कहानी संख्या 28 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024
सुनो ना मैं सोच रहा था अब तुम किसी विद्यालय में शिक्षिका का पद ग्रहण कर लो। बीएड करने के बाद से तुम्हारी डिग्री धूल खा रही है और तुम भी धूल झाड़ते झाड़ते ऊब गई होगी।” सुबह की सैर के समय बाग़ के हरे-भरे पेड़ पौधों को निहारते हुए अपनी आँखों को तृप्त करने के क्रम में बड़े प्यार से कृपा के पति श्याम ने कृपा से कहा।“और घर बच्चे कौन देखेगा”… कृपा का त्वरित सवाल आया।“दोनों अब इतने छोटे भी नहीं हैं। चौदह-पंद्रह साल के बच्चे खुद को संभाल सकते हैं। वैसे भी जब तक दोनों विद्यालय से आएँगे, तुम भी आ ही जाओगी।” श्याम ने कहा।“नहीं, मुझे सिर्फ घर और बच्चों पर ही ध्यान देना है। वैसे भी मेरे दस बीस हजार से क्या होना है?” श्याम के प्रस्ताव को सिरे से नकारती हुई कृपा ने कहा। उसकी आवाज की तेजी से आगे-पीछे सैर करते हुए और लोग भी उन दोनों को मुड़ कर देखने लगे।लोगों की सवालिया निगाह और कृपा के चेहरे की झुंझलाहट को महसूस करते हुए श्याम ने अपने प्रस्ताव पर उस समय विराम लगा दिया।
“पैसे की बात किसने की है कृपा। घर से निकलोगी तो तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा। ज़ब से तुमने बीएड किया है, तब से कह रहा हूँ, अपना ज्ञान जाया क्यूँ करना। बहुत ज्यादा नहीं तो घर पर ही ट्यूशन ही कर लो। उन बच्चों को ही पढ़ाओ, जो पढ़ना चाहते हैं, लेकिन जिन्हें सही दिशा बताने वाला कोई नहीं है और पैसे की बात है तो उनसे कोई चार्ज मत लेना।” नाश्ता करते हुए श्याम ने एक और प्रस्ताव कृपा के सामने रखते हुए कहा।“नहीं नहीं…अभी अपना घर और बच्चे बस”…कृपा श्याम के प्लेट में पराठा रखती हुई उसकी ओर बिना देखे ही कहती है।ओह हो मम्मा, ये क्या बना दिया आपने..घास फूस”..कहकर पंद्रह साल की दिव्या ने मुँह बना लिया।“क्या हुआ… अच्छा ठीक है…तुम्हारी पसंद की आलू सब्जी और पूरी झटपट बना देती हूँ।” अपने कमरे में आराम करती कृपा जल्दी से बाहर आई।
“अरे नहीं मम्मी, कल बना लेना। अभी हम दोनों यही खा लेंगे।” कृपा का तेरह साल का बेटा शिवम समझदारी से कहता है।
“अरे ऐसे कैसे! अभी बना कर देती हूँ ना।” बच्चों के ना ना करने पर भी कृपा काम में लग गई।
“दिव्या ये लो बेटा, तुम्हारी पसंद का खाना।” झटपट बेटी के पसंद का खाना बना कर उसके कमरे में आती हुई कृपा ने कहा।
“कृपा तैयार हो गई क्या? पार्टी शुरू हो गई होगी”..श्याम की आवाज आती है।
“हाँ हाँ …बस” … साड़ी का पल्लू ठीक करती कृपा कमरे से बाहर आई।
“ये साड़ी.. वो हरी वाली साड़ी भी खूब जँचती है तुम पर। लेकिन इसमें भी गजब सुंदर लग रही हो”…श्याम ने तर्जनी और अंगूठे की सहायता से वाह का चिन्ह बनाते हुए कहा।
“अभी आई”…कहकर कृपा फिर कमरे में घुस गई।
“अरे ये क्या कृपा, कितनी सुंदर तो लग रही थी। साड़ी क्यूँ बदल लिया तुमने”…श्याम ने पूछा।
“तुमने कहा ना हरी वाली साड़ी के लिए इसीलिए”…कृपा ने मुस्कुरा कर कहा।
“ये तो ठीक है मम्मी, पर अपनी पसंद भी देखा करो।” दिव्या जो तैयार होकर अपने कमरे से बाहर आ रही थी, कृपा की बात सुनकर कहती है।
“अब तो तुमलोग की पसंद ही मेरी पसंद है।” कहती कृपा दरवाजा लॉक करने लगी।
“बच्चों की छुट्टियाँ हो गई है, कहीं चलने का प्रोग्राम बनाया जाए क्या!” एक रविवार को हँसी-ठिठोली के बीच श्याम ने सभी को संबोधित करते हुए पूछा।
“इस बार चार धाम की यात्रा”…
“इस बार साउथ चलें क्या पापा”… जब तक कृपा की बात पूरी होती बेटा शिवम बोल पड़ा।
“हाँ हाँ साउथ ही चलते हैं।” कृपा बेटे की इच्छा को स्वीकृति देती हुई कहती है।
“क्या है मम्मी…आप इतना भेदभाव क्यूँ करती हैं?” दिव्या अचानक झल्ला कर कहती है।
“भेदभाव किसमें और कब, कहाँ”… कृपा के चेहरे पर हैरत का भाव साकार हो उठा और वह उसी भाव से तीनों को देखने लगी
“आप हमारे बीच स्वयं के बीच ये जो भेदभाव करती हैं…सही है क्या?” दिव्या बिफरती हुई कहती है।
“क्या कह रही हो तुम! मैं तो तुमलोग जो कहती हो वही करती हूँ। अपने बारे में सोचना भी नहीं चाहती।” कृपा के चेहरा दिव्या की बातों से तन गया था।
क्यूँ करती हैं हमारे मन की”… दिव्या बहस पर उतारू थी।“क्या बकवास लगा रखा है तुमने। तुमलोग के मन का करके मुझे खुशी मिलती है, और क्या!” दिव्या की बात पर उकताहट भरे स्वर में कृपा कहती है।“यही तो भेदभाव है मम्मी। हमलोग चाहते रहे हैं कि आप अपनी पसंद से भी कुछ कीजिए, ये देख हमें भी खुशी मिलेगी।” दिव्या एक पल के लिए ठहर कर श्याम और रोहित की ओर देखती है और दोनों को उसके समर्थन में सिर हिलाते देख आगे बोलना जारी रखती है।“आपने केवल अपनी खुशी के बारे में ही सोचा ना मम्मी…ये हमारे और आपके बीच आपके द्वारा भेदभाव की करना हुआ ना। अगर हम तीनों को भी खुश देखना चाहती हैं तो त्याग की देवी बनना छोड़ दीजिए।” दिव्या उठ कर कृपा के बगल में बैठ उसके कंधे पर सिर रखती हुई कहती है।कुछ इस तरह भी भेदभाव हो सकता है। ये तो कृपा ने कभी सोचा भी नहीं था। दिव्या की बातों ने कृपा के अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया था। वो बचपन से घर की, बाहर की महिलाओं को दूसरों की पसंद के अनुसार ही ढलती देखती आई थी। अब उसने महसूस किया कि उसकी खुशी भी उसके परिवार के लिए मायने रखती है। उसने तय किया अब वह अपनी पसंद और इच्छाओं को भी महत्व देगी।“तो फिर ठीक है, यह भेदभाव समाप्त।
इस बार की छुट्टियाँ चार धाम की यात्रा के नाम। थैंक्यू मेरी बिटिया रानी।” दिव्या को अपने बाहों में समेटे हुए कृपा ने गर्वमिश्रित प्रसन्नता भरे स्वर में कहा।इस तरह, कृपा ने अपने जीवन में एक नया अध्याय शुरू किया, जहाँ वह अपनी इच्छाओं और परिवार के बीच संतुलन बनाकर जीने लगी। परिवार के हर सदस्य ने समझा कि जीवन में एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना बहुत जरूरी है।
आरती झा आद्या,स्थान-दिल्ली मोबाइल नम्बर-9868539290
बेहतरीन कथानक.. हार्दिक बधाई व शुभकामनायें 🌹🌹