कहानी संख्या -16,गोपालराम गहमरी कहानी प्रतियोगिता -2024,
सुधा ओर अंशु, दो अभिन्न सखियाँ। पिछले एक साल से अपने अपने दुःखों सुखों की गठरी उठाए दो मुसाफ़िरों की तरह एक छत के नीचे रह रात गुज़ार देतीं । मुंबई शहर में किराए के एक कमरे में रूम मेट की तरह रहना उनकी ज़रूरत भी थी ओर मजबूरी भी। डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करते करते कब वह एक दूसरे की ज़रूरत बन गई पता ही ना चला। परिवार की कमी पूरी करने को एक पप्पी पाल लिया था। एक कुक भी रख ली थी। कभी कुक ना आती तो मिल कर कुछ ना कुछ बना लेती,या बाहर से खाना मँगवा लेती।टेरेस पर साथ साथ चाय पीते ,लॉक डाउन की चर्चा करते ,गमलों में खिले फूलों को देखते वो इतने क़रीब आ गई की वो खोल जो अपने ऊपर जबरन ओढ़े हुई थी, सरकने लगे थे। धीर धीरे उन्हें अहसास हो रहा था की दोनो की ही पुरुषों में कोई दिलचस्पी नहीं हैं। वे खुद ही एक दूसरे की ज़रूरत बनती जा रही थी।
एक दूसरे से दूर होने पर रिश्ते की गरमाहट बेचैन कर डालती। सूनी आँखों को इंतज़ार से भर देती। वो राह तकती रहती उस पल का जब वो लौट कर आएगी , ओर बाहों में भर लेगी। दोनो अपनी अपनी ज़िंदगी जीने की आदि ही ना थी। किसकी सुबह कैसे गुजरी ,क्या नाश्ता किया,दोनो आपस में कितना जुड़े हुए, कितने कनेक्टेड थे ,वार्तालाप चलता रहता। एक छत, एक रिश्ता साँझा करते करते दिन धीमें धीमें सरकती शाम की दहलीज़ पर आ खड़ा होता। रिश्तों का दूसरा नाम सच्चाई ओर ईमानदारी है। समझ आने लगा था।अब वो अलग अलग दुनिया के बाशिंदे नहीं, एक ही दुनिया के बाशिंदे थीं।
मैं या तुम बन कर जीना नहीं हम बन कर जीना चाहती थीं। कुछ तो अलग बात थी दोनो की दोस्ती में। शायद दोस्ती से बढ़कर। एक दूसरे के प्रति खिंचाव का अहसास हो रहा था। जिसके आने की आहट से ही आँगन में बहार आ जाए, चाहत ग़रूर में बदल जाए, उसे सिर्फ़ दोस्ती का नाम कैसे दिया जाए?
फ़ैंटसी इंसान की कल्पनाओं का अहम हिस्सा है।जो इंसान की ज़िंदगी को बहुत प्रभावित करता है। कल्पना की आज़ादी का अहसास ख़ुशी देता है।फ़ैंटसी में हर प्रक्रिया हो सकती है,जो असल ज़िंदगी में नामुमकिन भले ना हो मुश्किल ज़रूर होती है। जिसकी निगाहों की गहरी झील में प्यार के हसीन कँवल खिल उठें, कभी रेशमी शाम में उसके मख़मली स्पर्श का अहसास हो, जिसके दीदार से दिल का दर्द बँट जाए, सर्द हवा का झोखा धड़कने बढ़ा दे, बदला मौसम रूमानी कर दे, जो एक दूसरे के जिस्म में रूह की तरह उतरती जाएँ उसे सिर्फ़ दोस्ती का नाम तो नहीं दिया जा सकता। पर समाज व परिवार से स्वीकृति मिले तो कैसे? भारत जैसे देश में समलैंगिक विवाह को स्वीकृति मिलना आसान ना था। पर दिल तो पागल है, उसका क्या? फिर एक दिन दोनो ने ज़िंदगी बदल देने वाले सफ़र पर निकलना तय किया। एक साल साथ रहने के बाद उन्हें अहसास हुआ “रिंग सेरमनी“ का सही वक्त आ गया है। परिवार ने इजाज़त ना दी तो दोस्त ,सहकर्मी, इस ख़ास दिन में उनके साथ शामिल हुए। माता पिता की ग़ैरहाजरी की भरपाई उनकी सखियों ने पूरी कर दी। दोनो ने एक दूसरे को रिंग पहना जीवन भर साथ निभाने का वादा किया। कुछ दिन बाद समारोह की तस्वीरें वायरल होने लगी।अब सवाल पारिवारिक सामाजिक ओर क़ानूनी मान्यता का था। सामाजिक संरक्षण के बिना वे पूरी तरह असुरक्षित थीं।उन्हें एक परिवार नहीं माना जा रहा था। जो दिक़्क़तें सामने आ रही थीं, लग रहा था वो सामाजिक ताना बाना बिगाड़ देंगी। जब तक समलैंगिक शादी को
क़ानूनी मान्यता ना मिल जाए, भारत जैसे देश में ये नामुमकिन तो नहीं मुश्किल ज़रूर था।
लैंगिक रुझान एक ऐसा चरित्रिक पहलू है जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं। वो जानती थी की उनका प्यार कम मूल्यवान नहीं है। सुधा ओर अंशु कहती हैं , क़ानून में पति पत्नी, पुरुष स्त्री जैसे जैंडर शब्दों को हटा, व्यक्ति या साथी जैसे शब्द रखे जाने चाहिए। ओर समलेंगिक शादी को भी समान अधिकार दिए जाने चाहिए। विषम लिंगी जोड़ों को ये अधिकार सहज ही दिया जाता है।अगर एक लिंग के दो लोग अपनी ज़िंदगी साझा करना चाहते हैं तो मंगल सूत्र की जगह चैन पहना कर विवाह करना चाहते हैं ताकी जेंडर न्यूटरल हो तो परिवार या समाज को ऐतराज क्यों..?
अब भी लोगों की एक ही धारणा थी की दोनो कुँवारी हैं। सुधा एक मनोचिकित्सक होते हुए मानसिक बीमारी की शिकार मानी जाती।हालाँकि इसी डर से सुधा के माता पिता ने कुछ हद तक इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया था।क्योंकि इस रिश्ते से सुधा के कैरियर पर प्रभाव पड़ रहा था। पर वो इस बात से भी परेशान थे की दोनो समाज जा सामना कैसे करेंगी । ओर अंशु गायनी की डॉक्टर होते हुए बच्चों के पैदा करने से दूर एक अलग ही सोच रखती। वह मानती की शादी में बच्चे पैदा करना ज़रूरी नहीं। बच्चे गोद लिए जा सकते हैं। दोनो के माता पता मानते थे की वे शादी तभी करें जब समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता मिल जाए।क़ानूनी मान्यता मिलने पर ही वे इसे एक शादी मानने पर राजी होंगे। किसी तरह दोनो ने अपने माता पिता को समझा लिया ओर उनकी मंज़ूरी से शादी कर ली। ताकी अपनी रोज़मरा की ज़िंदगी में मान्यता ओर गरिमा हासिल कर सकें। क़ानून विवाहित विषम लिंगी जोड़ों को कई विशेषाधिकार ओर दायित्व सोंपता है,ओर उनकी रक्षा भी करता है।
समाज विवाह में दो व्यक्तियों के सहवास को भी प्रस्तावित करता है, स्वीकृति देता है। प्रजनन भी विवाह का महत्वपूर्ण घटक है। सुधा घर की मालकिन है , पर अंशु उसे निवास के प्रमाणपत्र के लिए उस पते का इस्तेमाल नहीं कर सकती। जबकि विषम लिंगी विवाहित जोड़ों को ये अधिकार सहज ही दिया जाता है। जिसमें पति पत्नी एक दूसरे के पते का इस्तेमाल प्रमाण पत्र के तौर पर कर सकते हैं।
एक बार सुधा बीमार पड़ी तो वह अस्पताल में उन दस्तावेज़ों पर दस्तख़त नहीं कर पाई, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे के लिए ज़िम्मेदारी लेता है। भले ही वह लाइफ़ पार्ट्नर हैं, पर दोनो को एक परिवार का सदस्य नहीं कहा जा सकता था। उनका दर्जा रूम मेट या सखियों का ही माना गया। वह जीवन साथी के रूप में दस्तख़त नहीं कर पाई। डॉक्टर पूछते रहे की वह उनकी कौन है? मुंबई जैसी जगह में ऐसे विवाहित जोड़ों के लिए किराए के लिए घर लेना भी आसान नहीं है। अगर एक साथी की मौत हो जाए तो दूसरा पार्ट्नर क़ानूनी तौर पर संरक्षक नहीं है। समान लिंग वाले जोड़ों को बच्चा गोद देना भी बच्चे को ख़तरे में डालने जैसा है। वह किसको माँ माने ओर किसको पिता? दम्पति की तरह साथ रह रहे समलिंगी लोगों का दर्जा भारतीय परिवार की इकाई जैसा नहीं है। अंशु मानती है बिस्तर पर खिसक कर जगह बना लेना, काल्पनिक सेक्स को बेवफ़ाई मानना, अपराध बोध मानना, किसी से चर्चा ना कर पाना, उनके जीवन का गहरा राज है। कल्पना एक ऐसी जगह है जहां किसी ओर का दख़ल नहीं होता।
किसी की कामुकता की इच्छाओं का मज़ाक़ नहीं उड़ा सकता। निगाहों की खामोशी बोलती है।
समलिंगी सम्बन्धों को विवाह की बजाय “फैंटसी”या साझेदारी कहा जायँ तो ग़लत ना होगा। इन जोड़ों को भी कुछ ख़ास अधिकार ओर दायित्व की अनुमति मिलनी चाहिए। इस शादी से सुधा अंशु ही नहीं पूरा शहर तनाव में है। परिवार की नाक का सवाल है। दुनिया के ३४ देशों ने समान लिंग विवाह को मान्यता दे दी है। भारत जैसे देश में भी कोई समलिंगी जीवन साँझा करना चाहे तो क़सूर किसका? इस “फैंटसी”“ के संतुलन समाधान निकालने की ज़िम्मेदारी किसकी?
कमलेश शर्मा, जयपुर, राजस्थान 9829837212.