बंटवारे का दंश झेलते प्रभु दयाल का परिवार भारत का हिस्सा बन गया ।शरणार्थी शिविर मे परिवार के साथ रहते हुए पेट की आग को बुझाने के लिए काम की तलाश करना शुरू किया।कभी कुली , दुकान का नौकर, जैसे काम करते हुए परिवार के लिए एक समय की रोटी मिल पाती थी ।पत्नी दुलारी ने कंधे से कंधा मिलाकर चलने का फैसला किया और थोड़ा थोड़ा समोसे पकौड़ी घर से बनाती जिसे वह बाजार मे बेच आते । धीरे-धीरे काम चल निकला । प्रभु दयाल ने अपनी दुकान कर ली और शहर के बड़े नामी समोसे पकौड़ी के नाम से प्रसिद्ध हो गये । लेकिन समय एक सा नही रहता।पत्नी के ना रहने पर प्रभु दयाल जी शिथिल हो गये तो बेटों ने बढ़कर कंधों पर उठा लिया। पिता के काम को नाम प्रतिष्ठा के साथ लगातार आगे बढ़ाते रहे। दुर्भाग्य ने प्रभु दयाल के घर का रास्ता देख लिया अपने सामने बड़े बेटे, पोते की लगातार मौतों ने अधमरा कर दिया। वैधव्य का दुःख झेलती बहुएं दुःख बढ़ाती रही उनके दुःख मे प्रभु दयाल भी शान्त हो गये ।इतनी परेशानी के बाद भी दुकान का काम यथावत चलता रहा। प्रभु दयाल जी के ना एक बेटे और विधवा बहू के बीच बंटवारा हो गया।
देवर ने दुकान खुद लेकर मकान सब भाभी शालिनी को दे दिया। देवर रमेश ने तो काम को और बढ़ाया वहीं भाभी शालिनी ने सब बेचकर किराये के मकान मे अकेलेपन को चुना। जो धीरे-धीरे उनको काटने लगा। दुकान मे हिस्सेदारी छोड़ देने के बाद भी सभी को यही कहती मैं उसकी मालकिन हूं। लोगों से अकेलेपन की हमदर्दी लेने का प्रयास करती रहती ।शहर के सबसे पुराने और बड़े व्यवसायी है सोचकर अनेकों संस्थाओं और समाज सेवा करने वाले उनसे अपने कार्यक्रमों के लिए चंदा मांगने लगे शुरु मे मंच पर जाकर सबके साथ मिलकर फोटो खिंचवाते बहुत अच्छा लगता था । धीरे-धीरे सभी लोग सिर्फ चंदे के मतलब से उनसे मिलने लगे । लेकिन शालिनी भाभी को यह समझ नहीं आया । अपनी झूठी शान और दिखावे मे फंसकर वह सबको चंदा देती रही । लोग मना करते तो कहती वह सभी मुझे बहुत मानता है प्यार करते है । लेकिन किसी को घर नहीं बुलाती कैसे कहें किराये पर लेकिन जब वह बीमार पड़ी तो कोई भी उनके पास नहीं आया और अकेलेपन के दुःख के साथ साथ शालिनी भाभी जीवन जी रही लेकिन इतना होने के बाद भी वह शहर के सबसे बड़े व्यवसायी परिवार की है। दिखावे मे जीते ऐसे जीवन का क्या औचित्य जो सिर्फ लालची लोगो से घिरा हो । कब तक वास्तविकता से भागा जा सकता है।
-ज्योति किरण रतन
लखनऊ
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