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डाँ०नीलिमा की कहानी रिश्वत

कहानी संख्‍या 32 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024

  *आज* सुबह सुबह  बुधन मंडल की विधवा पत्नी जब अपने छोटे मालिक जीतन बाबू को  नूनथारा गाँव का मुखिया बनने की खबर सुनी तो वह खुशी के मारे उछल पङी । उसकी बुढी आँखें सतरंगी ख्वाब देखने लगी ।  कुछेक  महिना- दिन पहले ही तो उसके  मुहल्ले में रहने वाली  सुखनी  की छोटकी पुतोह रधिया के मुँह से वह  सुन रखी  थी कि सरकारी चापाकल उसके मुहल्ले में भी लगने वाला है । फिर अब तो उसे एक पल का भी चैंंन नहीं , कारण कि एक तो घर में नयी ब्याही बहू दूसरा घर में न कोई मर्द मानुष फिर दूर  मुहल्ले के कुएँ से बहूँ को पानी लाना न जाने कब किसकी बुरी नजर उस पर पङ जाये इस आगत आशंकाओं के मारे  एक बारगी वह भीतर से काँप उठी ।  उसके जेहन में जुगेसरा की बेटी कुन्ती  का चेहरा  नाच उठा । बेचारी मासूम कुन्ती कुएँ से  पानी लाने ही तो गयी थी जो न जाने वह कहाँ  मर खप गयी  । आज तक किसी को पता भी नहीं चला । बेचारा जुगेसरा आज  दीन हीन  बना पागल की भांति दर-दर भटक रहा है और बेचारी उसकी पत्नी अचानक जवान बेटी के गायब होने की सदमा, ऊपर से रोज थाना चौकी  की दौङा दौङी , मुखिया  सरपंच से निहोरा विनती करते करते मर  गई बेचारी ।

अचानक यंत्रचालित सा उसका दाया हाथ आँचल में बंधे सौ सौ के पाँच नोटों से खेलने लगा जिसे उसका बेटा अशर्फी ने आसाम से मनीआर्डर भेजा था । आज इन दोहरी खुशी में रह- रहकर उसे अपने पति बुधन की याद आने लगी । दिन दुनियाँ से बेखबर वह अपनी आँखों को बंद करके वहीं सङक किनारे एक पेङ की घनी  छाँव तले बैठ गई ।  धीरे धीरे बासंती हवा का शीतल स्पर्श लगते ही उसके मानस पटल पर चलचित्र की भांति विगत स्मृतियों का सैवाल उमङ पङा ।
  आज से ठीक पैतीस साल पहले इस छोटे  मालिक जीतन बाबू का जन्म हुआ था । उस समय उसका पति बुधन मंडल जीवित था । दिन बुधवार ही था उसे खूब अच्छी तरह याद है । शाम हो चला था ,वह घर के सारे दैनिक काम को निवटा कर दूर कुऐ से पानी लाने के लिए ज्यों ही घङा उठाने  लगी कि उसका पति बुधन मंडल खेत से आ धमका । आते ही उसे अपने करीब खींच कर पूछने लगा , अच्छा बताओ तो तुम अपने इस होने वाले बच्चें का क्या नाम रखोगी……! वह आँचल से अपने चेहरे को ढक कर धीरे से बोली थी अशर्फी , हम दोनों का अशर्फी ।  अचानक  बाहर दरवाजे से किसी ने बुधन को आवाज दिया और वह उसी समय लपक कर मालिक के यहाँ चला गया ।   रात भर बुधन अपने मालिक के यहाँ ही रहा। इधर वह सारी रात  अपने आने वाले नवजात के ख्यालों में खोयी  करवटें बदलती रही ।  कल होकर काफी दिन चढ जाने पर बुधन घर आया । मुझे याद है घर आते ही वह तुफान की तरह आँगन में बीछे चटाई पर जा लेटा ।  मुझे अपना सर दबाने को कहा मैं तो  काफी घबरा गई थी लेकिन थोङी राहत मिलते ही वह कहने लगा कि कल रात भर जागता रहा , एक पैर पर खङा  दरबार में भाग दौङ कर ड्यूटी बजाता रहा ,कभी डाक्टर को बुलाओ, तो कभी वैद्य हकीम को । पैसा तो पानी की तरह मालिक ने  खर्च किया किन्तु भगवान की मर्जी के आगे न डाक्टर की चतुराई और न वैद्य की हकीमी ही चली । सुबह घङी के ठीक पाँच बजे बच्चे की किलकारी से जहाँ दरबार का कोना कोना गूंज उठा तो वहीं मालकिन की मौत के मातमी सन्नाटे की काली चादर हवेली को चारों ओर से ढक लिया । बेचारी मालकिन मासूम बच्चा को इस असार संसार में

अकेला छोङकर स्वर्गवासी हो गयी । फिर मुझे इस छोटे मालिक की देख भाल करने के लिए दरबार में जाना पङा । वहीं तीन महीने के बाद मेरे बेटे अशर्फी का जन्म हुआ ।  उस दिन  बुधन अपनी खुशी  को जाहिर करने दबे पाँव दरबार में सभी नौकर चाकर से नजरें बचाकर मुझसे बोला था–  अरे! रमिया !! आज तो तुम दो-दो बेटों की राजमाता बन गई हो,तब प्रसव पीङा को भूल शर्म से मैं लाल हो गयीं थी ,और सच में तब मैं दरबार में दोनों बच्चों को  अपना दूध पिला कर साधिकार अपने बेटे के समान ही  पोषण करने लगी ।
     इन बातों का स्मरण आते ही वह सीधा मुखिया मालिक के पास दौङ पङी । आज उसके पैरों में गजब की तेजी आ गई थी लगता था कि वह चल नहीं मानों दौङ रही हो । धङकने इतनी तेज चल रही थी कि साफ सुनाई पङ रहा था और उससे भी तेज तो उसके मानस पटल पर विगत स्मृतियाँ आ-जा रही थी । कैसे बङे मालिक लकवाग्रस्त हुए और अंत में तङप-तङप कर मरे। यह याद आते ही  उसकी आँखे भर आई कदम की चाल थमने लगी । अथाह सम्पत्ति और गलत संगति में पङ कर छोटे मालिक पढाई लिखाई से कोसो दूर राजनीति में रम गये। दरबार में चाकरी के कामो में बुधन के अलावे छोटे मालिक ने कई और नौकर को रख लिए।

मुझे नूनथारा गाँव में बसने का आदेश दिया गया । जहाँ आज से तीन साल पहले एक रात बुधन का हृदय गति रुकने से मौत हो गई । भला हो नूनथारा गाँव के  जगदीश मउआर जी का जो मेरे बेटे अशर्फी को असाम ले जाकर कपङा के मील में नौकरी पर लगवा दिया  । यह सोचते-सोचते वह कब दरबार में पहुँच गई पता ही नहीं चला । अचानक दोनों हाथों को  सीने से लगाती हुई मन ही मन बुदबुदा उठी-भगवान ने चाहा तो आज अवश्य छोटे मालिक मेरे दूध की किमत अदा करेंगे । भला मेरे बेटे और छोटे मालिक में अन्तर ही क्या है । चाहे छोटे मालिक लाख मना करेंगे लेकिन मैं इन पैसो को मिठाई खाने के लिए उन्हें देकर ही रहुंगी । इसी निश्चय के साथ वह दरबार में पहुँचते ही छोटे मालिक से अपनी व्यथा कथा कह सुनायी । ईश्वर की कृपा से छोटे मालिक ने भी  सहृदय होकर उसकी सारी व्यथा कथा सुनी फिर पैसा लेने से इन्कार करते हुए कहा अरे! तुमने तो मेरी बचपन से सेवा की है ? क्या इसी रिश्वत देने के लिए ? जा घर जा ! चापाकल लगेगा और ठीक तुम्हारे घर के सामने लगेगा । हाँ एक बात कल  अपनी बहू को अवश्य यहाँ भेज देना , कुछ जरूरी कागजात पर दस्तखत करना होगा ।
   दूसरे दिन सुबह की गयी बहू देर रात तक घर लौटी तो दीये की मद्धिम लौ में सास की बुढी आखें वासना की जंग में लुटी अपनी बहू को देख एक पल ही में सब कुछ समझ गई । रात भर  दोनों सास-बहू एक ही खाट पर गुम-सुम अपने अपने ख्यालो में खोयी करवटें बदलती रही ……..। ना कोई बात- चीत, ना कोई टोका-टोकी सब कुछ स्तब्ध….बिलकुल शान्त……। हाँ बीच- बीच में झिंगुर की झन्नाटेदार  आवाज अवश्य  सुनाई पङती रही ………। कब दिन निकल आया पता नहीं चला ।
   अचानक झोपड़ी के बाहर कोलाहल सुन बुढिया की आँख खुली , सामने पानी का घङा न देख कर समझी बहू पानी लाने गई है ।, बाहर शोर बढता रहा….. बढता रहा ……..। अंत में बुढिया घर से बाहर निकली तो यह क्या ? सामने बहू की लाश पङी थी ।भीङ में से किसी ने समझाया यह बेचारी पानी लाने गयी थी ,पैर फिसल गया और कुऐं में गिर गयी । आज बुढिया के पैरों में जान नहीं ,कांपतें पैरों से अपने को सम्भालते हुए वह लाश के पास बैठ गई । अपने होंठ को थोङा उपर सिकोङ कर निःश्वास भरते हुए बुदबुदायी रि..श्व…….त ।


        
नाम-डाँ०नीलिमा वर्मा “निशिता” स्थान-मुजफ्फरपुर, बिहार। मो०-7903604212

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