कहानी संख्या 26 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024
आम भारतीय घरों की तरह सुधा के घर पर भी सुबह – सबेरे भाग- दौड़ मची थी| पतिदेव को ऑफिस जाना है| बच्चों को स्कूल भेजना है| ससूर जी मार्निंग वॉक से आने वाले है|सासु जी के लिए पूजा घर साफ कर प्रसाद बनाना है| सुधा चारों तरफ दौड़ रही थी।जिंदगी भर बस दौड़ती रही है| कभी घर के लिए दूध लाना है, छोटे भाई को स्कूल छोड़ना है|मेहमान आये,तो उनके लिए खाने- पीने का सामान लेने दौड़ना है| गजब है इतना वो मैराथन में दौड़ती, तो गोल्ड मेडल जीत लेती| सोचते ही उसके चेहरे पर फीकी हंसी फैल गई,, और अचानक गायब भी हो गई, जैसे कोहरा छाता है, और अचानक छंट भी हो जाता है।कितने सपने, कितनी इच्छायें उसके अंतर्मन की गहराइयों में खो गए थे| जो शायद अब ढूंढने से भी न मिले।आज भी उसके जहन में हल्की याद बाकी है, जब उसका कॉलेज में एडमिशन हुआ था, तब पिताजी ने कहा था ‘ मेरी बिटिया कौन से कॉलेज पढ़ेगी | बताओ तुमको छूट है’ उसने खुश होते हुए अपने मनपसंद कॉलेज के बारे में बताया था| तब पिताजी ने कहा था कि ‘ वो तो बहुत मंहगा कॉलेज है ‘ सब जगह एक सी पढ़ाई होती है, छोड़ो, नजदीक ही एडमिशन ले लो| वो चुप सी हो गई थी| वह कॉलेज की पढ़ाई अंतिम वर्ष में थी,तब उसके लिए संजय का रिश्ता आ गया था| संजय सरकारी जॉब मे थे| छोटा परिवार था| माँ – बाबूजी ने उसे पूछे बिना तुरंत रिश्ते के लिए हामी भर दी, माँ ने कहा था, ऐसा रिश्ता नहीं मिलेगा बेटा, मान जाओ| उसने कितना कहा कि वह पढ़ाई पूरी करना चाहती है, लेकिन पिताजी ने साफ कह दिया था, देखो बिटिया ,मै एक मामूली आदमी हूँ ,सरकारी नौकरी वाला लड़का आसानी से नहीं मिलता।
बाकी तुम्हें छूट है तुम्हारी जैसी मर्जी।उसने फिर चुप्पी साध ली थी।शादी हो गई| एक नये जीवन की शुरुआत हो गई| “क्या पहनना है? , कैसे उठना है, ? कौन से रिश्तेदारी में क्या – कैसे जाना है?, यहाँ तक, बच्चों को किस स्कूल में पढ़या जाए, ये भी उससे नहीं पूछा गया| हालांकि उसे छूट हर बार दी गई| एक मौन चैतावनी के साथ| “तुमको छूट है बाकी जैसी तुम्हारी मर्जी” एक वाक्य उसके जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न बन गया था| ये किस तरह की छूट थी| वो कभी समझ नहीं पायी| ये छूट उसके लिए उस मकड़जाल के समान थी, जिसमें जितना छूटो, उतना ही उलझते जाओ|
एक दोपहर घर की जरूरतों का समान लेने वह बाजार गई थी| अचानक उसे कंधे पर परिचित हाथ महसूस हुआ| ‘हैलो सुधा! कैसी हो डियर| ‘सामने देखा तृप्ति खड़ी थी| वह उसकी बचपन की दोस्त थी, और पडोस में रहती थी| वो सुखद अहसास से भर गई| उसने उसे गले लगाकर कहा ‘ सुधा यार! कहाँ थी तुम| ऐसे दोस्तों से कोई अलग होता है| चलो सामने कैफे में कॉफी पीते हैं| ‘ उसने हंसते हुए कहा’ ठीक है चलो’ अचानक उसे ध्यान आया कि उसे घर जाकर खाना बनाना है|उसने कहा ‘ तुम मुझे माफ करना ,बच्चे स्कूल से आते होगें, तुम घर आओ|वह तुरंत तैयार हो गई थी, उसने हंसते हुए कहा,मैं इस रविवार आ रही हूँ तेरे हाथ का खाना खाऊंगी | और जीजाजी से भी मिलूगी| ‘सुधा घर आ गई, लेकिन तृप्ति एक पल के लिए भी उसकी सोच से बाहर नहीं निकल रही थी| उसका चमकता चेहरा, बिंदास हंसी, जीवन से भरी हुई लग रही थी| उसने खुद को आइने में देखा,, उसकी आत्मा तक कांप गई, वो कितनी बूढ़ी लग रही थी| आंखों के नीचे झांईया पड़ गई थी| मुरझाया चेहरा,,वो बुझ सी गई थी।
अगले संडे तृप्ति घर पंहुच गई| उसकी खिलखिलाहट से घर गुंज रहा था| उसने संजय को देखा जो हंस – हँस कर उससे से बात कर रहे थे| सासु जी भी खूब बातें कर रही थी| कहाँ रहती है? क्या करती है सब कुछ,, पूछ रही थी| वो थोड़ी देर भी अपनी दोस्त के साथ नहीं बैठ पायी थी| पतिदेव और सासु जी बार – बार कहते,, तुम तो तरह – तरह के व्यंजन बनाने में एक्सपर्ट हो,, तुम अपनी दोस्त को खिलाओ,, और वो बस किचन में ही थी।तृप्ति ने उससे से पूछा ‘ क्या तुम कुछ नहीं करती हो ‘ उसके कहने से पहले ही संजय ने कहा ‘ हमारी तरफ से पूरी छूट है लेकिन इसे तो घर के काम ही पंसद है ”,वह चिल्लाकर कहना चाहती थी | कौन सी छूट,और कब दी गई मुझे छूट ‘ लेकिन उसकी आवाज गले में ही अटक गई| ‘ जाते समय तृप्ति ने कहा- तुम एक अच्छी बेटी रही और आज एक अच्छी पत्नी, माँ और बहू हो| लेकिन याद रखों,,तुम्हें अपने लिए भी अच्छा होना चाहिए| तुम अपने लिए बिल्कुल अच्छी नहीं हो|सहेली के शब्द उसके कानों में पिघले शीशे की तरह उतर गए।तभी सासु जी की आवाज सुनायी दी| ‘इतनी भी क्या छूट कि पति – बच्चों के बिना चली आयी, औरत को पहले अपना घर संभालना चाहिए’ सुधा ने गम्भीर आवाज में कहा’ मांजी तृप्ति को अपने घर में वास्तविक छूट मिलती है |
जो हर औरत नहीं ले पाती |’ सासु जी और पतिदेव ने सुधा को आश्चर्य से मुड़कर देखा,आज वो पहली बार बोली थी|आजतक उसने केवल मौन स्वीकृति दी थी| उन्हें यकीन नहीं हो रहा था।वास्तव में उसे पता ही नहीं चला वो कब घर -परिवार की जिम्मेदारी संभालते हुए स्वंय को खो गई|क्या सारी जिम्मेदारी उसी की है| घर सभी के सहयोग से चलता है | लेकिन हमेशा उसी के ऊपर ज्यादा जिम्मेदारी क्यों रही|कहीं उससे तो कोई गलती नहीं हो रही| हर बार मौन रह जाना, हर फैसले को मान लेना, अपनी बात को मजबूती से न रख पाना, ये सब उसकीकमजोरी है|समाज का सत्य है कमजोर को हमेशा दबाया जाता है| हम जैसा चाहे वैसा जीवन स्वयं के लिए चुनते हैं|जहाँ स्त्रियों ने उच्च पदों पर रह कर समाज को नयी दिशा दी है| वह हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है|
महिलाएं आकाश की उंचाईयों को छू रही है और वह अभी तक घर के अंदर भी अपनी बात नहीं रख पा रही है| अपना सम्मान और स्वतंत्रता हम स्वंय प्राप्त कर सकते हैं|उसकी मित्र उसे कितना बड़ा सच दिखा गई थी,आज सही मायने में वह ‘छूट’ का अर्थ समझी थी|
रश्मि मृदुलिका,देहरादून उत्तराखण्ड Mob- 7895296321
वाह.. उम्दा सामाजिक कथानक…
मेरे खयाल से आज भी कई घरों की यही कहानी है…समय की मांग है, समाज को सोच बदलनी चाहिए..
बेहतरीन ढंग से लिखी गयी उत्कृष्ट कहानी..आपको हार्दिक बधाई व साधुवाद।
मेरी कहानी को स्थान देने के लिए साहित्य सरोज मंच/ पेज का हृदय की गहराइयों से आभार व्यक्त करती हूँ साहित्य सरोज मंच मेरे जैसी नवीन लेखनी को एक प्रोत्साहन दे रहा है| निश्चित रूप से यह मंच साहित्य जगत में मेरे लिए विशेष स्थान रखता है,
यह कहानी लिखने की प्रेरणा मुझे अपने आस पास पढ़ी – लिखी उन स्त्रियों को देखकर मिली, जो सम्मानित परिवार में अच्छे पद पर नौकरी कर रहे लड़के से विवाहित होती है|उनको कहने के लिए स्वतंत्रता होती है लेकिन उन्हें अपने अनुसार जीने नहीं दिया जाता, जबकि वह अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए समाज को भी योगदान दे सकती है| जरूरत है कि वो अपनी काबिलियत को पहचानें|