड़े दु:खी मन से कहना पड़ रहा है कि आज देश की यह पहचान अपने अस्तित्व और पवित्रता बचाने के लिए गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है। धीरे धीरे बढ़ती भौतिकता और हमारी तथाकथित विदेशी भाषा में स्वयं को मॉर्डन कहने वाले भद्रजनों ने गंगा के उस पवित्र स्वरूप से खिलवाड़ शुरू कर उसमें कारखानों, घरों का अपशिष्ट बहाना अपना जन्मजात अधिकार समझा। कुछ विधर्मी लोगों को गंगा का मां वाला स्वरूप अच्छा नहीं लगा और उन्होने गंगा को साधारण नदी कहने-मानने की मानसिकता ने गंगा का बहुत अहित किया। कुछ विधर्मी आज भी रात के घटाटोप अंधकार में मरे अथवा काटे गये जानवरों के अपशिष्ट और अंश बहा देते हैं।

हमारी जीवन शैली में समाहित था जल – पर्यावरण की पूजा-
अगर आप आज से चार दशक पूर्व का समय याद करें, बुजुर्गों की बातों को ध्यान से सुने तो पायेंगे कि तार दशक पूर्व के हमारे बुजुर्ग पूर्वज पूर्णतः वैज्ञानिक नजरिया रखते हुए गंगा में प्रचलित सिल्वर के सिक्के भी उसकी पवित्रता (प्रदूषित होने से बचाये रखने के लिए) बनाये रखने के लिए नहीं फेंकते थे। गंगा के घाटों पर लोग स्नान तो करते थे लेकिन साबुन (डिटर्जेंट) का प्रयोग नहीं करते थे। गंगा में थूकना, गंदगी करना, कूड़ा फेंकना महापाप समझते थे। आज भी सनातन संस्कृति के लोग नव विवाहिता के हाथों पहले ही दिन उसके ससुराल में जल श्रोत की पूजा करवाते हैं ताकि वह उस श्रोत को शुद्ध साफ स्वच्छ रखने की भावना मन में पहले ही दिन से रखे।इसी क्रम में वृक्ष व पौधों का संरक्षण करने का संकल्प नव दम्पति सप्तपदी की वेदी से ही लेते आया है।
काले अंग्रेजों व काली मानसिकता ने किया गंगा का अहित-
लेकिन पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने वाली हमारी वर्तमान पीढ़ी के कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए गंगा के प्रति मां का नजरिया केवल उन्हें एक दकियानूसी सोच ही लगती रही है । जिसका फल ये हुआ कि गंगा की पवित्रता धीरे-धीरे कम होती चली गई। आज स्थिति यह है कि मां गंगा के उद्गम स्थल गोमुख जैसे स्थलों से ही तथाकथित उच्च शिक्षित मानुष प्लास्टिक व अन्य कूड़े के ढेर प्रकृति भ्रमण या शोध यात्रा के नाम पर छोड़ते आ रहे हैं। यही हाल पिंडारी ग्लेशियर, खाँम, मनणी, केदारनाथ, मधू गंगा, बद्रीनाथ जैसे स्थलों पर भी है। कुछ कुत्सित विचार धारा और मानसिकता के महापापियों ने तो अपने शौचालयों के पाइप सीधे ही गंगा में छोड़ रखे हैं। मानव की खाल में छुपे कुछ नर रूपी भेड़ियों ने तो अपने मल टैंक गंगा के किनारे इस ढंग से निर्मित किये हैं कि हर बरसात में गंगा का जल स्तर बढ़ने पर वे गंगा की वेगवती धारा में स्वयं ही साफ हो जांय और वे धड़कते व धिक्कारते हुए छुपे मन की धड़कनों के बीच गंगा की स्वच्छता पर लम्बे लम्बे भाषण देकर,मंचों पर सम्मानित होते रहते हैं। भले ही रात भर करवट बदलते बदलते उनका मन उन्हें धिक्कार रहा होता है।
गंगा की शुद्धता के लिए व्यक्ति व परिवार के रूप में हमारा कर्तव्य-
आज परम आवश्यकता इस बात की है कि समाज के एक अंग (व्यक्ति) के रूप में हमारा ध्यान गंगा की पवित्रता बनाये रखने के लिए उसको प्रदूषण से मुक्त रखने की हो। समाज की इकाई परिवार के रूप में हमारा एक काम यह देखना होना चाहिए कि मेरे परिवार के किसी भी व्यक्ति /महिला /बच्चे द्वारा गंगा प्रदूषित करने वाला कोई कृत्य न हो। हम बालपन में ही बच्चों के दिल दिमाग में पानी की महत्ता, जल ही जीवन है, गंगा तेरा पानी अमृत जैसे भाव स्थापित करते हुए, सम्मान करना सिखा दें। हम गंगा के किनारे फलदार, छायादार चौड़ी पत्ती वाले पौधों का रोपण करें और इसे एक परम्परा के रूप में आगे बढ़ाने के प्रयास करें करते रहें। हम यह ध्यान रखें कि हमारे बच्चे हमारे भाषणों व किताबों से जादा हमारे आचरण और अनुकरण से सीखते हैं। अतः हमें ध्यान रखना होगा कि हमारा आचरण भी गंगा की पवित्रता बनाये व बचाने वाला हो।

गंगा के प्रति राज्य (शासन) के कर्तव्य-
गंगा के प्रति राज्य का कर्त्तव्य सर्वप्रथम यह हो कि राज्य अथवा शासन गंगा का सम्मान करता हो। इसके इतिहास व भूगोल का प्रचार-प्रसार करे ताकि लोग इसकी प्राचीनता व महत्ता को समझते हुए इसे मात्र जल का प्रवाह या नदी मात्र ही न समझें, बल्कि इसकी उपयोगिता व उपादेयता को गहराई से महसूस भी करें। राज्य का एक प्रमुख व महत्वपूर्ण कर्तव्य यह भी हो कि वह गंगा की महत्ता व उपयोगिता को राज्य के नौनिहालों भावी पीढ़ी को बताने/समझाने के लिए इसे अपने पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान दे। राज्य अथवा शासन का प्रयास हो कि वह अपने प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से गंगा की उपयोगिता को देश व विदेशियों को बताने के साथ इसे प्रदूषण मुक्त रखने, स्वच्छ बनाये रखने की अपील भी करे। शासन का यह भी प्रयास हो कि गंगा की पवित्रता को भंग करने वालों के विरूद्ध कड़ी कार्रवाई करते हुए दण्ड का प्रावधान भी हो । इसके तटों को गंदा करने वालों को बाध्य किया जाय कि वे इसकी सफाई भी करें अथवा उनसे सफाई का खर्च लेकर सफाई की व्यवस्था करे। राज्य ऐसी संस्कृति को विकसित करने का प्रयास करे कि हमारा युवा, भावी पीढ़ी जापानी लोगों जैसे देशभक्त बनें जो अपने देश के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान तो दें ही, साथ ही विश्वभर में देश की साख भी बढ़ायें। पर्यावरण, जल, -जमीन-जंगल, पशु- पक्षी,जैव विविधता की महत्ता जन सामान्य को समझाने के प्रयास यदि सफल होते हैं तो वह दिन दूर नहीं कि हम पुनः “गंगा तेरा पानी अमृत” प्रयोगशाला परीक्षणों में भी साबित कर डंके की चोट पर कह सकेंगे कि गंगा जल पुनः 100 साल पहले जैसा पवित्र है। जय गंगा मय्या-जल है तो जीवन है।

हेमंत चौकियाल
रूद्रप्रयाग (उत्तराखंड )

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