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आशा की कहानी रोटी

कहानी संख्‍या -13,गोपालराम गहमरी कहानी प्रतियोगिता -2024,

“मत मारो बापू.. . मत मारो, अब कभी नहीं जाऊंगा वहां… माफ कर दो बापू.. माफ कर दो “ मासूम 10 साल का सतिया लगातार हरि प्रसाद से बख्श देने की गुहार लगाता रहा। रो रो कर उसकी आँखें लाल हो गई थीं। डंडे की मार से शरीर बुरी तरह से दुख रहा था, कहीं कहीं मोटे मोटे लाल निशान भी पड़ गये थे पर हरि प्रसाद को फिर भी उस पर दया न आई। मां बीच बचाव करने आई तो दो-चार डंडे उसे भी पड़ गए। “साले पासी चमार के टोले में जायेगा, तेरा तो गला ही टीप देता हूं.. न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी” यह कहते हुए लपक कर हरि प्रसाद सतिया का गला दबाने लगा । मां ने देखा तो दहाड़ मार कर रोने लगीं। पास पड़ोस के लोग चीख पुकार सुनकर वहां पहुंचे और सतिया को हरि प्रसाद के चंगुल से जैसे तैसे मुक्त कराया तो भुनभुनाते हुए वो बाहर निकल गया । अर्ध बेहोशी की हालत में डूबे सतिया को मां कोठारी में ले गई और उसे गले से लगा के खूब रोई। बेटे की ऐसी हालत देखकर कलेजा मुंह को आ रहा था लेकिन वो करती भी क्या बेचारी। कुछ देसी उपचार करने में जुट गई तब जाकर कहीं सतिया सामान्य हो पाया। तन की थरथरार्हट लिए फटी फटी आँखों से वो छत की तरफ देखता ही रहा। मां आहत स्वर में विलापते हुए बोली, “क्यों गया था रे अछूतों के टो

ले में, देख तो तेरे बापू ने कैसी गत बना दी तेरी… आज तो तु मर ही जाता, क्यों इतना कष्ट दे रहा? बोल शर्तिया, बोल?” सतिया ने करूण भाव से मां को देखा, खरखराती आवाज़ में बस इतना ही कह पाया – रोटी।

मां ने कस कर अपनी छाती से सतिया को लगा लिया और सिसक उठी। बढ़ती उम्र के साथ पेट का दावानल भी भड़कने लगता है, इस बात से अनभिज्ञ नहीं थी वो। आठ भाई बहनों में सतिया सबसे बड़ा था। बापू फेरी का काम करता था । आमदनी चवन्नी बराबर थी और उस पर दनादन हर वर्ष बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी ने घर की स्थिति को और भी अधिक खराब कर दिया। दिन भर में बस एक समय का ही भोजन नसीब होता, वो भी इतना कि भूख की अमरता घटती ही नहीं। जब नन्हें सतिया से भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो वो गांव के उस तरफ चला गया जहां चमड़े का काम करने वाले अपना बसेरा किए हुए थे। किसी ने प्रेमवश सतिया को रोटी दे दी खाने को। रोटी देखते ही भूखे सतिया के मन से जात-पात का डर भाग गया। उसने रोटी को दोनों हाथ से कस कर पकड़ रखा था। उसे डर था कि कहीं रोटी छिन्न कर कोई उसे वहां से भगा न दे। रोटी तो खा आया था पर साथ में बापू की मार ने उसकी सारी संतुष्टी पर पानी फेर दिया था।

बच्चे बढ़ रहे थे, उसके साथ साथ भूख प्यास भी, जिसकी चिंता ने लापरवाह हरि प्रसाद को बेचैन कर रखा था । उसे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे वह सभी बच्चों का पेट पाले? न पैसे थे पास में और न खेत खलिहान, अनाज आता कहां से। बैठे बैठे बड़बड़ाने लगता, “ससुरे मर भी नहीं जाते एक आध, जान छूटे।“ मां सुनती और अपनी बेबसी पर आँसू पी कर रह जाती। अनपढ़, कमज़ोर शरीर और नोचने को आठ आठ बच्चे, बेचारी कैसे और क्या करती।एक दिन सतिया घर के द्वारे बैठा मां के साथ दूसरे के खलिहानों से बटोरे गए खर पतवार में से अनाज के दाने बीन रहा था तभी गांव के कुछ लोग गठरी बांधे वहाँ से गुजरने लगे। हरि प्रसाद पास बैठा बीड़ी फूंक रहा था। राम राम करते हुए उन्होंने बताया कि वे लोग शहर जा रहे हैं काम की तलाश में। हरि प्रसाद की आँखों में एक चमक आ गई, उसने उन लोगों से अपनी घर की बदहाली बयान करते हुये कहा कि वे लोग उसके बड़े बेटे सतिया को भी शहर ले जाए। वे मान गए और इस तरह सतिया शहर आ गया।

शहर का जीवन भी ढोल की तरह होता है बस दूर से ही बढ़िया दिखाई देता है। यह बात सतिया को कुछ ही दिन में समझ में आ गई थी। छोटे से गांव से आया शर्तिया शहर की चकाचौंध देखकर सहम गया। रह रह कर उसे मां की याद सताने लगी। उसका मन शहर में बिल्कुल भी नहीं लग रहा था परन्तु जब जब बापू की मार की

याद आती मन मसोस कर रह जाता। कुछ दिन के बाद सतिया को काम दिलवा दिया गया। दिन भर शर्तिया अपने नन्हें नन्हें हाथों से नाले-गंदगी सफाई करने का काम करता और रात होते ही किसी फुटपाथ पर सिकुड़ कर सो जाता। ज़िंदगी कठिन थी, न ठौर था न ठिकाना, पर फिर भी मन बांवरा आसमान तलाश ही लेता है अपने सपनों की उड़ान के लिए। थोड़े बहुत मेहनताना भी मिलने लगा था उसे। सतिया पाई पाई जोड़ने लगा, आखिर उसे अपने सपनों में रंग जो भरना था। वहां न मां का फटा हुआ आंचल था, न प्यार से सिर पर फेरते मां का प्यारा स्पर्श। न भाई बहनों की गुत्थम गुत्थी थी, न सिर पर कोई छाँव। इन सब का अभाव तो था ही पर बापू की डांट-मार भी नहीं थी और न भूख का भूत उसके साथ था। साल दो साल में कभी गांव आता और मां-बहन भाईयों से मिल जाता। इसी तरह एक एक करके कई साल बीत गये। थोड़े पैसे जमा कर ही लिये थे उसने, उन पैसों से सतिया ने वहीं शहर में एक छोटा सा मकान खरीद लिया। फिर जब शादी हुई तो पत्नी को भी अपने साथ ले आया शहर। बड़े से शहर में उसका अपना कहने को कोई नहीं था, न घर परिवार वाले और न ही कोई दोस्त, लेकिन इन सब के बावजूद अब वो खुश था और संतुष्ट भी क्योंकि सबसे बड़ी बात जो थी वो यह कि यहां उसे भूख के लिए मार नहीं खानी पड़ती थी न द्वार द्वार भटकना पड़ता था। अमर भूख के लिए दो वक्त की रोटी तो नसीब थी।…

©आशा गुप्ता ‘आशु’ पोर्ट ब्लेयर, अंडमान द्वीप समूह,6263 696 578

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