संस्मरण – बात उन दिनों की है जब हम छुट्टियों में अपने गाँव गए हुए थे। तब हमें हमारी छुट्टियाँ गाँव में ही बितानी होती थी। तब किसी पर्यटन स्थल पर जाने का चलन नहीं था। बहुत हुआ तो नजदीक के तीर्थ-स्थान पर चले गए। पर ऐसा बहुत कम होता था; क्योंकि तीर्थ-स्थानों की भीड़-भाड़ में बच्चों को लेकर जाना मेरे बाबुजी को उचित नहीं लगता था और पैसे भी अधिक खर्च हो जाते थे। माँ के बार-बार आग्रह करने पर वे अक्सर एक वाक्य सुनाया करते थे — ” कर लेना घनघोर तपस्या, वर्ष चौथ के आने पर”। बहरहाल, मेरी नानी मेरी माँ के बचपन में ही स्वर्ग सिधार गयीं थीं। बिन माँ की बच्ची पर सभी सिर्फ तरस ही खाते हैं, खातिरदारी कोई नहीं करता। वैसे भी माँ का मायका उतना समृद्ध नहीं था कि एक और कुनबे का खर्च वहन कर सके या ढंग से स्वागत-सत्कार कर सके! हालाँकि माँ जब भी जातीं हम सबका प्रबंध तो करती ही थीं, अपने मायके वालों की भी किसी-न-किसी बहाने मदद कर आती थीं जिस कारण वे संकोच में घिर जाते। हमारे बाबुजी नहीं चाहते थे कि किसी के स्वाभिमान को ठेस लगे। अतः शायद इन्हीं कुछ कारणों से हमारा नानी गाँव जाना नहीं हो पाता था। इसलिए हर साल दादी गाँव ही जाते थे। मैं अपनी दादी को आजी बुलाती थी।
हाँ, तो हम गर्मी की छुट्टियों में आजी गाँव गए थे। मेरी आजी बहुत ही खूबसूरत थीं। दूधिया रंग, तीखे नाक-नक्श और लंबी इतनी थीं कि बुढ़ापा आने पर आधी झुक गयी थीं। तब मैं यह बात नहीं समझ पाती थी कि उनके झुकने का कारण उनका बुढ़ापा है। मैं हमेशा उनसे कहती कि वो सीधी होकर क्यों नहीं चलती? वहाँ अक्सर फेरीवाले सर पर या साइकिल पर टोकरा रख कर आते थे। उनके टोकरे में तरह-तरह के खानेपीने के सामान भरे होते थे। एक फेरीवाला जिसका नाम लाला था, फलों का टोकरा लेकर आता जो कभी आमों से भरा होता तो कभी तरबूज से। मुझे तरबूज बहुत पसंद था। गाँव में तरबूज को ललमी कहते थे। ललमी लाने की वजह से हम बच्चे उन्हें ललमी चाचा कहा करते। गाँव के संस्कार इतने अच्छे होते थे कि वहाँ उमर के हिसाब से सभी लोगों को चाचा, बाबा या भइया के संबोधन से ही बुलाते। इस तरह लाला चाचा को हम ललमी चाचा कहते जो उन्हें भी बहुत अच्छा लगता।
बहरहाल, जब ललमी चाचा आते तो हम ललमी खरीदने को उतावले हो उठते। आजी से चिरौरी करते खरीदने की। आजी कभी मना तो नहीं करती, किंतु चावल या धान लाने के लिए अपनी झुकी कमर से इतना धीरे-धीरे चलतीं कि हमारे सब्र का पैमाना छलकने लगता। हमें डर होता कि इतनी देरी करने पर कहीं लाला चाचा चले न जाएँ! हम आजी से कहा करते कि आप जगह बता दीजिए कि धान या चावल कहाँ रखा हुआ है, हम दौड़ कर ले आएँगे, क्योंकि तब गाँव में विनिमय प्रणाली चलती थी। अर्थात् सामान के बदले सामान। किसी के भी घर में पैसे न भी होते तो कोई चिंता नहीं होती थी। … वहाँ पैसों की जरूरत भी नहीं होती थी… क्योंकि उनके पास अनाज होते थे। इन अनाजों की भी श्रेणियां होती थीं कि कौन-से अनाज किस काम के लिए है। बहुत कसा हुआ प्रबंधन होता था आजी का। फेरीवाले के सामान की कीमत चुकाने के लिए आजी डलिया में अनाज लेकर अपनी झुकी कमर के साथ धीरे-धीरे आतीं। फेरीवालों को भी पता होता था, इसलिए वे इत्मीनान से बैठे रहते थे। मुझे फेरीवाले के चले जाने के साथ-साथ यह भी चिंता रहती कि झुके-झुके आजी की कमर दुख जाएगी। घर के अन्य सदस्यों पर भी गुस्सा आता था कि कैसे वे अपनी आँखों से आजी की इस पीड़ा को देख रहे हैं, पर कुछ कर नहीं रहे। मेरे बाबुजी जो आजी की इतनी चिंता करते थे कि उनके लिए अपनी जान तक भी दे सकते थे। वे भी इस बात की उपेक्षा कर रहे हैं। मन में अंतर्द्वंद चलता रहता… घर में सबसे छोटी होने के कारण डाँट के डर से किसी से पूछ भी नहीं पाती थी। मैंने सोचा कि एक बार हिम्मत करके मैं आजी को सीधी कर दूँ तो बाबुजी भी खुश हो जाएँगे और मुझे शाबाशी मिलेगी सो अलग। मुझे कहाँ पता था तब कि झुकने की वजह से उनकी हड्डी कड़ी हो गयी थी और झटका देने पर असह्य पीड़ा होने का खतरा तो था ही, उनकी हड्डी टूट भी सकती थी। बस, मैंने तो ठान लिया था कि मैं तो आजी को सीधी करके ही रहूँगी। मैं एक ऐसे समय का इंतजार करने लगी, जब मैं आजी के साथ अकेली रहूँ और जब उन्हें सीधी कर दूँ तो सारा श्रेय मुझे अकेले ही मिले। जल्दी ही वह अवसर भी मिल गया। एक दिन आजी ने मुझे कोठिला के ऊपर से कुछ उतारने के लिए बुलाया। कोठिला जो गाँव में धान-चावल रखने के लिए मिट्टी का बड़ा सा टैंक जैसा बना होता है जिसके ऊपर मिट्टी का ही बड़ा ढक्कन होता है और नीचे नल की टोटी की जगह एक हाथ अंदर जाने भर छेद रहता है जिसे कपड़ा ठूँस कर बंद कर दिया जाता है। जब चावल निकालना होता है कपड़ा हटा कर जरूरत के अनुसार निकाल लिया जाता है।
मैंने सामान उतार कर दे दिया। उस वक्त हम दोनों के अलावा अन्य कोई नहीं था वहाँ पर। अचानक झटके से मैंने उनके दोनों हाथों को पकड़ कर ऊपर उठा दिया। वो दर्द से बिलबिला उठीं और जोर से चीख पड़ीं। डर कर मैंने जल्दी से उनका हाथ छोड़ दिया तो वे जमीन पर गिर पड़ीं। मैं पूरी तरह घबरा गयी और मुझे अहसास हुआ कि मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। मैं थर-थर काँप रही थी कि अब तो मुझे खूब मार पड़ेगी। आजी की चीख सुनकर घर के सभी लोग दौड़े आए। ” क्या हुआ? क्या हुआ…?” कई आवाजें एक साथ गूँजने लगीं। उनको जमीन पर गिरी हुई देखकर बाबुजी बोल उठे, “अरे! कैसे गिर गयी? कोई हड्डी तो नहीं टूटी न…” फिर किसी बनिहार(नौकर) को आवाज दी कि हड्डी बैठाने वाले को बुला लाए जिसे उस जमाने के हड्डी रोग विशेषज्ञ भी कह सकते हैं। गाँव में ऐसे कुछ अनुभवी लोग होते थे जो विशेष मालिश के द्वारा इस तरह के दर्द को कम करने का प्रयास करते थे। जब तक आजी को उठा कर खाट पे सुलाया गया, माँ झट से तेल गरम करके ले आयीं और उनकी कमर की अच्छी तरह से मालिश की। थोड़ा दर्द कम होने पर बाबुजी ने पूछा कि अचानक क्या हो गया था? मेरे बाबुजी मेरे ऊपर कुछ ज्यादा ही गुस्सा करते थे और आजी इस बात को जानतीं थीं। उन्होंने मेरी तरफ देखा और मुझे भय से काँपते देख बाबुजी से कहा कि वह खटिया पर से नीचे गिर गयी जिससे कमर में चोट लग गयी। “ध्यान से उठा-बैठा करो माँ! इस उमर में हड्डियाँ कठोर हो जाती हैं जिससे टूटने का चांस ज्यादा रहता है। टूटने पर जल्दी जुड़ भी नहीं पातीं”… कहकर बाबुजी चले गए। बाद में मैंने आजी से क्षमा माँगी। जब भी किसी बुजुर्ग को देखती हूँ, मुझे मेरी आजी याद आ जाती हैं और साथ ही अपनी करतूत भी।
गीता चौबे गूँज
राँची, झारखंड 8880965006