भावनपुर गांव की एक सावली सलोनी लड़की जिसका नाम था बुधना। बुधना बहुत ही नेक और कर्मठी लड़की थी। वह सुबह परिवार के लिए खाना बनाती उसके बाद अपने पिता के साथ उनके खेती-बाड़ी के कामो में हाथ बटाती। समय बीतता गया अब बुधना के माता पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी। बुधना की माँ कहती बच्चे कब बड़े हो जाते हैं पता ही नही चलता है। और लड़कियों की उम्र थोड़ा जल्दी ही बढ़ जाती है लग रहा है। कुछ दिन बाद बुधना की शादी पड़ गयी। घर द्वार अपनी हैसियत के अनुसार सज गया। विधि विधान के साथ विवाह के उपरांत बुधना अपने पति सुखराम के साथ अपने ससुराल चली आई। ससुराल में पहुँचकर अब बुधना इस आस में खूब चहक रही थी कि अब उसके जीवन में खुशियां ही खुशिया होंगी। अब उसे ज्यादा मेहनत नही करनी पड़ेगी। कुछ दिन पता चला कि उसका ससुर बहुत ही शराब पीता है और सारी खेती की जमीन को बेच डाला है। कहावत भी है न कि शराब किस किस ने पी मैं ये नही जानता, शराब ने कितने घर को पी लिया यह जानता हूँ मैं।अब बुधना के पति सुखराम के गृहस्थी चलाने का एक ही सहारा बचा था दूसरे के खेतों में मजदूरी करना। मरता क्या न करता। सुखराम बड़े खेतिहर लोगों के खेतों में मजदूरी करने के लिए मजबूर था। विवाह के एक दो वर्ष बाद बुधना और सुखराम के परिवार में एक नन्हे मेहमान का जन्म हुआ। गीत गवनई खूब हुई मिठाई के नाम पर बताशा बाँटकर भी बुधना खुश थी। इसी बीच बुधना के ससुर अधिक शराब पीने की वजह से चल बसे। अब उनके सिर माथे तेरहवीं करने की समस्या आन पड़ी। इस गांव में बहुत पुरानी परम्परा चली आ रही थी कि मरने के तेरहवें दिन पूरे गांव को भोज देना होता था। अब सुखराम को इस समस्या से निपटने का कोई रास्ता नही दिख रहा था। सुखराम को चिंतिंत देख बुधना ने कहा कि-
“क्या बात आप बहुत दुखी लग रहे हैं?”
सुखराम- हां! तेरहवीं करने की चिंता सताए जा रही है। और तुम तो जानती हो घर में बचत के नाम पर फूटी कौड़ी भी नही है।बुधना-आप चिंता न करें मैंने कुछ रुपये रखें जो मुझे मेरी माँ ने दिए थे, बोली थी बेटी इसे बहुत जरूरत हो तभी खर्च करना।सुखराम- हल्के होते हुए चलो तुमने आज मुझे डूबने से बचा लिया। वरना मैं कर्जा लेने की सोच रहा था।
किसी तरह से तेरहवीं का भोज बीत गया। गांव के सभी लोग भोज का आनन्द लेकर अपने अपने घर चले गए। इस प्रकार बुधना की जिंदगी की कटने लगी। एक दिन सुखराम ने सोचा कि क्यों न शहर में चलकर कुछ काम करते वहाँ मजदूरी भी ज्यादा मिलती है। बुधना को अपने पति का यह विचार अच्छा लगा। फिर क्या था तीसरे ही दिन घर से कुछ बिस्तर सामान और अपने बच्चे को लेकर निकल पड़े दोनों शहर की तरफ। ट्रैन में किसी तरह सवार होकर पहुँच गया यह परिवार एक अनजान शहर में जहाँ उनका अपना कोई परिचित नहीं था। सुखराम अपने परिवार के साथ स्टेशन से बाहर निकला तो बाहर बड़ी बड़ी बिल्डिंग और लाइट देखकर चकाचौध हो गया। उसकी नजर चौराहे के बगल बन रहे नए पुल की तरफ गई। वह पुल के पास पहुँचकर वहाँ काम कर रहे मजदूरों से बात करने लगा। वह पूछते हुए उनके रहने के ठिकाने पर पहुँच गया। उसने काफी मशक्कत के बाद सड़क के किनारे तिरपाल लगाकर रहने का स्थान बना लिया। घर से लाया हुआ रूखा-सूखा, चना-चबैना खाकर वे सभी सो गये, लेकिन नये शहर में अन्जान जगह पर सुखराम को चैन से नीद नहीं आ रही थी। वह चिंता के मारे उठकर टहलने लगा। उसकी नजर उसके सामने सड़क उस पार बनी ऊंची-ऊंची इमारतों पर पड़ी। वह सोच रहा था काश! इसमें से कोई एक कमरा हमारा भी होता तो हम लोग भी आराम से सो पाते। काफी रात बीत जाने के बाद उसे नीद आयी। उसे सुबह होने का पता तब चला, जब उसकी पत्नी बुधना ने हिलाकर उसे जगाया। बुधना ने कहा कि हमारा बच्चा भूख से रो रहा है और आपको कोई गम नहीं है। सुखराम पास बने पानी में टैंक में हाथ-मुंह धुलकर पड़ोसी से एक गिलास दूध उधार मांगकर लाया। तब जाकर बच्चे का रोना बन्द हुआ। इसके बाद पड़ोस में रहने वाले मजदूर से बात करके उसके साथ काम पर चला गया।
आज काम करते समय सुखराम को अपनी बीबी और बच्चे की याद बहुत सता रही थी। शाम को अपनी मजदूरी के पैसे से एक सस्ता होटल देखकर वहां से खाना पैक करवाया और खुशी-खुशी चल पड़ा अपने निवास स्थल की ओर, जहां पर उसकी बीबी और बच्चा उसकी बेशब्री से राह देख रहे थे। आज कई दिनों बाद सभी ने भर-पेट भोजन किया और सभी को अच्छी नींद भी आयी। सुखराम की रोजमर्रा का यह सिलसिला चलने लगा। उनका बच्चा धीरे-धीरे अब बड़ा हो गया था। बुधना ने एक दिन अपने पति से कहा कि क्यों न हम अपने बच्चे को पढ़ाई के लिए स्कूल भेजें। सुखराम को भी अपनी पत्नी की यह बात अच्छी लगी। वह सोचने लगा कि हमारी पूरी जिन्दगी तो मजदूरी और दूसरों की गुलामी में कट गयी लेकिन पढ़-लिखकर शायद हमारे बच्चे को यह सब न झेलना पडे़। अगले दिन सुखराम ने नजदीक के सरकारी स्कूल में जाकर बच्चे का एडमिशन करवा दिया। अब सुखराम के काम पर और बच्चे के स्कूल जाने के बाद बुधना घर पर अकेली रह जाती,उसका दिन काटना पहाड़ हो जाता था। इधर जिम्मेदारियों और आवश्यकताओं की चादर भी बढ़ती जा रही थी। यही सब सोचकर बुधना ने एक सप्ताह बाद हिम्मत जुटाकर अपने पति से उसके साथ काम पर चलने की बात कही। तो सुखराम ने साफ-साफ मना कर दिया कि उसे काम पर नहीं जाना है। परन्तु बुधना के काफी जिद् करने पर अगले दिन से बच्चे को स्कूल भेजकर दोनों पति पत्नी काम पर जाने लगे। अब परिवार की आमदनी बढ़ चली थी। बुधना और सुखराम एक बड़ी स्टील फैक्ट्री में काम करने जाते थे। फैक्ट्री का मालिक हट्टा-कट्टा और बहुत ही रौबदार आदमी था। वह मजदूरों से सीधे मुंह बात नहीं करता था। बात-बात में उन्हें झिड़की देता रहता था। लेकिन उसमें एक खासियत थी कि वह महिलाओं का बड़ा सम्मान करता था। वह उन्हें कभी उल्टा-सीधा नहीं बोलता था। कुछ दिनों बाद सुखराम की दोस्ती कम्पनी में काम करने वाले एक मजदूर से हो गयी। उसका नाम था कमलेश। कमलेश और उसकी बीबी दोनों ही उस फैक्ट्री में काफी दिनों से मजदूरी कर रहे थे।
एक दिन की बात है फैक्ट्री का मालिक टहलते हुए अन्दर आया। आज उसके बात और व्यवहार में रूखापन दिखाई नहीं पड़ रहा था। जो कि मजदूरों के लिए एक आश्चर्य की बात थी। उसने सारे मजदूरों को ठेकेदार से कह कर बुलवाया। उसने बाद मालिक ने कहा कि भाइयों मेरी नई फैक्ट्री थोड़ी ही दूर पर खुल रही है। उसमें महिला मजदूरों की जरूरत है। वहां पर उनकी मजदूरी भी बढ़कर मिलेगी। यह बात सुनकर सुखराम और कमलेश ने अपने बीबियों को अधिक मजदूरी मिलने के कारण वहां भेजने का निर्णय लिया। शाम को घर आने पर बुधना ने सुखराम से कहा कि मैं नये अन्जान जगह पर आप को छोड़कर अकेले काम पर नहीं जाना चाहती हूं। मैं आपके साथ ही कम मजदूरी पर काम करना चाहती हूं। क्योंकि बुधना को मालिक का व्यवहार पहले से ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन यह बात उसने अपने पति से कहना सही नहीं समझा। अगर वह उससे बताती तो शायद उसका पति नाराज होकर उसे साथ में काम पर ले जाने से भी मना कर देता। स्त्रियों की एक स्वाभाविक विशेषता है कि वह पुरूषों की भावनाओं को बहुत जल्दी ही पढ़ लेती हैं, बुधना के साथ भी ऐसा ही हुआ। काम करते करते बात बात में एक दिन सुखराम के दोस्त कमलेश ने बताया कि उसकी बीबी की वजह से उसकी जिन्दगी बहुत अच्छी चल रही है क्योंकि फैक्ट्री के मालिक ने उसकी बीबी की मजदूरी को तनख्वाह में बदल दिया है। सुखराम ने सोचा कि काश! मेरी बुधना भी नये फैक्ट्री में जाती तो हमारे भी दिन बदले हुए होते।
समय बीतता गया। एक दिन सुखराम को किसी काम से ठेकेदार ने मालिक की नयी फैक्ट्री में भेजा। सुखराम नई फैक्ट्री केे गेट पर पहुंचा तो उसे गेट पर लगे गार्ड ने रोक लिया। काफी पूछताछ करने के बाद गार्ड ने अन्दर जाने दिया। सुखराम अन्दर कुछ दूर तेज कदमों से आगे बढ़ने लगा कि अचानक से वह मालिक के कमरे की तरफ पहुंच गया। वह पहली बार नई कम्पनी में आया था उसे रास्ते का पता नहीं था। अचानक से एक दृश्य ने उसके तेज बढ़ते हुए कदमों को रोक दिया। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसने अपनी आंखों को रगड़ते हुए फिर से देखा कि फैक्ट्री का मालिक उसके दोस्त कमलेश की बीवी से हंसते हुए गंदी हरकत कर रहा था। यह नजारा उसने पिछली खिड़की से गलती से देख लिया था। सुखराम को काटो तो खून नहीं उसने जल्दी जल्दी काम निपटा कर वहां से चलता बना। आज सुखराम को अपनी पत्नी की बुद्धिमत्ता पर गर्व हो रहा था। उसे याद है कि बुधना ने नई फैक्ट्री में न जाने के लिए कितना जिद किया था। अब उसे समझ में आ रहा था कि उसकी बीवी बुधना ने अपने चरित्र को बचाकर एक सच्ची कमाई की है। काम खत्म करके आज सुखराम बुधना के साथ फैक्ट्री से निकलर घर जाते समय रास्ते में एक मिठाई की दुकान पर रूक गया। दुकान के अन्दर जाकर इमरती खरीदी क्योकि बुधना को इमरती बहुत पसन्द थी। अचानक इतने दिनों बाद मिठाई वाली बात बुधना को नहीं पची। उसने पूछा क्या बात है आज मिठाई किस खुशी? सुखराम कुछ न बोला। दोनों खुशी पूर्वक घर आकर बच्चे के साथ मिलकर मिठाई का आनंद लिये।
बुधना और सुखराम का इकलौता बेटा किशना पढ़ाई लिखाई में अच्छा निकला। वह मन लगाकर पढ़ाई कर रहा था। किशना स्कूल से आते ही कुछ देर खेलने के बाद अपनी पढ़ाई में जुट जाता था। वह क्लास में हमेशा फर्स्ट आता था। वह अपने माता पिता से बोलता था कि मैं पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी करेगा। किशना की बात सुनकर दोनों हंसते और बोलते कि भगवान तुम्हारी बात सही करें। एक दिन किशना ने आकर बताया कि अब उसे फीस की जरूरत नहीं पड़ेगी गुरूजी ने बताया कि अब हमारी पढ़ाई के लिए सरकारी स्कॉलरशिप मिलेगी। इस खुशखबरी पर पति पत्नी दोनों फूले न समाये। अब उन्हें अपने बच्चे की फीस की जिम्मेदारी से मुक्ति मिल गयी थी। किशना स्कॉलरशिप से नई नई किताबें लाकर पढ़ना शुरू किया। उसने कई प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लिया परन्तु कुछ नम्बरों से असफल हो जाता लेकिन उसने प्रयास नहीं छोड़ा। आखिर उसकी मेहनत रंग लायी और उसका चयन सचिवालय में बाबू के पद पर हो गया। आज किशना के परिवार की अंधेर भरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत सुबह थी। किशना अपने माता पिता के फैक्ट्री से आने का बेसब्री से इंतजार करने लगा। वह बार बार सड़क की तरफ देखता कि कब उसके माता पिता घर पर आयें और मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि को उनसे बांट सके और गर्व से कह सके कि वह एक मजदूर का अफसर बेटा है,जिसे उसके माता पिता ने अपनी भूख मारकर पढ़ाने के लिए स्कूल भेजा। कुछ देर इंतजार करने के बाद आखिर वह खुशी का क्षण आ ही गया। किशना के माता पिता घर की तरफ आते हुए दिखाई पड़े। किशना ने दौड़ लगा दी और पहुंच गया उनके चरणों में आशिर्वाद लेने। उसने अपने चयन की बात उनसे बताई। सुखराम और बुधना की ऑखों से अश्रुधारा बह चली। यह खुशी के ऑसू आज उनकी वर्षों की कठिन त्याग और तपस्या का परिणाम था। जिसने अपनी विषम परिस्थितियों में भी पढ़ाई लिखाई का महत्व समझकर अपने बच्चे को स्कूल भेजा। बुधना और सुखराम ने अपने लाडले बेटे किशना को गले लगा लिया। आज सुखराम और बुधना ने अपने जीवन की सबसे बड़ी और सच्ची कमाई कर ली थी।
रणजीत यादव ‘क्षितिज’
सब इंस्पेक्टर उत्तर प्रदेश पुलिस
जनपद अयोध्या
सम्पर्क 9919578764