Breaking News

क्‍या यही प्‍यार है- अशोक

एक प्रश्न बार-बार बेचैन किये जा रहा है कि ऐसा क्यों हुआ ? और फिर वह सुरसा के मुँह की तरह फैलता ही जाता है या फिर कोढ़ की तरह सारे तन गलाये डाल रहा है। उफ़्फ़॥ जैसे पोर-पोर गल-गल कर गिरी पड़ रही है। समझ में नहीं आता कि यह कैसे हो गया ? सौभाग्यशालिनी निशीथ की शीतलता में भी मानो सारे शरीर में फफोले पड़ गये। मैं ज़ोर से चीख पड़ता हूँ- “नहीं, तू नहीं है मेरी वो। मैं तुझसे घृणा करता हूँ। तू मुझे पसंद नहीं है। तू वह नहीं, है जिसे मैं चाहता हूँ। ठहर जा, वहीं रुक जा, आगे मैं नहीं बढ्ने दूँगा। जरा अपनी सूरत तो देखो – भद्दे होंठ, बेतुकी नाक और रंग– जैसे कोयले की खदान से पैदा हुई हो।”
हाँ, डरता हूँ- केवल तुम्हारी आँखों से। डरता हूँ- तुम्हारे भावों से। इनको फेर लो। मैं इनको भी लौटा दूँगा। मेरे हृदय में जो बस चुकी है, वह तुम नहीं हो। बस, चली जाओ। मेरे घर में मत घुसो। उसमें केवल उसी साम्राज्ञी का अधिकार है।
मेरा रोम-रोम उसी की मुस्कान से सिक्त है। वही मेरा जीवन उत्स है। फिर क्यों आती हो ? नीर भरी सतृष्ण आँखों से तुम कटाक्ष तो नहीं करती, परंतु भावों के प्रचंड वेग से तुम क्यों मुझे बहा ले जाना चाहती हो ? यह रवि तुम्हारा नहीं है। नहीं, उस साम्राज्ञी के दुर्ग की प्राचीर यूँ न ढहेगी। लेकिन, आह !!! क्यों विग्रह में कंप हो उठता है ? स्वर क्यों क्षीण होता जाता है ? क्यों …? और, मैं और बेचैन होता जाता हूँ। अब तो साल होने को है, जब से तुम्हारे सामने के मकान में आया हूँ। एक तो पढ़ाई के आवेग में इन भावों से अछूता ही रहा हूँ, दूसरे – वह जो गहरे पानी में भी चमकती सी दिखाई दी है, वह जो अनंत अन्धकार में भी नितांत पास कल्पित रही है, उसने कब सोचने का मौका दिया है ? देखता आया हूँ- तुम्हारी जीवनी को, दिनचर्या को और सब कुछ भूलती हुई सी अपलक निहारती आँखों को। प्रारम्भ में कितना चमक लिये, पर धीरे-धीरे आँखें नम होती। उनकी पुकार हमेशा लौटती रही हैं-जमीन बुहारती तुम तक। मानता हूँ- तुमने कभी तो श्रंगार नहीं किया। कभी कुरूपता नहीं छिपायी। कभी इठलाई नहीं- लहराई नहीं। तुम्हारी आँखों ने भी तो कभी इशारों का सहारा नहीं लिया। निर्निमेष, निहारती,, उपेक्षा से किंचित
विचलित न होती सी। बस, यहीं मैं बेचैन हो उठता हूँ। देवराज सा भयभीत हो उठता हूँ। पर, अपने आसन के लिए नहीं, अपनी उस कल्पित साम्राज्ञी के आसन के हिलते देखकर। तुम्हारी आँखों के दो बिन्दु विशाल भुजाओं से बढ़कर उसे पकड़कर घसीटने से लगते हैं। पर, मैं हमेशा उसकी मदद करता हूँ। उन बढ़ती भुजाओं को वापस कर देता हूँ।
इस एक साल के सामने सत्रह वर्षों की सारी कल्पना प्रतिरोध में खड़ी हो जाती है। बचपन से अब तक, बनाते-बनाते बहुत ही अकाट्य एवं अभेद्य बना दिया है उसको। नानी की मधुर कहानी हो या दादी की, माँ की लोरियाँ हों या पिता का दुलार, बाबा की गोद हो या फिर धूल की क्रीड़ा; सभी से सीखा है, सुना है और बसा लिया है उसको। उसके लिए दस-दस मकर संक्रांतियों का पुण्य बटोरा है हमने। तीन-तीन बजे प्रभात काल में ठंडे पोखर में डुबकी लगाई है हमने। मोहन की गोपियों की, नल की दमयंती की, जायसी की पद्मावती की कहानी सुनी है हमने। उनसे न्यून तो नहीं होगी – मेरे हृदय साम्राज्य की मालिका ! श्रंगार के धुरंधर पंडितों की रूप विरुदावलियों ने खूब संवारा है उसे- नख से लेकर शिख तक। पूर्ण कर दिया है उसे। वह जो है- वही तो है मेरी साम्राज्ञी। जिसके एक-एक कंप, एक-एक धड़कन का मैं भक्त बन गया हूँ, उपासक बन गया हूँ। जिसके समर्पण से मैं गर्वित हो जाता हूँ। वह जो कविवृन्द की आराध्य है। चाहें वह गौर वर्ण गोरी हो या श्याम वर्ण श्यामली; वह जो सर्वांग सुंदरतम है जिसका मैं स्वयं कल्पित पूज्यदेव हूँ। वह जो अभी तक यथार्थ के धरातल पर नहीं उतरी। जो अभी तक स्वप्न लोक या कल्पना लोक की राजकुमारी है, कब आयेगी ? जब यह प्रश्न उठा तो- माँ की बातें- नानी के किस्से- ‘जब तू पढ़कर बड़ा होकर राजा बाबू बन जायेगा तो वह राजकुमारी रानी बन कर तेरे जीवन में आ जायेगी।’ और फिर कोई प्रश्न, कोई रिक्तता न रह पाती। आशा- ‘नहीं-नहीं, जरा यह पढ़ाई पूरी कर लूँ…’यही संकल्प बनकर सब प्रश्नों को क्षितिज पार खदेड़ आती है।
मानता हूँ कि तुमने कभी भी शब्दों का सहारा नहीं लिया। लेकिन कभी नहीं लगा कि तुमने क्या नहीं कहा है ? जो कुछ भी तुमने कहा है मैंने कानों से तो नहीं सुना है परंतु वह मेरे हृदय में घुस कर मथ-मथ कर गूँजता है। यही स्थिति, यही त्रिकोण व्यथित कर देता है मुझे। कंप होता है, भय होता है। लाख कोशिश करता हूँ कि तुम्हारी आँखों, तुम्हारी भावनाओं के अथाह सागर से बाहर आऊँ, परंतु उसका ज्वार मुझे झुका देता है, बहा देता है और मैं हाथ पैर पटक-पटक कर पकड़ता हूँ, बाहर आने की कोशिश करता हूँ। परंतु- न जाने कहाँ का फेन आकर स्निग्ध कर जाता है मुझे, और मैं अपने आपसे चीख पड़ता हूँ। कहीं कोई नहीं है जिसे पुकारूँ मैं ? अपने लिए नहीं – उसके लिए चीखता हूँ। अब तक उसके पहरे पर निशि-वासर जागता खड़ा रहा हूँ। मैंने अभी उसको जगाया नहीं है। उसको देखता रहा हूँ। वह सो रही है। डरता हूँ- जब वह जागेगी, तब कहीं मेरे भावों को जान कहीं खिन्न न हो जाय। अनायास ही उसकी आँखें खुल गयीं तो ? अस्तु, इस भय से मैंने सारे द्वार बंद कर रखे हैं। किसी को भी अंदर नहीं आने दूँगा। वातायन बंद करने को भी जी चाहता है परंतु डरता हूँ – कि कहीं वह नाराज़ न हो जाये ? हाय री किस्मत ! आँखें फोड़ लूँ तो कोई भी झोंका न आ सकेगा। लेकिन कल वह जब जागेगी औए देखेगी कि झरोझे बंद हैं तो आहत होगी। किसे दिखाएगी- अपना मलयज रूपमाल्य ? किन्तु आह !यह कौन सा चुपके-चुपके से झोंका आया ? मेरे पैर उखड़ रहे हैं। बार-बार उसी घृणा का सहारा लेता हूँ। क्यों ? समझ नहीं पाता। मुझमें घृणा का तो कहीं किंचित स्थान न था, फिर क्यों ? क्यों मैं घृणा करता हूँ ? क्या अपनी इच्छाओं – अपनी कल्पना कि रक्षा में ? जानता हूँ- समझता हूँ कि यह अमानवीय है। लेकिन, अब डरने लगा हूँ। घृणा काम नहीं करती। वह हारने लगी है। दुबक कर पता नहीं किस दुर्गम कानन में शरण लेती है जाकर। एक अज्ञात भय विग्रह पाने लगता है।
मैं ज़ोर-ज़ोर से चीखता हूँ- क्या संबंध है तुमसे ? कुछ भी तो नहीं। कुछ भी चाहत नहीं है तुमसे।फिर तुम्हारा मौन ! आह !! क्या चैन न लेने देगा ?अंदर न जाने कब से यह संघर्ष छिड़ गया है- जिसको कभी नहीं देखा, उसके लिए मैं तुम्हारी भावनाओं का मूल्य नहीं समझता। फूलों को देखता हूँ, तो उसका स्मित मुख सचित्र हो उठता है। मोतियों में उसकी दंतावली नज़र आने लगती है। मृग नैन में उसके कजरारे नयन चंचल हो उठते हैं। घटाओं में उसकी अलकावली याद हो आती है। अब बोलो- क्या तुम यह हो ? यदि नहीं, तो बंद कर दो अपना यह स्थिर मूक अवलोकन। तुम कब टूटोगी ? तुम्हारे धैर्य से मैं अधीर हो जाता हूँ। क्या तुम्हारे मन में कभी निराशा नहीं पनपती ? उफ़्फ़ ! नारियों का विश्वास ? परमात्मा भी अपने विधान बादल देता है। सोचता हूँ- कहीं मैं टूट न जाऊँ ? पर नहीं, इतना सहज नहीं है। यह सब मैं तुमसे प्रतिदिन कहता हूँ- निशब्द। मैं खुद कहाँ तुमसे कभी बोला। कभी चाहा ही नहीं जिसे, फिर किस हेतु ? कभी भी तो ऐसी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी कि शब्द सम्प्रेषण होता। तुम्हारे परिवार से भी तो मैंने कभी कोई संपर्क या संबंध रखा। मेरे हृदय के किसी भी ठौर तुम्हारा ठिकाना नहीं। मैं सोचता हूँ- सिवाय उसके, कुछ भी नहीं है। पर, वहीं फुसफुसाहट सी होती है –‘कहीं कुछ है… कुछ है…’और मैं बस दुर्बल सा चीखकर रह जाता हूँ- ‘नहीं है… नहीं है… नहीं है…’
मैं नहीं जानता कि तुम्हारी दिनचर्या मेरे कॉलेज जाने के बाद कैसे होती है ? यह जो तुम्हारे घर के बाहर नीम का पेड़ है, जिसके पत्ते दिन-रात गिरते ही रहते हैं, जिनकी वजह से, मैं तुम्हें बस सुबह-शाम झाड़ू लगाते ही देख पाता हूँ। बस उतनी देर की तुम्हारी अपलक दृष्टि मेरा शेष काल में भी पीछा नहीं छोड़ती है। छाया सी मेरे अंतस से चिपक सी गयी है। क्या तुम्हारी आँखों- तुम्हारे भावों से ही मेरा पराभव हो जायगा ?कल तुम दिखाई नहीं दी थीं। राहत मिली थी। कोई भी बेचैनी नहीं हुई थी मुझे। पर, दिल कुछ अनमना सा हो गया है- किसी ज्वर के प्रारब्ध के सदृश। आज का दिन भी गुजर जाने को है, और-आज तो पाँचवाँ दिन है तुम नहीं दिखीं। मन व्याकुल हो उठा है। अब दिन तो पूर्ववत कट जाते हैं,परंतु रातें अप्रत्याशित होने लगी हैं। स्वप्न आने लगे हैं तुम्हारे।तुम दुबली हो गयी हो। फिर भी धीरे-धीरे चल कर आती हो और मेरे पास आकर खड़ी हो जाती हो और क्षीण स्वरों से कहती हो-“देखिये, माना कि तुम मेरे नहीं हो, लेकिन मैं तो तुम्हारी हूँ। तुम्हारे बिना मैं अस्तित्वहीन हूँ। किरन हूँ न।”फिर मेरे चुप से दुखी हो कहती हो-“मुझसे बोलिए तो, मुझसे बात तो कीजिये। क्या इतना अधिकार भी नहीं दोगे कि कम से कम तुम्हारी कुशलक्षेम ही पूंछ सकूँ ? बोलो- मुझसे बोलेंगे न ? बात तो करेंगे न मुझसे ? बोलो… बोलो…”बस, स्वप्न टूट जाता है और तुम्हारे वाक्य सारे आकाश में सिसकते से गूँजते हैं।
मेरा हृदय मथने लगता है। लेकिन उसमें कोई रत्न नहीं निकलता है। तुम्हारी आवाज़ ही निकलती है।उससे। जिसमें तुम्हारी आँखों के आँसू नहीं भरे थे। भरा था जिसमें – उस अद्वतीय सुंदरी का रूप रस। एक परिवर्तन होता है – घड़े में नीचे से मानो छेद हो गया है और रूप रस टपकने लगा है। घट जो धीरे-धीरे खाली हो रहा है- भावना के मेघ घिर आए हैं और वे बरस रहे हैं। घट भरा जा रहा है और मैं किसी से पूंछ बैठता हूँ-‘किरन कहाँ है? दिखती नहीं ?’ उत्तर सुनता हूँ- ‘बीमार है।’ आह ! मन क्यों मसोस उठा है ? हृदय क्यों चोटिल हुआ ? और मैं क्यों अनायास ही किधर चला जा रहा हूँ ? न पूर्व सोचा है, किधर जाना है ? कदम उठ गए हैं, बढ़े जा रहे हैं। हृदय क्यों किसी को मूक मंत्रणा दे रहा है कि काश ! वे राह में आ जातीं और मैं मीठे मृदुल स्वरों में कहता- ‘सुनिए, जरा हट जाइये…’ परंतु फिर क्षितिज के किसी छोर से कोई हाँफता सा आता और कहता ‘क्या? तो अभी भी तुम उसे अपनी राह से हटाना चाहते हो ? क्यों ?’ मैं धीरे से कहता- ‘मैंने उसे अपनी राह में लाना ही कब चाहा? मैं उसे नहीं चाहता।’वह शांत मन से मेरे चेहरे पर आँखें गड़ा कर पूंछता- ‘क्या सच?’और मैं उत्तर न दे पाता। क्यों ? समझ नहीं पाता।
और तभी अपने को मंदिर के गर्भ गृह में खड़ा पाता हूँ। भगवान कि प्रतिमा के आगे हाथ जोड़े भर्राए गले से कहता हूँ – ‘उसे ठीक कर दो प्रभु ! … उसे …’यहाँ तक कैसे आ गया ? जान ही नहीं पाया। क्यों और किस लिए ? अब कोई बेचैनी नहीं है, पर
हृदय में दर्द उठ रहा है, क्यों और किस लिए ? क्या दया, हमदर्दी या यही प्यार है ?

अशोक कुमार शर्मा
अजमेर रोड, बड़ के बालाजी,
सारंगपुरा- जयपुर.(राजस्थान)-३०२०२६

About sahityasaroj1@gmail.com

Check Also

अहिल्याबाई होलकर एक अद्वितीय प्रतिभा की साम्राज्ञी- डॉ शीला शर्मा

अहिल्याबाई होलकर एक अद्वितीय प्रतिभा की साम्राज्ञी- डॉ शीला शर्मा

बहुत कम लोग ऐसे होते है जो स्थान और समय की सीमाओं को तोड़ , …

7 comments

  1. अशोक कुमार शर्मा

    संपादक मंडल का बहुत बहुत धन्यवाद.

  2. मर्म स्पर्शी कहानी। सचमुच मेरे पास इस कहानी की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं।

    • अशोक कुमार शर्मा

      आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.

  3. Mahesh Tewari

    सुंदर भाव प्रवण रचना…

    • अशोक कुमार शर्मा

      आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय.

  4. Mahesh Tewari

    रोचक आत्मकथ्यात्मक रचना…

    • अशोक कुमार शर्मा

      आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *