गंगा जी उत्तर भारतकी जीवनरेखा हैं।जहाँ-जहाँ गंगा में अन्य नदियाँ आकर मिली हैं,वे स्थल हिंदू धर्म के सर्वोत्तम तीर्थ कहलाते हैं। हमारी सनातन वैदिक संस्कृति गंगा के तट पर विकसित हुई है।इसलिए गंगा भारतीय संस्कृति का मूलाधार है।इस कलियुगमें श्रद्धालुओं के पाप-ताप नष्ट करने के लिए गंगा का धराधाम पर अवतरण हुआ है।वेद और पुराणों का मत है कि गंगा जी का दर्शन,मज्जन और गंगाजल का पान पापों को हरण करने में सक्षम है।आज गंगा के प्रति राज्य और समाज का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ गया है।इसके लिए हमें सतर्कता पूर्वक यह ध्यान रखना होगा कि यह सरिता अत्यंत पवित्र है।इसकी महिमा इतनी अधिक है कि विमल मतिवाली शारदा भी उसका वर्णन नहीं कर सकती हैं,
“दरस परस मज्जन अरु पाना।हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति।कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥”
‘गंगाजी ‘दशहरा’ हैं।वे चार शारीरिक पापों कठोर वचन,असत्य बोलना, चुगली अथवा निंदा करना तथा असंबद्ध-अकारण बड़बड़ाना,तीन वाचिक पापों चोरी,हिंसा परस्त्रीगमन एवं तीन मानसिक पापों दूसरोंका धन हड़पने का विचार मनमें आना, मन से दूसरों का अनिष्ट चिंतन करना एवं दुराग्रह रखना,इन दस पापों से मुक्ति प्रदान करने वाली हैं।
गंगा दशहरा का महत्व कायिक,वाचिक और मानसिक पापों को हरण करने की दृष्टि से सुविख्यात है,सर्वविदित है।वराहपुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास,शुक्ल पक्ष,दशमी तिथि, मंगलवार एवं हस्त नक्षत्र के शुभ योग में गंगाजी स्वर्गसे धरती पर अवतरित हुईं।
“दशमी शुक्लपक्षे तु ज्येष्ठे मासि कुजेऽहनि।
अवतीर्णा यतः स्वर्गात् हस्तर्क्षे च सरिद्वरा।।”
गंगाजी भारत की सात पवित्र नदियों में से पवित्रतम हैं।गंगाजल की एक बूँद भी संपूर्ण गंगा की भाँति ही पवित्र होती है ।
‘गंगा नदी में आध्यात्मिक गंगाजी का तत्त्व है,इसलिए प्रदूषण से वे कितनी भी अशुद्ध हो जाएँ;उनकी पवित्रता सर्वकाल बनी रहती है।गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में उल्लेख किया है,
“सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई।सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं।रबि पावक सुरसरि की नाईं॥”
गंगाजल स्वयं पवित्र है एवं अन्यों को भी पवित्र करने की क्षमता से परिपूर्ण है।गंगाजल का छिड़काव किसी भी व्यक्ति,वस्तु अथवा स्थान पर करने से वे वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं।
गंगा नदी पृथ्वीतल का सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है।महाभारत में कहा गया है कि गंगाजी के समान दूसरा तीर्थ नहीं,श्रीविष्णु के समान देवता नहीं,ब्राह्मण से बढ़कर कोई श्रेष्ठ नहीं, यह ब्रह्मदेव की वाणी है,
“गङ्गासदृशं तीर्थं न देवः केशवात् परः।
ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः।।”
गंगा प्रकृतिका बहता जल ही नहीं हैं,अपितु सुरसरिता हैं,मोक्षदायिनी हैं।इसीलिए उन्हें गौरवान्वित करते हुए पद्मपुराण में कहा गया है कि सहज उपलब्ध एवं मोक्षदायिनी गंगाजी के रहते विपुल धनराशि व्यय करनेवाले यज्ञ एवं कठिन तपस्या का क्या लाभ?
नारदपुराण में तो यहाँ तक कहा गया है,”अष्टांग योग,तप एवं यज्ञ,इन सबकी अपेक्षा गंगाजी के तट पर निवास करना उत्तम है।गंगाजी की महिमा अवर्णनीय है।”
गंगा वे हैं जो स्नान करनेवाले जीव को ईश्वर के चरणोंतक पहुँचाती हैं,”गमयति भगवत्पदम् इति गङ्गा।”
दूसरे शब्दों में,”जिनकी ओर मोक्षार्थी अर्थात् मुमुक्षु जाते हैं,वही गंगाजी हैं।गम्यते प्राप्यते मोक्षार्थिभिः इति गङ्गा”
गंगा जी के अनेक नाम हैं।ब्रह्माजी ने गंगाजी को अपने कमंडलु में धारण किया इसलिए उन्हें ‘ब्रह्मद्रवा’ कहते हैं।गंगाजी के विष्णुपद को स्पर्श कर भूलोक में अवतरित होने से उन्हें ‘विष्णुपदी’ अथवा ‘विष्णुप्रिया’ नाम प्राप्त हुए।राजा भगीरथ की तपस्याके कारण गंगा नदी पृथ्वी पर अवतीर्ण हुईं;इसलिए उन्हें भागीरथी अर्थात् भगीरथ की कन्या कहते हैं ।
वायुपुराण के अनुसार हिमालय से नीचे उतरते समय गंगाजी अपने साथ राजर्षि एवं तपस्वी जह्नु ऋषि की यज्ञभूमि बहा ले गईं,इस बात से क्रोधित होकर जह्नुऋषि ने उनके संपूर्ण प्रवाह का प्राशन कर लिया था।जब भगीरथ ने जह्नुऋषि से प्रार्थना की,तब उन्होंने गंगाजी के प्रवाह को अपने एक कान से बाहर छोड़ा,इससे वे जाह्नवी अर्थात् जह्नुऋषि की कन्या कहलाने लगीं।
भूतलपर अवतरित होने के पश्चात् गंगाजी की धारा को शिवजी ने अपनी जटा में थाम लिया।उस समय उनके तीन प्रवाह हुए।इन प्रवाहों में से पहला स्वर्ग में गया,दूसरा भूतल पर रह गया तथा तीसरा पाताल में बह गया, इसलिए उन्हें ‘त्रिपथगा’ अथवा ‘त्रिपथगामिनी’ कहते हैं।गंगाजी को स्वर्ग में मंदाकिनी,पृथ्वी पर भागीरथी तथा पाताल में ‘भोगावती’ कहते हैं।गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी सुरसरि की धारा को मंदाकिनी नाम से स्मरण किया है और उसके महत्व के विषय में कहा है,
“सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि।जो सब पातक पोतक डाकिनि॥”
हरिद्वार के कनखल,प्रयागराज का संगमस्थल सहित गंगासागर धरती पर प्रमुख तीर्थ हैं।तीर्थराज प्रयाग के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि तीर्थराज प्रयाग का भंडार जीवन के पुरुषार्थरूपी चार पदार्थों धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष से भरा हुआ है और वह पुण्यमय प्रांत अत्यंत रमणीय है,
“चारि पदारथ भरा भँडारू।पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥”
गंगाजी की ब्रह्मांड में उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि वामनावतार में श्री विष्णु ने दानवीर बलि से भिक्षा के रूप में तीन पग भूमि का दान माँगा था।राजा बलि इस बात से अनभिज्ञ थे कि श्रीविष्णु ही वामन के रूप में उनके यहाँ दान माँगने आए हैं,उन्होंने उसी क्षण वामन को तीन पग भूमि दान कर दिया।वामन ने विराट रूप धारण कर पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी तथा दूसरे पग में अंतरिक्ष को नाप लिया।दूसरा पग उठाते समय वामन भगवान के बाएँ पैर के अँगूठे के धक्के से ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म-जलीय कवच टूट गया और उस छिद्र से गर्भोदक की भाँति ‘ब्रह्माण्ड के बाहर के सूक्ष्म-जल ने ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गया।यही सूक्ष्म-जल गंगा है।गंगाजी का यह प्रवाह सबसे पहले सत्यलोक में गया और ब्रह्मदेव ने उसे अपने कमंडलु में धारण कर लिया।ब्रह्माजी ने अपने कमंडलु के जल से श्रीविष्णु के चरणकमलों का प्रक्षालन किया।उस जल से गंगाजी की उत्पत्ति हुई ।
तत्पश्चात् गंगाजी की यात्रा सत्यलोक से क्रमशः तपोलोक,जनलोक,महर्लोक से होकर स्वर्गलोक तक संपन्न हुई।आयुर्वेद में गंगाजल को ‘अंतरिक्षजल’ कहा गया है।
महाराज भगीरथ जी की कठोर तपस्या के कारण गंगाजी का पृथ्वी पर अवतरण हुआ।इसके संबंध में पुराणों में वर्णन मिलता है कि सूर्यवंशी राजा सगर ने जब अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया तो उन्होंने दिग्विजय करने के लिए अश्वमेध का अश्व एवं अपने साठ हजार पुत्रों को भी उस अश्व की रक्षा हेतु भेजा।इस यज्ञ से भयभीत देवराज इंद्र ने यज्ञीय अश्व को कपिलमुनि के आश्रम के निकट बाँध दिया।जब सगरपुत्रों को वह अश्व कपिलमुनि के आश्रम में मिला,तब उन्हें लगा कि कपिलमुनि ने ही अश्व चुराया है।इसलिए सगरपुत्रों ने ध्यानस्थ कपिलमुनि पर आक्रमण करने का विचार किया।
कपिलमुनि को अंतःचक्षु से यह बात ज्ञात हो गई और उन्होंने अपने नेत्र खोले।तत्काल उनके नेत्रों से निकले तेज से सभी सगरपुत्र जलकर राख हो गए।कुछ समय पश्चात् सगर के प्रपौत्र राजा अंशुमान ने सगरपुत्रों की मृत्यु के कारण का पता लगाया और उनके उद्धार का उपाय पूछा ।
दयालु कपिलमुनि ने राजा अंशुमान से कहा कि तुम्हारे पितरों की मुक्ति के लिए गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाना होगा।गंगाजल से ही उनका उद्धार संभव है।मुनिवर के निर्देशानुसार गंगा जी को पृथ्वीपर लाने हेतु अंशुमान ने तप आरंभ किया,किंतु वे सफल न हो सके।अंशुमान की मृत्यु के पश्चात् उसके सुपुत्र राजा दिलीप ने भी गंगावतरण के लिए तपस्या की।अंशुमान एवं दिलीप के हजार वर्षों तक तप करने पर भी गंगावतरण नहीं हो सका।
राजा दिलीप की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र राजा भगीरथ ने कठोर तपस्या की।उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर गंगामाता ने भगीरथ से कहा,‘‘मेरे इस प्रचंड प्रवाहको सहन कर पाना पृथ्वीके लिए कठिन होगा,इसलिए तुम भगवान शंकर को प्रसन्न करो।’’ महाराज भगीरथ की तपस्या से आशुतोष शंकर प्रसन्न हुए तथा उन्होंने गंगाजी के प्रवाह को अपनी जटा में धारण कर उसे पृथ्वी पर छोड़ दिया।इस प्रकार हिमालय में अवतीर्ण गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे हरद्वार,प्रयाग आदि स्थानों को पवित्र करते हुए बंगाल के उपसागर में पहुँचीं और उस स्थल को गंगासागर कहा जाने लगा।
हिमालय पर्वत की गंगोत्री में उद्गम पानेवाली दो हजार पाँच सौ दस कि.मी. लंबी गंगा नदी गंगासागर में मिलती हैं।इस मार्गमें वह करोडों भारतीयों को जल की आपूर्ति करती हैं,धरती का ताप दूर करती हैं,फसलें उगाती हैं,धरती को रमणीक बनाती हैं एवं श्रद्धालुओं को गंगास्नान का आस्वाद प्रदान करती हैं; अतः गंगा नदी ‘जीवनदायिनी’ हैं ।
गंगाजी के जल के विषय में कहा जाता है,‘औषधं जाह्नवीतोयम्।’ अर्थात् गंगाजल ही वास्तविक औषधि है।विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय जब वर्ष पंद्रह सौ पचीस में मरणासन्न अवस्था में थे,उस समय उन्हें गंगाजल दिया गया था जिससे वे पुनः जीवन जीने योग्य हो गए थे।गंगाजल की विशेषता है कि घर में लाकर रखे गए गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ते हैं।इसका कारण है कि हिमालय में उत्पन्न विभिन्न औषधीय वृक्ष तथा जड़ी-बूटियाँ गंगाजल को औषधीय गुणों से युक्त करती हैं जैसे बकायन,गुंजा, खस, द्रोणपुष्पी,कंटकारी,सहदेवी, देवदार,अड़हुल,सोनपाठा,नीलगिरी,पाषाणभेद,अपराजिता इत्यादि।
माँ गंगा संपूर्ण भारत की प्राण रेखा है।देश की एक तिहाई जनसंख्या गंगा पर ही आश्रित है;पर गंगा के अस्तित्व पर आज संकट पैदा हो गया है।बड़े-बड़े बाँध बनाकर उसे बन्दी बनाया जा रहा है।उसके किनारे बसे नगरों की संपूर्ण गंदगी गंगा में बहा दी जा रही है और उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थ उसी में डाल दिये जाते हैं।इस प्रकार गंगा को मृत्यु की ओर ठेला जा रहा है।
इस दुर्दशा की ओर जनता तथा शासन का ध्यान आकृष्ट करने के लिए अनेक साधु-सन्तों और मनीषियों ने कई बार धरने, प्रदर्शन और अनशन किये हैं।कितनों ने आत्मबलि तक दी है।गंगा की दर्शनीयता बनी रहे,स्वच्छता बनी रहे और पावनता बनी रहे,इस निमित्त प्रत्येक भारतवासी को कटिबद्ध रहना चाहिए।हिमाद्रेः संभूता को हिमगिरि के बर्फीले अंक में स्वच्छंदता पूर्वक विहार करते रहने का निष्कंटक अवसर प्रदान करने से गंगाजल में हिमालयी औषधियों का समावेश होगा और गंगा हमारे लिए जीवनदायिनी बनी रहेंगी।’ततो भूमिं याता विचरसि सुहासा समतले’ के अनुसार उसे मैदानी क्षेत्रों में स्वच्छंद विचरण का अवसर प्रदान करने से “पुनासि त्वं लोकान्” की अक्षुण्णता बनी रहेगी और दिव्य गंगा का जल हमारे लिए सुखद बना रहेगा।
विजयशंकर मिश्र ‘भास्कर’
लखनऊ