कन्याकुमारी के रामकृष्ण आश्रम से 4 बजे सुबह ही निकल सूर्योदय -दर्शन कर,वही से हम विवेकानंद रॉक के लिये स्टीमर से चल पड़े।सागर का नीला विस्तृत आकाश,उठती -गिरती लहरें।अचानक सामने की सीट पर डॉ दास,।,,बार- बार मेरी नजरें वही पहुँच टटोलने लगती,, ,विल्कुल वैसा ही रूप-रंग,वैसी ही कद -काठी,।बस चेहरे पर तैर रही उदासी के बीच उम्र का विस्तार।,फिर भी डायरेक्टर के पद का तेज । डॉ दास यहाँ कैसे ,,,वो तो फैजाबाद के कुमारगंज ,कृषि-संस्थान के डायरेक्टर पद से रिटायर हुए थे। मैं भी तो थी, उनकी विदाई -समारोह में।बाद में भी मुलाकात होती रही थी । मृदुभाषी, मिलनसार,विनम्र व्यक्तित्व ।दोनो बेटियां भोपाल में ही थी ।बेटा-बहू साथ में कानपुर में थे।लग तो डॉ दास ही रहें हैं।इन्ही उधेड़बुन में हम विवेकानंद रॉक पहुच गये,और सब उतर कर इधर-उधर बिखर गुम हो गये। लौटते- लौटते 3 बज चुके थे ।रूम में थोड़ी देर आराम कर हम फिर निकल पड़े आश्रम घूमने । सामने से फिर वही शख्सियत । बिल्कुल करीब पहुंच मैंने कहा,डॉ दास ? ,ओ ओ मृणालिनी,,,, तुम ? यहाँ कैसे सर ? पहले आओ, आओ मेरे साथ, अगले ही पल हम उनके कमरे में थे। तख्त पर बिस्तर लगा था,कुसी ,मेज ,कुछ किताबें।उन्होंने सहायक से चाय मंगाई । मेरी आँखों मे तैर रहे प्रश्न,जस के तस थे।
उन्होंने स्वयं ही बताना शुरू किया ,,,रिटायरमेन्ट के बाद कुछ महीने बाद ही मैडम को कैंसर पता चला ,लास्ट स्टेज थी ।मैं पूरे समय अस्पताल और घर के बीच घूमता,उनकी सेवा में लगा रहता ।बहू ने जीना मुहाल कर दिया था,, रोज लड़ती उलाहने देती।एक दिन उन दोनों ने सामान लादा और कहीं अलग रहने चले गए। कभी पलट कर माँ को देखने तक नही आये। मैडम आखिरी समय तक बहुत हिम्मत से हालात से जूझती रही ,मेरा हौसला बढ़ाती रही। एक रोज मुझसे वचन लिया कि मैं उनके शरीर को बेटे -बहु को छूने नही दूँगा। उसके दो रोज बाद ही वह चल बसी । मैं टूटा हुआ ,बेजार ,बेटे को खबर दू या,न दूँ जाने दो,क्रुद्ध हो कह गई है। थी तो मां ही। मैंने बेटे को खबर की।। दोनो आये। सारे कर्मकांड के बाद एक दिन बेटे ने कहा, पापा, आप अकेले कैसे रहियेगा ? मैं क्या कहता। अगले ही दिन वो और बहू सामान सहित आ गया।मैं भी तसल्ली में था, चलो जब भी जागे तभी सबेरा। कुछ दिनों बाद ही एक रोज बेटा आकर खड़ा हो गया. बोला पापा ! मुझे बिजनेस डालना है, पैसों की जरूरत है। कितने चाहिए? जितने हो सके.जानते ही है दस-बारह लाख से नीचे कोई छोटा सा बिजनेस भी शुरू नही किया जा सकता।
मुझे रात भर सोचने विचारने में बीता बच्चा तो अपना ही है, मरे-जिये इसी का तो है । यही विचार लिए मैने अगली सुबह चेक उसे थमा दिया। कुछ दिन सब ठीक रहा।
खाना खाते समय एकदिन बेटे ने कहा-‘ पापा! घर के पेपर कहाँ हैं? निकाल दीजिए । ‘ जब तक जीवित हूँ घर के पेपर नही दूंगा ,उसके बाद सब तुम्हारा,मैंने भी साफ- साफ कह दिया । मेरा खाना बंद कर दिया उन्होंने। मैं अपना भोजन खुद बनाने लगा ।
दिन भर बहू मुझ पर चीखती ,गालियां देती,बेटा कुछ सुनने को तैयार नही था।उसकी भी सहमति थी । एक रात बहू जोर- जोर से चिल्लाने लगी -‘अरे ये बुड्ढा सठिया गया है, मेरे कमरे में घुसता है।’ मैं सन्न ,इतना बड़ा लांक्षन…।एकबार लगा मैं चक्कर खा कर गिर जाऊंगा । किसे -किसे सफाई दूँगा, कमरे में कुछ देर को बिलख पड़ा. उठा , बैग में कपड़े डाले, सारे पेपर्स डाले और निकल पड़ा। कहाँ जाऊ क्या करूँ,,,, ? बेटियों के घर…नहीं। आँसू बह रहे थे।स्टेशन पहुँचा सामने ट्रेन खड़ी थी बैठ गया उसमें,।अगली दूसरी शाम मैं कन्याकुमारी में था। स्टेशन के सामने ही आश्रम की बस खड़ी थीं,उसमें बैठ गया। बस तभी से यही आश्रम में हूँ।यही मेरा घर,यही मेरा परिवार -बोलते डॉ दास हाँफने लगे थे।आश्रम ने एग्रीकल्चर विभाग की जिम्मेदारी सौंप दी है।मैंने भी उसी में खुद को खपा दिया है। कैसा घर ,कैसा परिवार, हमने अपने स्वरूप को , अपना परिचय अब जाना है ।जीवन सचमुच कितना बड़ा भरम है. हम कितने सच्चे होने का दावा करते हैं, मगर हजारों हजार झूठ से बिंधे रहते हैं।कुछ चाह कर कुछ अनचाहे, अनजाने ।’ मृणालिनी!’मैंने मैडम का वचन तोड़ा ,बेटे के मोह में…उसी का दंड भोग रहा हूँ,’गहरी सांस ले रहे थे डॉ दास।एक चुप्पी पसर गई थी । सहायक ने चाय लेकर आ गया था ।
डॉ रेनू सिंह
गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश।
85069 14478