कहानी संख्या 39 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024
एक गाँव में एक ब्राह्मण-पुत्र रहता था जो अत्यंत ही गरीब था। माता-पिता बचपन में ही स्वर्ग सिधार गए थे। चाचा-चाची कब तक उस अनाथ का बोझ उठाते। किसी तरह उसको पाल-पोस दिया। जब वह जवान हो गया तो काम-काज करने के लिए उसे कुछ पैसे देकर शहर भेज दिया। शहर में एक अनजान व्यक्ति को भला कौन काम पर रखता? बिन माँ-बाप का बच्चा इतना हट्टा-कट्टा भी न था कि मजदूरी करके ही गुजारा कर लेता। जब सारे पैसे खत्म हो गए तो उसे खाने के लाले पड़ गए। भूखा-प्यासा मंदिर की सीढ़ियों पर पड़ा देखकर मंदिर के पुजारी को दया आ गयी। वह उसे अपने घर ले गया और उसे खाने के लिए एक मुट्ठी चबेना दिया। पुजारी भी कोई धनाढ्य तो था नहीं, भरपेट भोजन कहाँ से कराता। शहरों में पूजा-पाठ करनेवालों की संख्या कम होती जा रही थी जिससे कुछ खास चढ़ावा भी नहीं चढ़ता। चबेना खाकर ब्राह्मण की जान में जान आयी। उसने पुजारी से कहा कि उसे मंदिर के अहाते में रहने की आज्ञा दे दे। पुजारी ने कहा, “भगवान का घर तो सबके लिए खुला रहता है। मैं कौन होता हूँ मना करने वाला! पर तुम खाओगे क्या?” वह ब्राह्मण बोला, “रहने की व्यवस्था हो जाए तो पेट भरने के बारे में सोचूँ!”
उस रात वह देर तक मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा रहा। फिर न जाने कब आँख लग गयी। सुबह देर से आँख खुली तो देखा कि उसके आसपास कुछ सिक्के और कुछ नोट बिखरे हुए थे। पूजा करने आए श्रद्धालुओं ने उसे भिखारी समझ कर शायद कुछ सिक्के फेंक दिए होंगे। उसने उन्हें बटोर कर गिना जो तीस से चालीस रुपये के करीब थे। वह सोचने लगा कि बिना माँगे ही तीस-चालीस रुपये मिल गए, माँगने पर तो और भी मिल सकते हैं। बस फिर क्या था। उसने एक चादर ओढ़ ली और आने-जाने वालों से मदद की मिन्नतें करने लगा। धीरे-धीरे उसकी यह चाल सफल होती गयी, पर पुजारी को यह देखकर बहुत दुःख हुआ। उसने उसे कई बार समझाने की कोशिश की… “देखो! तुम्हारे शरीर के सारे अंग सही-सलामत हैं फिर भी तुम्हें भीख माँगते शर्म नहीं आती? बिना कोई श्रम किए तुम भोजन कैसे कर सकते हो? तुम्हारा जमीर तुम्हें नहीं धिक्कारता?”
“बाबा! जब मुझे बिना कुछ किए ही मिल रहा है तो मैं काम क्यों करूँ? मैं किसी से कोई जबर्दस्ती तो कुछ नहीं छीनता और न ही चोरी करता हूँ। ब्राह्मण तो वैदिक काल में भी माँग कर खाते थे। इसमें कैसी शर्म? गरीब को सहारा देना तो धर्म-ग्रंथों में भी लिखा है!””फिर भी तुम्हें भी तो कुछ समाज को देना चाहिए! ऐसे तो अकर्मण्यता बढ़ जाएगी समाज में”… पुजारी ने विनम्रता से उसकी खुद्दारी को जगाने की कोशिश की। वह विप्र मुफ़्त का माल खाकर आलसी होने के साथ-साथ मुँहफट भी हो गया था। बोला, “अरे बाबा! कनखजुरे की एक टांग टूट जाने से कोई फर्क पड़ता है क्या! इस समाज में कितने धनाढ्य लोग भी तो रहते हैं। वे स्वेच्छा से दे रहे हैं तो आपको क्यों तकलीफ होती है! आप अपना काम कीजिए, बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दीजिए!”
पुजारी ने उस वक्त तो कुछ नहीं कहा पर मन-ही-मन उसने इसे सही रास्ते पर लाने के लिए एक संकल्प ले लिया। वह सुबह-शाम मंदिर का काम करता और दिन में एक मूर्तिकार की मूर्तियाँ बनाने में मदद करता था। एक दिन पूजारी ने एक कच्ची मिट्टी की अनगढ़ सादी-सी मूर्ति जो बालकृष्ण की थी, लाकर उस ब्राह्मण को दे दी। ब्राह्मण के पास मूर्ति को देखकर लोगों की श्रद्धा बढ़ गयी और वे भगवान के नाम पर कुछ अधिक ही देने लगे। ब्राह्मण बहुत खुश हुआ। एक दिन उसे लगा कि यदि मूर्ति को थोड़ा सजा दे तो लोग और भी आकर्षित होंगे। पुजारी ने दाना तो डाल ही दिया था। एक दिन उसके सामने से कुछ रंग और कूची लेकर गुजरने लगा। यह देख ब्राह्मण ने उससे रंग और कूची माँगनी चाही। पुजारी ने एक शर्त रखी कि रंग और कूची तो वह दे देगा, किंतु उसे उसकी भी कुछ मूर्तियों को रँगना होगा। ब्राह्मण तैयार हो गया। शाम तक उसने छोटी-छोटी पाँच मूर्तियाँ रँग लीं। उसे इस काम में इतनी संतुष्टि मिली कि उसे मूर्ति रँगने के अतिरिक्त किसी बात की सुधि न रही।
अगले दिन पूजा-अर्चना से निपट पुजारी उन मूर्तियों को अपने साथ ले गया और शाम को छह-सात अन्य सादी मूर्तियाँ लेता आया। दिन भर खाली बैठना ब्राह्मण को उस दिन नागवार लगा। पुजारी को मूर्ति और रंग के साथ देखकर बहुत खुश हुआ। अब वह दिन भर मूर्तियों को रँगने में व्यस्त रहने लगा। उसे काम करता देख श्रद्धालुओं ने पैसे देने बंद कर दिए। ब्राह्मण को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ा। वह मूर्तियाँ रँगने में इतना तल्लीन रहता कि खाने-पीने का भी होश नहीं रहता। अब तो उसके खाने का ध्यान भी पुजारी को ही रखना पड़ता। उसकी रँगी हुई मूर्तियाँ इतनी सजीव होतीं कि ऊँचे दाम पर हाथोंहाथ बिक जातीं। भूख की समस्या दूर होने से धीरे-धीरे उस ब्राह्मण में आत्मविश्वास बढ़ने लगा। अब उसे किसी से भी बेवजह कुछ लेना अखरने लगा। उसे अपनी मेहनत की कमाई में अत्यधिक सुख मिलने लगा। उसने पूजारी से मूर्ति बनाने की कला भी सीख ली। इस काम में इतना अधिक निपुण हो गया कि देवी-देवताओं के अतिरिक्त अनेक सुंदर-सुंदर कलाकृतियाँ तथा बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौने भी बनाने लगा। बछड़े को दूध पिलाती हुई गाय की एक मूर्ति तो इतनी सजीव थी कि गाय की आँखों में वात्सल्य भाव की चमक मन को मोह लेती थी। इन मूर्तियों के कारण मंदिर आनेवालों की संख्या बढ़ने लगी जिससे पुजारी के भी दिन फिरने लगे।
अब पुजारी ने सहायता के लिए एक मजदूर की व्यवस्था भी कर दी। धीरे-धीरे इस कार्य ने एक व्यवसाय का रूप ले लिया। मंदिर का प्रांगण छोटा पड़ने लगा। पास ही एक खाली जमीन पड़ी थी। पुजारी ने दौड़-भाग कर इस जगह को किराए पर ले लिया। साथ ही दो-तीन और सहायक रख लिए। इस तरह से पुजारी की एक छोटी-सी मदद ने अपने साथ-साथ कितने लोगों का जीवन सँवार दिया।
गीता चौबे गूँज, बेंगलूरु मो. नंबर – 8880965006
शिक्षा प्रद कहानी
अच्छी कहानी
अति प्रेरणादायक 🙏✨
अत्यंत भावप्रवण और प्रेरक कहानी..आपकी लेखनी की धार दिन ब दिन तेज होती जा रही है..जो एक ही सांस में पूरी कहानी पढ़ने को मजबूर कर दे रही है।
एक साकारात्मक और प्रेरणादायक कहानी है आपकी । बहुत बधाई आदरणीया🙏
सुन्दर और प्रेरक कहानी
बहुत सुन्दर व प्रेरणादायक रचना
👌👍👏👏🎉
एक अच्छी और प्रेरणा दायक कहानी जो कर्म के महत्व को रेखांकित करता है।
Good