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जौहर – नारी अस्मिता का हथियार या भावनात्मक आत्महनन


जौहर शब्द जीव और हर से मिलकर बना है , जिसका तात्पर्य है , अपनी अस्मिता की अपनी पवित्रता की सुरक्षा के लिए किया गया आत्मोसर्ग | यह भारतीय पुरातन संस्कृति की उच्चतम मान्यताओं और परम्पराओं में से एक कही जा सकती है | जिसमे अपनी सात्विकता और यौनिक शुचिता को सर्वोपरी मानते हुए उसकी रक्षा के लिए स्वयम को अग्नि में जीवित होम कर देना | जब विधर्मी शत्रु किले को घेर लेता था | उसे हराना असंभव लगने लगता था। और पराजय के बाद यह भय सताने लगता था कि यदि विजयी शत्रु जीत के बाद किले में प्रवेश करेगा समस्त नारी शक्ती का अपमान करता हुआ उन्हें बंदी बनाएगा या विजित सिपाहियों में बाँट देगा या बाजारों में नीलाम कर उनकी इज्जत से पवित्रता से खिलवाड़ करेगा तो इस अपमान से बचने के लिए ये विरागानाएं ये राजपूत स्त्रियां सामूहिक रूप से स्वयं को धधकती आग में कूद कर प्राणोत्सर्ग कर देती थी | यानि जानते बुझते बहादुरी के साथ म्रत्यु के आलिंगन का इतिहास जो जौहर के रूप में भारतीय राजपूत विरांगनाओं के महान बलिदान के रूप में वर्णीत है । धर्म से जुडी कई कई मान्यताओं या परम्पराओं का प्रभाव समाज के निम्न और मध्यम वर्ग के सामान्य जन समुदाय पर ज्यादा पड़ता है | एसा प्राचीन काल से देखा गया है । उच्च वर्ग सारी पुरातन परम्पराओं को अपनी सुख सुविधा अनुसार परिवर्तित कर लेता है लेकिन जौहर की यह परम्परा मुख्यतः सत्तासीन राजपूत वर्ग की क्षत्राणियों द्वारा अपनाई जाती रही है | आज का आधुनिक समाज एवं शिक्षित प्रगतिशील नारी समूह शायद इस पक्ष में नहीं होगा कि नारी अस्मिता या यौनिक शुचिता के नाम पर अपने प्राण तक न्योक्षावर कर दे | गिरते मानवीय मूल्यों और बदलते चारित्रिक प्रतिमानों के बिच यह मान्यता अत्यंत तेजी से कमजोर होती जा रही है कि स्त्री को अपनी वर्जिनिटी की सुरक्षा करनी चाहिए तथा उसे अपने होने वाले जीवनसाथी को अक्षत रूप में सोंपनी चाहिए | विश्व समुदाय में संभवतः यह पवित्र और दुस्साहसी परम्परा सिर्फ भारत में ही होगी वो भी मुख्यतः सत्तासीन राजपूत समाज में और चूँकि राजस्थान में राजपूतों की रियासतें बहुसंख्य होने से विदेशी आक्रान्ता से या स्पष्ट कहें तो मुस्लिम शासकों से अपना सतीत्व और आबरू बचाने के लिए किये गए जौहर की अधिकतम घटनाएं इसी प्रदेश की है |
अपनी मात्रभूमि की , अपने धर्म की स्वतन्त्रता और अपने सत्व की रक्षा के लिए अपने परिजन बेखोफ होकर युद्धभूमि में शत्रु पर टूट पड़ें ,म उन्हें अपनी सह्धार्मिणीयों के अपमान की चिंता न हो इसलिए ये वीर क्षत्राणियाँ एक नहीं हजारों की संख्या में अपने सुकोमल शरीर को अग्नी की लपटों में सहर्ष स्वाहा कर देती थी जिसकी कल्पना मात्र से हमारे रोम रोम सहम जाते हैं ।
जौहर की यह पूरी प्रक्रिया भी इतनी उद्वेल्लित कर देने वाली होती थी कि कमजोर ह्रदय वाले तो यह सब देख सुन कर ही अपना होश खो दें | प्राप्त जानकारियों के अनुसार शत्रु पक्ष के आक्रमण का सामना करने जाते समय जब यह संभावना बनने लगती थी कि विधर्मी शत्रु की जीत निश्चित है और उसके पश्चात् उनके सतीत्व पर उनकी पवित्रता पर आंच आ सकती है।तो जौहर का निश्चय कर उसकी तैयारियाँ की जाती थी ।सर्वप्रथम लकड़ियों की और हो सके तो चन्दन की सुगन्धित लकड़ियों की बड़ी चिता सजाई जाती थी | उसमे अत्यधिक ज्वनशील सामग्री जैसे घी , राल , तेल आदि द्रव्य डाले जाते थे ।फिर राजपुरोहितों और ब्राह्मणों द्ववारा मंत्रोच्चार् से अग्नि उत्पन्न की जाती थी | दुर्ग की समस्त स्त्रियाँ स्नान कर अपने शरीर पर चन्दन का लेप कर संभव हो तो अपने पति से विदा ले भूमि को चूम कर स्वयं को दहकती आग में समर्पित कर देती थी । कितना जोशपूर्ण साहसिक और ह्रदय कंपा देने वाला द्रश्य होगा वह जब ऐसे आयोजन में असंख्य स्त्रियाँ अपना बलिदान कर देती थी ।जौहर के ही समानांतर एक और बलिदानी प्रक्रिया है जो पुरुष योद्धाओं और बालकों द्वारा भी सम्पन्न की जाती रही है | जब यह स्पष्ट लग जाता था कि अब दुश्मनों से हार होना ही है तब स्त्रियों के जौहर के तत्काल बाद शेष रहे पुरुष योद्धा और बच्चे भी अपनी धार्मिक पूजा सम्पन्न कर माथे पर तिलक लगा कर स्वयमेव आगे निकल कर मुगलों की विशाल सेना से भीड़ जाते थे और अपने प्राण न्योंक्षावर कर देते थे यह बलिदान “ साका “ कहलाता था।हम जौहर की घटनाओं का इतिहास खंगाले तो पायेंगे कि सर्वप्रथम सन ७१२ मे जब सिंध का राजा दाहिर सेन था और उस पर मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था , तब दाहिर सेन की पराजय और हत्या के बाद सामी रानी ने अपनी साथी रानियों के साथ विषपान कर जौहर किया था | यद्यपि जौहर कर अपने प्राणों का बलिदान करने वाली प्रतापी सामी रानी ने अपने पंद्रह हजार सैनिको के साथ मुहम्मद बिन कासिम की सेना का मुकाबला किया | लेकिन जब लगने लगा कि अब शत्रु पक्ष का पलड़ा भारी है और उनकी हार सुनिश्चित है तब सामी रानी ने स्पष्ट घोषणा की कि अब हमारी सुरक्षा की स्वतन्त्रता की कोई आशा नहीं रह गई है।
अत: हमें काष्ठ तेल और रुई घी का सहारा लेकर प्राण त्याग कर दुसरे लोक में अपने पतियों से मिल जाना उचित होगा | किले में उपस्थित समस्त महिला वीरांगनाओं ने एकमत से रानी सामी की बात का समर्थन किया और इस महान पवित्र सनातन भूमि पर दुर्ग के एक बडे से भवन में सामूहिक जीवन त्याग कर भारतीय मध्ययुग के प्रथम जौहर कि मिसाल रखी और आने वाले समय में मुस्लिम आक्रान्ताओं से अपने स्त्रीत्व को बचाने के लिए अपनाया जाने वाला अंतिम अस्त्र निरुपित किया | उसके पश्चात कई बार छोटे बड़े जौहर राजस्थान की वीर भूमि पर होते रहे , जिसमें अकेले चित्तोड़ में ही तीन बार जौहर किया गया पहला 1303 ई में रानी पद्मावती का अपनी सत्रह हजार सह रानियों के साथ किया गया । जौहर सर्वाधिक चर्चित और जन जन में उल्लेखित है , तथा जो आंशिक रूप से तर्क वितर्क के दायरे में भी है | उसके बाद 1535 में राणा सांगा की विधवा रानी कर्णावती ने 8 मार्च 1535 में और तीसरा 1568 ई. में महान कहाने वाले मुगल अकबर के आक्रमण के समय जौहर भी हुआ और साका भी किया गया | युद्ध के बाद जब अकबर ने चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया तो उसे एक भी जीवीत स्त्री या पुरुष नहीं मिला | इसके अलावा जेसलमेर में 1299 और 1326 ई में , रणथंबोर के किले में 1301 ई मे अलाउद्दीन खिलजी के समय , फिर कर्नाटक के कांपिली में 1327 में मोहम्मद बिन तुगलक के समय ।
मध्य प्रदेश के रायसेन में तीन बार 1528 , 1532 , और 1535 में हुमायू के समय और चँदेरी में बाबर के समय जौहर की यह वीरोचित आत्मोसर्ग की रस्म दोहराई गई | इनके अलावा भी सन ७१२ से लेकर १९४७ तक भिन्न भिन्न समय पर लगभग ३० से अधिक बार राजपूत रानियों द्वारा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जौहर किया गया |आश्चर्यजनक और दुखद पहलु यह है की हर बार किये गए जौहर में स्थान , रियासत और समय या संख्या अलग अलग थी , किन्तु जौहर का कारण वही अपनी इज्जत आबरू बचाना था , और हाँ हर बार एसी स्थितियां उत्पन्न करने वाला कोई विदेशी आक्रान्ता कोई मुस्लिम शासक ही था | किसी विधर्मी शासक को अपनी देह सोंप कर पाप का भागी बनने से ये बेहतर समझा गया कि जीतेजी अपने प्राणों का त्याग कर दिया जाए | इसी परम्परा में १९४७ आते आते जब चारो और राजशाही का अंत हो चूका था , तब भी स्वतंत्र भारत की काश्मीर रियासत के राजौरी में जब पाकिस्तानी मुस्लिम सेना आक्रमण करती हुई पहुँच गई थी तब उनसे अपनी पराजय सुनिश्चित जान कर वहां के सामान्य वर्ग की स्त्रियों ने भी इकट्ठे होकर अपने जीवन को मौत के सुपुर्द कर दिया था | इस वक्त भी इस सामूहिक विषपान का कारण पाकिस्तानी मुस्लिम सेना थी | यानि गौतम और महावीर के शांतिप्रिय सनातन भूमि पर पवित्र स्त्रियों का
प्रथम बलिदान भी एक विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी के कारण हुआ और बरसों बार बार लगभग तीस बार ये दर्दनाक अग्नि समर्पण मुस्लिम आक्रान्ताओं के कारण ही होकर अंतिम 1947 मे भी पाकिस्तानी सेना /कबाईली लुटेरों के कारण हुआ |ये जौहर तो मुख्यत: सत्तारूढ़ राजपूत शासकों की क्षत्राणी स्त्रीयों के थे | लेकिन इनसे भी बढ़ कर १९४७ के भारत पाक विभाजन के समय सिन्ध , पंजाब और अन्य सीमावर्ती प्रदेशो की सेकड़ों बल्कि हजारो सिख एवं अन्य जाती की स्त्रियां अपने ही घरवालो द्वारा तलवार से ,क़टार से मार डाली गई या अफीम खाकर उन्होंने म्रत्यु का वरण किया | और कई कई जवान बूढी महिलायें तो अपने गाँव के कुओं में कूद कूद कर मर मिटी | सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम आताताईयों के हाथो में पड़ने से बचने के लिए ।
आज का बुद्धिजीवी वर्ग इन बातो के औचित्य पर लम्बे समय तक तर्क वितर्क करता रहेगा ,इसे सही गलत ठहरता रहेगा | लेकिन उन वीरांगनाओं द्वारा अपनी इज्जत आबरू के लिए इतना हिम्मत भरा निर्णय लेना निर्विवाद रूप से अनंत सम्मान और श्रद्धा का हक़दार तो है ही लेकिन इस दुखद निर्णय के जिम्मेदार हम किसे ठहराएंगे भारतीय राजपूत राजाओं के आत्म सम्मान की परंपरा या राजपूत क्षत्राणियों की पवित्र सात्विक मान्यता या विधर्मी आक्रमणकारियों की क्रूर अमानवीय अपवित्र मानसिकता ?

महेश शर्मा
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