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रेखा दुबे की कहानी समुद्र में तूफ़ान

विदिशा (मध्यप्रदेश) की खबर 19 फ़रवरी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)जब भावनाओं के समुद्र में तूफान उठते हैं। तो भंवर के ग्रास में फंसा मन उसमें से निकलने के लिए फड़फड़ा उठता है । हाथ फैला कर पकड़ना चाहता है वह एक मजबूत वृक्ष की साख को अथवा मौजों के उन थपेड़ों में सहारे की तलाश करते हुए पकड़ना चाहता है कोई  किनारा ।लेकिन क्या यह मन जमीनी हकीकत के ठोस धरातल पर पहुंच कर प्राप्त कर पाता है कहीं कोई सुकून, या वक्त के हाथों बेबस और बेजान कठपुतली की तरह नाचता रहता है कर्तव्य, प्रेम, समर्पण ओर जिम्मेदारियों की लहरों के आगोश में। अपनी लाखों- इच्छाओं एवं प्रयास के बावजूद भी वह नहीं ढूंढ पाता कोई ऐसा सुरक्षित स्थान जहां बैठ कर अपनी जिंदगी के दो पल सुकून से बिताये जा सकें।
कितनी ही परिधियों में बंधा हमारा वाह्य व्यक्तित्व अंदर के मन को बंधने के लिए विवश नहीं कर सकता क्यों की हर व्यक्ति की अपनी एक व्यक्तिगत सोच होती है और वही निर्धारित करती है उसके व्यक्तित्व को या उसके अंदर पनप रहे विचारों को,हम अपने अंदर बैठे किसी भी डर या सोच को अपने वाह्य आवरण से ढक कर कितना भी नजरंदाज करें पर हमारा मन एक सहमे पक्षी की तरह हमारे साथ ही रहता है।तनवी का मन भी आज सारे बंधनों को तोड़कर  उड़ जाना चाहता था स्वच्छंद आकाश में विचरण करने के लिए । करना चाहता था खुद से ही गुफ्तगू । भूलकर  सारे गिले-शिकवों को भर लेना चाहता था खुद को नव- स्फूर्ति ओर उत्साह के मोह जाल में भ्रमित मन को मना कर जश्न मनाना चाहता था उसका भोला मन उसके “ब्याह की उस अनसुलझी पहेली की वर्षगांठ का, जिसे सुलझाने में वह अभी तक असमर्थ थी”।मन की खुशी रूप को दोगुनित बैसे ही कर देती है इसी वजह से आज उसका रूप जार्जेट की बांधनी वाली साड़ी में ओर भी निखरकर आया था।जब अपने बिखरे बालों को उसने धीरे- धीरे हटाया तो लगा मानो घनघोर घटाओं के बीच से  चांद अपनी रक्तिम दीप्त आभा के साथ चमकते हुए अपने तन- मन को उज्ज्वलता का प्रमाण दे रहा हो ।
सच में लाल रंग की बांधनी साड़ी कितनी फब्ती है उस पर यह सोचते हुए जब उसने साड़ी का पल्ला कांधे पर डाला तो उसे अपने आप पर रस्क हो आया।
ओठों को थोड़ा गोल कर लिपिस्टिक को लगाया  फिर  टेढ़ी बिंदी धीरे से आगे पीछे कर  मुस्कुरा दी मन किया आईने से ही पूछ ले तनवी आज इतनी खुश क्यों हो ?..क्या शादी की
सालगिरह की इतनी ही खुशी जतिन के मन में भी होगी ?.
खटाक…मन धड़ककर कुछ कहता उसके पहले ही घड़ी की टिकटिक ने एहसास  कराया आफिस को देर हो रही है।
झटपट अपना पर्स उठाकर बाहर की तरफ लपकी ,किंतु बीच में ही जतिन ने अपनी बेधती हुई निगाहों से उसे देखते हुए सवाल दाग दिया क्या बात है ??.आज श्रीमती जी बड़ी बन- ठन कर ऑफिस जा रही हैं अपने बॉस पर बिजलियां गिराने का इरादा है क्या ?.. उसने अपनी बड़ी-बड़ी प्रश्न वाचक किंतु कातर नजरों को उठाया मानो कहना चाहती हो जतिन क्या मेरा सुंदर लगना अपराध है। क्या इसी सुंदरता को देखकर तुमने मुझसे शादी नहीं की थी फिर उसी सौंदर्य के प्रति तुम्हारे मन में एक ईर्ष्या मिश्रित संदेहात्मक  प्रश्न क्यों उठा ?..
“मेरा नौकरी करना गुनाह है,या मेरा खूबसूरत होना”।
यह सोच कर वह कुछ कहने के लिए छटपटाई लेकिन उसके सचेत मन ने जिह्वा को तुरंत रोक दिया क्यों कि आज के दिन वह किसी वाद-विवाद वाली स्थिति मैं पड़ना नहीं चाहती थी।  उसने जतिन की तीखी प्रतिक्रिया से बचने की भरसक कोशिश करते हुए  संयत स्वर में  कहा ।”जतिन तुम भी ना, कुछ भी बोलते हो । फिर सेंडिल को अपने पैर में चढ़ाते हुए बोली तुम्हारा लंच तैयार है। ऑफिस निकलते वक्त मेज से उठा लेना अगर भूले तो भूखे रहने के लिए तैयार रहना पड़ेगा । जतिन उसकी बातों को अनसुना करता हुआ व्यंग से मुस्कुराया ओर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर ढीठता से बैठते हुए  बोला अब तो मैडम जी हमारी बात का जवाब भी नहीं देती।
तनवी के आगे बढ़ते कदम झटके से रुके गुलाबी मुखड़ा कुछ रक्तिम हुआ कजरारी आखों में उबलकर छनका पानी गर्म तेल की तरह उसके कलेजे को तिलमिलहाट से भर गया वह  तड़पकर पलटी और चीख कर बोली कितनी बार कहा है। मुझे ऑफिस जाते वक्त नहीं छेड़ा करो । पर आपको जीवन का सारा सुख मुझे ताने मार कर ही मिलता है । मैं भी कितनी मूर्ख हूं रोज- रोज तुमसे माथापच्ची करके ऑफिस को लेट हो जाती हूं। मैं जितना बात को टालने की कोशिश करती हूं, आप उतना ही  बढ़ाते जाते हो आखिर चाहते क्या हो?… जतिन.. थोड़ा आक्रामक अंदाज दिखाते हुए बोला, लो मैंने ऐसा क्या कह दिया?.. जो इतनी बौखलाई हो मैं तो सिर्फ इतना कह रहा था इतनी सजधज कर जाती ही क्यों हो?.. जो कोई तुम्हारी ओर देखे। तनवी क्रोध को काबू करते हुए बोली ठीक है आप ही बने रहिए जोगी- सन्यासी पहन कर जाइए गेरुआ कपड़े
समझ नही आता हर वक्त कड़वी बात ही क्यों करते है।  और जब इतना डर है की मेरी बीबी को कोई ना देखे, तो मुझे बैठकर क्यों नहीं खिलाते ?..  नौकरी वाली बीवी भी चाहिए और मन मुताबिक नाचती गुड़िया भी यह कैसे संभव है। अब मैं जा रही हूं। जो दिल में आए करो  यह कहकर तनवी तेजी से  घर से बाहर निकल गई ।
सड़क पर बढ़ते हुए उसके तेज कदम अपनी चौकन्नी आंखों से ऑटो रिक्शे को ढूंढ रहे थे तभी एक खाली ऑटो रिक्शा वहां से गुजरा उसने हवा में हाथ लहराते हुए कहा ये ऑटो वाले भाई न्यू बस स्टेंड के आगे आदिम जाति कल्याण विभाग के ऑफिस तक चलोगे?.. ऑटो वाले ने पान की पीक को पिच से बगल में थूका और बोला अस्सी रुपया लगेगा मेम साहब वह चिढ़ कर बोली इतनी- सी- दूर का अस्सी रुपए!..क्यों मजबूरी का फायदा उठाते हो चालीस रुपए लगते है। बस रोज पांच रुपए में पहुंचाती है । वो तो आज हमको देर हो गई जिससे बस छूट गई है। हम तो चालीस ही देंगे, ऑटो वाले ने ऑटो स्टार्ट करते हुए कहा आपकी मर्जी. तनवी तेजी से आगे बढ़ती हुई बोली अच्छा रुको !..ना तुम्हारी रही ना हमारी!..मै साठ रुपए दूंगी यह कहते हुए वह ऑटो में बैठने लगी ऑटो वाले ने  पलट कर देखा ओर उसे लेकर आगे चल दिया।
ऑटो की रफ्तार ओर तनवी के विचार द्रुत गति से भाग रहे थे।
वह सोचने लगी  किसी ना किसी कारण से रोज लेट हो जाती हूं।  बॉस की चौकस निगाहें भी इसी इंतजार में रहती हैं कि कब गलती हो और उसे  खिंचाई करने का मौका मिले।
फिर आज तो वह पूरा आधा घंटा लेट हो गई है। खैर अब जो होगा देखा जाएगा!…
मेम साहब उतारिए सुनकर चौंक कर तनवी ने देखा उसका ऑफिस आ गया है। जल्दी- जल्दी पैसे देकर ऑफिस पहुंची
सभी की निगाहें एक साथ उस पर उठ गईं।
कुछ मुस्कुराईं ,कुछ सिकुड़कर वापस फैल गई ,कुछ ने आखों ही आखों में प्रश्न दाग दिए ,कुछ सहकर्मी हंस कर बोल ही दिए चलो भाई अब तैयार हो जाओ पेशी के लिए। उसने सभी को नजरंदाज करते हुए अपनी टेबिल की तरफ बढ़ना ही उचित समझा ।तभी चपरासी ने आकर कहा मैडम आपको बॉस ने केविन में बुलाया है फुसफुस की आवाज ओर मैले दांतों की चुभन से बचते हुए वह केविन की तरफ चल दी ऑफिस के अंदर घुसते ही बॉस ने व्यंगात्मक लहजे में कहा आप ही बता दीजिए तनवी जी आप चाहती क्या है। ऑफिस आपका घर है!. जो जब इच्छा हो तब आएं और जब इच्छा हो तब चली जाएं।
या वक्त पर ना आने की कसम खा रखी है आपने ।दूसरे कर्मचारी भी तो  वक्त से आते हैं, वक्त पर जाते है। उनका भी अपना घर गृहस्थी है, बच्चे है, कल से सब तुम्हारी तरह लेट- लतीफ करें तो चल गया ऑफिस। आगे से ध्यान रखिए!. और फिर हम तो आप को पहले से ही दूसरों से ज्यादा छूट देकर रखते है। फिर पैनी निगाह से देखते हुए बोले अरे महिला होने का कुछ तो फायदा लेना बनाता है। और वो हम आपको देते ही रहते है । बताओ कोई शक है क्या आपको!.. यह सुनकर तनवी ने जैसे ही निगाहें उठाई वह बॉस की शरीर के अंदर तक भेदती आखों का सामना नहीं कर सकी,इसलिए तुरंत अपनी आखों को नीचे झुकाकर सॉरी कहकर वापस अपनी कुर्सी पर जाकर बैठ गई।
वह अच्छी तरह जानती थी जो कलीग अभी मुंह छुपा कर उसका मजा ले रहे हैं बाद में यही सब उसके हितेषी बनने की कोशिश करेंगे ।तभी बनर्जी बाबू ने हमदर्दी भरे अंदाज में कहा, अरे मंगू!..जरा तनवी मैडम को चाय पिलवा दो!.. नाराज हो गईं है!.. गर्मी को गर्मी मरती है। चाय पीकर ठंडी हो जायेगी ।सभी लोग ठठ्ठामार कर हंस पड़े ।
एक अजीब सी कसमसाहट के साथ जब उसने नजरें उठाकर देखा तो सभी की नजरें उसी पर गड़ी हुई थीं ।आखिर पूरे स्टाफ में वह एक अकेली ही तो महिला थी उसकी न्युक्ति आदिम जाति कल्याण विभाग में  फील्ड आफिसर के लिए नई – नई ही हुई थी  इतने पुरुषों में एक मात्र महिला अधिकारी का होना उसको अक्सर ही असहज कर देता था ।उसने इंकार में सर हिलाते हुए कहा नहीं बनर्जी सर अभी तो घर से आई हूं अभी कुछ नही चलेगा चाय भी नहीं।फिर अपने काम में मशगूल होने की असफल कोशिश करने लगी।
तनवी के हाथ की कलम आखों के सामने की फाइल में लिखे शब्द मन में उठते बवंडर के सैलाब सब एक साथ गड्डम्ड हो रहे थे । वह सोचने लगी  मंगू का मन भी ऑफिस के कामों में कम और वहां चल रहे वार्तालाप में ज्यादा लगता है। साथ ही बेचारी दमयंती जो चाय बनाने का काम करती है।उससे हंसी ठिठोली करके तो हर कोई अपना मन बहला लेता। जैसे दमयंती ना हो नवाबों की नगरी में मन बहलाने का कोई साधन  हो। तभी उसे सुजीत की आवाज सुनाई पड़ी जो बड़े रहस्यमई अंदाज में बोल रहा था  मालूम है अखिल भाई आजकल दिलीप भाई की पांचों नहीं दसों अंगुलिया घी मैं डूबी हुई है। अखिल चौंकते हुए क्यों भाई ?..सुजीत मुस्कुराकर अरे यार!… भाभी जी मायके गई है ना तो खूब मजे हैं उनके जब तक भाभी जी ना आए जो भी मिल जाए…..बाकी शब्द हवा में खो गए ,तनवी के कान गर्म होकर तपने लगे ओर आखों की कोर अपमान से सुर्ख  हो गई।सुजीत ने एक हाथ कुर्सी के हत्थे पर फेरते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा आजकल जो ना हो वही थोड़ा है।गोस्वामी जी ,ने हंसते हुए कहा तुम लोगों की बकवास खत्म हो गई हो तो सबकी चाय बनवा ले!.. मंगू!.. दमयंती से कहकर!..चाय बनवा ले सब की।
मंगू ने  दमयंती को ऑडर थमा दिया दंटी सब की चाय का टैम हो गवा जल्दी से चाय बना दो ।तनवी अपने आप को बड़ा असहज महसूस कर रही थी उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी विषम परिस्थिति में वह कैसे बैठी रहे सबको अपनी बातों में तल्लीन छोड़ कर खड़ी होती हुई बोली सर मैं अभी आती हूं। एस. टी. ऑफिस तक जाना है तक जाना है। थोड़ा काम है। ऐसा कहती हुई इस असामान्य परिस्थितियों से बाहर निकल आई ।
अपने गंतव्य की ओर चलते हुए उसके पैर विचारों के प्रवाह में संवेगो की उत्तेजना पैदा कर रहे थे। व्यथित मन जीर्णशीर्ण बुजुर्ग की तरह अपनी मुक्ति मार्ग की तलाश में अपने आप को आत्मरक्षित करने में लगा था। सरकारी नौकरी प्राप्त करने में उसे जितनी परेशानी नहीं हुई उससे भी ज्यादा कठिनाइयों ओर  परेशानी का सामना करके वह अपनी नौकरी को बचाए हुए है।
इन्हीं विषम परिस्थितियों के बीच से निकलकर उसे करनी पड़ती है  अपने स्वाभिमान की रक्षा। उसी के साथ उसे बचाना पड़ता है अपना अस्तित्व, घर- परिवार,पति का विश्वास उसकी शंकाओं का समाधान। उफ कैसे करे इतने बचाव वह एक साथ?.. कैसे होने दे अपने अंदर की नारी का मर्दन,  कैसे अपनी स्त्री सुलभ कमजोरी ,लज्जा,शर्म,हया या सर्वांग सुंदरी बने रहने का गौरव छोड़ दे वह । उसके मन की पीड़ा को कोई क्यों नहीं समझता । क्यों नहीं समझता उसकी भावनाओं को  उसके मान – सम्मान को, *शब्दों का हेरफेर कर उसे निशाना बनाने से किसी को क्या हासिल होगा”। आखिर कब तक एक निरीह प्राणी की तरह सबकी बातों को नजरअंदाज करती रहे वह, करे तो आखिर क्या?..अपने मन की व्यथा किस से कहें?.. जतिन से जो उसके पैसों की तो चाह रखता है पर अपनी तीक्ष्ण नजरों और व्यंग बाणों से उसे घायल करता रहता है ।
मन की शांति कहां और कैसे प्राप्त होगी ?. लगभग रोज ही घर से तकरार के बाद निकलती है। उस बॉस पर विश्वास कैसे करे जो बिन पेंदी का लोटा है। सब की मिली भगत में रहता है। या शब्दभेदी बाण मारने वाले इन “घर परिवार वाले लोगों से” जो इंसानियत का पाठ अपनी बीबी,बहन और बेटी के लिए अपने घर पर ही छोड़ कर आते हैं” या दमयंती जैसी ऐसी औरतों से जो नारी की मर्यादा को कलंकित करने में जरा भी नहीं चूकती वे अपना मान-सम्मान तो खोती ही है । साथ ही नारी की महत्ता को भी कलंकित करती हैं। इसीलिए पुरुष हर किसी को एक ही नजर से देखता है आसानी से हासिल हो जाने वाली वस्तु के रूप में। क्या अपनी नौकरी या छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी है अपने अफसरों की चाकरी के साथ-साथ उनकी नाजायज मांगों को भी माना जाए ?..उसके बदले में कुछ पैसे पाना या कोई दूसरी इच्छित इच्छा का पूरा हो जाने में ही  जीवन की सार्थकता है । अभी कुछ दिन पहले की दमयंती बता रही थी कि मैडम जी लघुउद्योग विभाग के ऑफिस में जो रामकली है। उसने जुगाड़ करके एक प्लॉट ले लिया अपने साहब से। उसके साहब भी बड़े दिलदार हैं, मैं  क्या जवाब देती एक गहरी सांस लेकर कह उठी छोड़ो दमयंती ऐसी बातें नहीं करते। लेकिन मेरा दिमाग मथानी की तरह मथ गया सोचने लगी क्या लेवर क्लास की नियुक्ति अफसरों द्वारा शोषण करने के लिए होती है ?.जो उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर उनकी मदद करने के बहाने अपने अवांछित इच्छा को पूरा करने से नहीं चूकते। ऑफिस तक पहुंचते-पहुंचते तनवी अपने को संतुलित करने की नाकामयाब कोशिश कर रही थी आज सुबह से उखड़ा मूड संयत होने का नाम ही नही ले रहा था ।सामने खड़े दरबान को देखकर वह थोड़ा रुकी अपना एक बार व्यवस्थित मुआयना करके दरबान से बोली क्यों .साहब है। दरबान ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोला आप बैठे मैं पूछ कर बताता हूं। सोचने लगी सिर्फ एक दस्तखत के लिए साहब उसे पांच से छः बार बुला चुके हैं। और हर बार कुछ ना कुछ बहाना करके टाल देते हैं। पर यहां- वहां की बातें करने में जरा भी नहीं चूकते  पूरा बायोडाटा निकाल लेते हैं। समझ में नहीं आता क्या चाहते हैं?। उस दिन तो रात को 11:00 बजे व्हाट्सएप पर मैसेज कर दिया आप कैसी हैं?.. वह तो जतिन की निगाह नहीं पड़ी नहीं तो बिना कारण का हंगामा हो जाता। अरे मैं कोई फ्रेंड थोड़ी हूं ।कलीग हूं आपको वैसा ही व्यवहार शोभा देता है। मेरा पूरा बायोडाटा लेने की क्या जरूरत है?।आज चाहे कुछ भी हो जाए काम हो या ना हो पर आज के बाद नहीं आऊंगी यहां।
बस आउट- पुट ही तो पूरा नहीं दे पाऊंगी ना!..ना सही!.. प्रमोशन  रुकता है तो रुक जाए चिंता नहीं। सोच ही रही थी कि अर्दली ने आकर कहा साहब ने बुलाया है आपको।वह जैसे ही अंदर पहुंची साहब मुस्कुरा कर बोले आइए- आइए तनवी जी कैसी हैं आप ?..बड़े ही ठंडे लहजे में बोली ठीक हूं सर आप यहां साइन कर देंगे तो उस गरीब आदमी का भला हो जाएगा। साहब बड़ी ही भेदक मुस्कान से साथ बोले मैडम मैंने तो बहुत कोशिश की कि आपका काम हो जाए और आपको प्रमोशन भी मिल जाए मैं आपके कुछ काम आ  सकूं लेकिन क्या करूं काफी कोशिशों के बाद भी यह काम नहीं कर सकता माफ करिए आप के पेपर पूरे नहीं है मुझे अपनी नौकरी का भी ख्याल है ।फिर आप खुद समझदार है। वह एक पल के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रही फिर जी सर कहकर अपने मजबूत पैरों पर खड़ी होकर चल दी यह सोचते हुए कैसे खत्म होगी उसकी ऑफिस से ऑफिस तक की ये यात्रा क्या अपने कांधे पर उठा पाएगी बोझ इस शारीरिक असमानता का  आखिरी पड़ाव पर आने वाला उसका घर दे पाएगा उसको आत्मबल का संरक्षण मानसिक शांति के साथ ।या देती रहेगी आज भी वह पग- पग पर अग्निपरीक्षा।
रेखा दुबे
विदिशा

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