कहानी संख्या 29 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024
रेवती! अन्तिम खेप लेकर मुकाम तक पहुँचने ही वाली थी कि किसी चिर परिचित आवाज़ ने सिर के दोनों तरफ लटकते लकड़ी के गठरों और छाती से चिपके शिशु के भार को अनायास ही हल्का कर दिया था l हाँ! यह स्नेहिल आवाज बूढ़ी काकी की ही है … रेवती मन ही मन सोचने लगी , एक काकी ही तो थी उस दिन जो उसके पक्ष में कुछ बोल पाई थी जब उसे पूरी बिरादरी से बाहर निकाला जा रहा था लेकिन बेचारी काकी भी उन समाज के ठेकेदारों के आगे जीत न सकी थी और उसे बेघर होने से न बचा सकीl लगता है काकी के मन में उठते कई सवालों के जवाब पाने के लिए वह तब से उसे ढूँढ ही रही है l लकड़ी की अंतिम खेप को मुकाम तक पहुँचा कर रेवती बूढ़ी काकी के सीने से लग अपना सारा दुःख भूल गई l काकी की आँखों में तैरते प्रश्न को वह तुरंत ही भाँप गई कि वह विस्मित भाव से सीने से चिपके शिशु के बारे में जानने के लिए आतुर हैं l माँ को तो जन्म से ही नहीं देखा लेकिन काकी का प्यार माँ जैसा ही है l शायद माँ भी तो इसी तरह बेचैन रहती उसके लिए…इसीलिए काकी के बिना प्रश्न किए ही वह उस शिशु के जन्म के बारे में यूँ सुनाने लगी जैसे कोई कहानीकार किसी को कहानी सुना रहा हो—–
रात्रि का गहन अंधकार चारों दिशाओं में अपना प्रभुत्व जमा चुका है l अमावस की काल रात्रि की नीरवता रेवती की आँखों से निंद्रा देवी को कोसों दूर किए जा रही है l रह -रह कर बीते लम्हें उसकी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति तैर रहे हैं l क्या गलती थी उसकी जिसकी इतनी बड़ी सजा उसे मिली l जो ग़लती उसने की ही नहीं उसके लिए वह कैसे जिम्मेदार ठहरा दी गई ! जिन बदमाशों ने उसका अपहरण किया, सज़ा तो उन्हें मिलनी चाहिए थी l कैसा निर्दयी समाज है! ये कैसा न्याय है कि उसे ही बिरादरी से निष्कासित कर दिया गया l क्या किसी के साथ निश्छल भाव से हँसना-खेलना,बातेँ करना गुनाह है! तो फिर आजादी की परिभाषा क्या है ? क्या स्त्रियाँ अभी भी गुलाम हैं?उन्हें हँसने-बोलने की आज़ादी नहीं ? इन्हीं विचारों में डूबी मासूम रेवती के मुखमण्डल पर रह -रह कर कठोरता और घृणा के मिश्रित भाव उभरने लगते हैं l चारों ओर पसरी ख़ामोशी बयां कर रही है कि पूरा गाँव नींद के आगोश में समा चुका है l कर्कट से निर्मित छोटे-से कमरे में टिमटिमाते दिए की रोशनी उसमें पुनः जीवन निर्माण की आशा का संचार कर रही हैं l सगे-संबंधियों ने उसे ठुकरा दिया तो क्या हुआ!उसके स्वयं के वजूद ने उसे अभी तक जिंदा रखा है l जीवन खो देने के लिए तो नहीं मिला है ! वह इसे व्यर्थ नहीं जाने देगी l इन्हीं विचारों की गहनता में डूबते- उतरते उसे अनायास ही हृदय विदारक करुण पुकार सुनाई दी l “ओह!यह तो पास ही के कूड़े के ढेर से आ रही है l इतनी रात गए कूड़े के ढेर पर कौन हो सकता है? अरे— यह तो नवजात शिशु की आवाज़ है l” मर्माहत कर देने वाली उस आवाज ने रेवती के हृदय को झकझोर कर रख दिया l वह शेरनी स्वयं को एक पल भी रोक न पाई और गहन अंधकार को चीरती हुई उस आवाज़ की ओर बढ़ने लगी …ओह! कितनी निष्ठुर होगी वह जन्मदात्री…नहीं-नहीं .. ऐसा नहीं हो सकता..अवश्य ही वह माँ इस सत्य से अनभिज्ञ होगी कि उसका जिगर का टुकड़ा कूड़े के ढेर में पड़ा भूखे कुत्तों का ग्रास बनने वाला है — या फिर किसी बिन ब्याही माँ ने धूर्त समाज के डर से….जो भी हो वह इस नन्ही जान को यूँ नहीं छोड़ सकती l
भौंकते कुत्ते उस मासूम पर झपट पडें, इससे पहले ही आनन-फानन में लपककर उसे सीने से लगाती है lस्नेहिल स्पर्श पाकर नन्ही जान उसके सीने से ऐसे सिमट जाती है जैसे उसी ने उसे जन्म दिया हो l ओह— कन्या है—तो क्या किसी ने दहेज न जुटा पाने के डर से—या भविष्य में दुष्ट भेड़ियों के आतंक से रक्षा न कर पाने के भय से इस मासूम को पैदा होते ही त्याग दिया!इन्हीं विचारों में खोई अपने सीने से सिमटी नन्ही कली को लिए अपने ठिकाने की ओर चल पड़ती है l रात्रि का अन्तिम पहर बीत चुका है l पूर्व दिशा में सूर्यदेव अपनी स्वर्णिम रश्मियों से रेवती और उस नन्ही कली को एक अभूत पूर्व ऊर्जा से भर रहे हैं l रेवती के हृदय से शब्द फूट पड़ते हैं “अब मैं ही इसकी माँ हूँ…कमजोर नहीं है नारी..मैं साबित कर दूँगी l स्वयं काली बन इसे दुर्गा बनाऊँगी ” अपने सीने से बाँध कर्म पथ पर वह शेरनी ऐसे निकल पड़ती है,मानो साक्षात शिव अपना त्रिशूल लिए उन दोनों की रक्षा के लिए हर पल उसके साथ खड़े हों l उसके आत्मविश्वास के आगे भला कौन सी बुरी शक्ति टकरा सकती है!
बूढ़ी काकी साँस रोके ,बिना पलकें झपकाए एकटक रेवती के आत्मविश्वास से भरे चेहरे को निहारे जा रही थी l ख़ुशी और साहस मिश्रित आँसुओं से वह अपना दामन गीला कर चुकी थीl उसके बूढ़े झुर्रियों भरे कपोल अनायास ही उगते सूर्य की लालिमा जैसी दीप्ति से भर उठे l बूढे हाथों में आई अतिरिक्त शक्ति से रेवती की पीठ थपथपाते हुए बोल पड़ी-“मेरी बहादुर बेटी आज से मेरा घर तुम्हारा है l मैं तुम्हें ऐसे वीराने में नहीं रहने दूँगी l तुमने मेरा भी जीवन सार्थक कर दिया बिटिया l अब यह नन्ही कली मेरी नातिन है l हम तीनों मिलकर दिखाएँगे कि नारी समाज की शक्ति है अबला नहीं l अब समाजके ठेकेदार हमारा बाल भी बाँका नहीं करसकते” बूढ़ी काकी नन्ही कली और रेवती के साथ ऐसे सधे कदमों से घर की ओर चल पड़ती है मानो सरहद पर कोई फ़ौजी दुश्मन से लोहा लेने आगे बढ़ रहा होl
माधुरी भट्ट, देहरादून,9835470102
सशक्त कथा शिल्प… शुभकामनायें 🌹🌹
बेहतरीन कथाशिल्प… आज भी प्रासंगिक प्रस्तुति है आपकी… समाज की वास्तविकता का चित्रण किया है आपने…
सच कहूँ तो मुंशी प्रेमचंद की याद दिलाई है आपकी कहानी ने.. साधुवाद, बधाई..
यथार्थ के धरातल पर बुनी हुई सुंदर संदेश देती हुई बेहतरीन कहानी , हार्दिक शुभकामनाएं