तब मैं चौथी कक्षा का विद्यार्थी था। पन्द्रह अगस्त नजदीक आ रहा था। तब स्कूलों में राष्ट्रीय पर्वों को बड़े उत्साह के साथ मनाने के लिए कुछ दिनों पूर्व से जोरदार तैयारियां की जाती थी। गुरूजी ने 15 अगस्त को प्रभात फेरी में ड्रेस और जूते पहन कर आने को कहा था। तब हमारे लिए ड्रेस सहित अन्य शैक्षणिक और अन्य दैनिक स्कूली प्रयोग की सामग्री लाने की कट ऑफ डेट पन्द्रह अगस्त ही होती थी। गुरूजी ने खूब नारे और देशभक्ति गीत हमें लिखवाये थे जिन्हें हम घर व स्कूल में याद करने का प्रयास करते थे। इसी क्रम में गायों के साथ हो या स्कूल जाते वक्त अथवा इन्टरवल का वक्त, हर समय हम इन नारों और देशभक्ति गीतों को गुनगुनाते रहते।
पास के “हाडिगदरा” बाजार में शशि प्रसाद लाला जी की दुकान तब इलाके की सभी जरूरतों के समान की दुकान होती थी। हाडिगदरा हमारे नजदीकी बाजार रतूड़ा का स्थानीय नाम था। दादी ने पहले ही दिन गुलाबु बौडा से जाकर बात कर ली थी कि कल मेरे नाती को (याने मुझे) भी साथ में हाडिगदरा ले कर जाना और दुकान से उसके लिए जूते ले कर साथ लिवा लाना।
गुलाबु बौडा हमारे गाँव के प्रतिष्ठित चिंनाईं के मिस्त्री थे। पिता जी का बौडा के चिनाईं के काम पर बड़ा विश्वास था इसीलिए हमारे मकान और गोशाला की चिंनाई के मिस्त्री वे ही रहे थे। इस दौरान परिवार के सभी लोगों से गुलाबु बौडा खूब हिले मिल गये थे और हम बच्चों के वे बड़े प्रिय बन गये थे क्योंकि वे हमें तरह तरह की कहानियां और किस्से सुनाकर खूब हँसाते। बौडा हफ्ते के दो दिन हाडिगदरा बाजार जरूर जाते । उनकी इस साप्ताहिक यात्रा के दो कारण होते। पहला यह कि घर की जरूरत का छोटा मोटा सामान वे खुद ले आते और दूसरा ये कि हफ्ते के इन दो दिनों में सैर के साथ-साथ देश विदेश की खबरों का भी वो बातचीत में संज्ञान ले लेते थे जिस कारण देश दुनिया की बड़ी खबरों के साथ साथ वे राजनीतिक मुद्दों पर भी अपनी राय रखने लायक ज्ञान प्राप्त कर लेते। यह बात गाँव भर को पता थी कि गुलाबु बौडा हफ्ते में दो दिन हाडिगदरा बाजार जाते हैं। सर्दियों में उनका समय लगभग 2बजे और गर्मियों में 4बजे का होता। इसलिए लोग अपना छोटा मोटा सामान जैसे दियासलाई, साबुन, बीड़ी, तम्बाकू की पिंडी आदि उनसे ही मंगा लिया करते थे। आह! क्या दिन थे वे भी। कितना मेल मिलाप था लोगों में। कितना गहरा संवाद और कितनी गहरी संवेदनशीलता थी लोगों के मनों में ।
दादी की सलाह के अनुसार स्कूल से लौटते वक्त मैंने भी बौडा के घर जाकर उनसे कह दिया दिया था कि “बौडाजि श्याम बक्त मैन भि औण तुम दगड़ि हाडिगदरा”
(ताऊ जी शांम को मैं भी आपके साथ हाडिगदरा आऊंगा।)
चार बजे से पहले पहले मैं बौडा के घर के बाहर पहुंच गया। मुझे देखते ही बौडाजी बोल पड़े “ऐगि भै नाना तू” (आ गया भई भतीजे तू। )
हम दोनों साथ साथ सेरे (सिंचाईदार खेतों) के रास्ते चल पड़े। रास्ते में कई जान पहचान के लोगों से रामारूमी (नमस्कार /अभिवादन) करते वक्त बौडाजी ने मेरे साथ आने का कारण भी उन्हें बता दिया।
खेतों से उतर कर जब हम नदी किनारे वाले रास्ते पहुंचे तो बौडाजी जी की चाल कुछ धीमी हो गई। अलकनंदा के ऊपर बना पुल हवा के झौंकों से हल्के हल्के झूल रहा था। (हमारे यहाँ श्रद्धा और पवित्रता के कारण अलकनंदा को गंगा जी की पुकारा जाता है) पुल के पास पहुचे ही थे कि बौडाजी ने अचानक झुककर अपने प्लास्टिक के जूते हाथों में थाम लिए और सधे कदमों से पुल पाल करने लगे। देखादेखी में मैंने भी अपने पुराने घिसे से चप्पल भी हाथों में उठा लिए और बौडाजी के कदमों का अनुसरण करते हुए पुल पार करने लगा। लकड़ी के तख्तों वाले पुल पर कई जगहों पर लकड़ी पुरानी हो जाने के कारण छेद भी हुए थे, पीछे मुड़कर बौडाजी मुझे हिदायत भी देते कि दौरोंउंद न धौरि खुटू हां”(लकड़ी पर बने छेदों में मत रखना हैं पाँव)। बौडा के हाथों में जूते देख कई प्रश्न दिमाग में उमड़ने – घुमड़ने लगे। लेकिन मेरा बालमन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका। लकड़ी के तख्तों से बने पुल पर मैं बौडाजी के कदमों का ही अनुसरण कर रहा था। पुल पार करते ही बौडाजी ने हाथ पर पकड़े जूते जमीन पर रखे। मैंने मन में चल रहे सवालों में से उत्सुकतावश पूछा बौडा आपने पुल के ऊपर जूते हाथ में क्यों लिए? बौडा ने सहज भाव से मेरे प्रश्न का जबाब देते हुए कहा कि – गंगा हमारी माँ है और माँ को जूते पहन कर नहीं लाँघते। फिर मैंने उत्सुकता वश पूछा कि हमारी माँ तो घर में है। इसके बाद बौडाजी ने जो उत्तर दिया वह सहज ही बालमन और बाल मस्तिष्क पर ऐसा अंकित हुआ कि दशकों बाद आज भी ज्यों का त्यों अंकित है । बौडाजी का उत्तर था कि हमें जन्म देने वाली केवल हमारी माँ हैं, जबकि गंगा हमारी, हम सबकी माँ है,क्योंकि मैदानों में उतर कर यह जिन खेतों की सिंचाई करती है उन्ही खेतों में उगा अनाज हमारे गाँव की दुकानों तक पहुंचता है जिसे हम खाते हैं। बड़ी कक्षाओं में जाकर जब पढ़ा कि गंगा पहाड़ों से उतर कर रिशिकेश से आगे बढ़ उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक के एक बड़े भूभाग के कृषि क्षेत्र को अपने जल से सिंचित करते हुए गंगा सागर में जाकर समुद्र से मिलती है तो अनायास ही बौडाजी की वह बात याद आ जाती है कि जन्म देने वाली तो केवल हमारी माँ है, पर गंगा हम सबकी माँ है।संवेगात्मक विकास की उस उम्र में बौडाजी ने मुझे जीवन पर्यन्त के लिए जो बात अपने आचरण से मुझे सिखा दी थी शायद दुनिया का सफल से सफल अध्यापक और बड़े से बड़ा इन्स्ट्यूट भी उस ढ़ंग से नहीं सिखा पाता जिस ढंग से बौडा जी ने बिना कुछ बोले सिर्फ अपने आचरण से सिखा दिया था। गंगा जी से अपना वह पहला परिचय, गंगा पर नजर पड़ते हर बार स्मरण हो उठता है।
अपने गुरू स्वरूप उस पुण्यात्मा को इस संस्मरण के साथ विनम् श्रद्धांजली अर्पित करते हुए कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
हेमंत चौकियाल
रूद्रप्रयाग, उत्तराखंड
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