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डॉ. दीक्षा चौबे की कहानी बड़ी माँ

आयुष की बारात निकलने को थी और उसे बड़ी माँ कहीं नज़र नहीं आ रही थी । आज काफी देर से उसे बड़ी माँ की कमी महसूस हो रही थी । बड़ी माँ…जो हर वक्त उसके आस – पास ही रहती है.. उसकी जरूरत की सभी चीजें उसके बोलने से पहले ही उस तक पहुँच जाती थी.. कई बार आश्चर्य होता पता नहीं कैसे माँ उसके मन की बात समझ जाती है । एक निश्चिंतता सी मन में रहती थी कि कुछ भी हो बड़ी माँ सम्भाल लेगी और आज जब उसके जीवन का इतना महत्वपूर्ण क्षण है…उसे कई चीजें समय पर मिल नहीं रही थीं और बारात निकलने के पहले की जाने वाली रस्मों के लिये आरती की थाल लिये छोटी माँ खड़ी थी । शायद मुझसे कुछ छिपाया जा रहा है ..कुछ तो गड़बड़ है । उसने प्रश्नवाचक   नजरों  से छोटी माँ और वहाँ उपस्थित अन्य भाई – बहनों से पूछा था …बड़ी माँ  कहाँ है ? ….न चाहते हुए भी उसे बड़ी माँ  के बेहोश होकर गिर जाने और बीमार पड़ जाने की बात बताई गई ।
     आयुष अपनी शेरवानी , सेहरा सम्भालते हुए लगभग दौड़ते हुए बड़ी माँ के कमरे की ओर भागा और बच्चे की तरह माँ से लिपट गया । बिस्तर पर लेटी बड़ी माँ  बहुत कमजोर लग रही थी मानों बरसों से बीमार हो । आयुष को सम्भालते हुए उसका हाथ थाम बड़े प्यार से बोली…क्यों घबराता है , मुझे कुछ नहीं हुआ है । वो तो तेरी शादी की तैयारियों में मैंने अपने खान – पान पर थोड़ा ध्यान नहीं दिया…बस इसीलिए बेहोश हो गई । बस थकान है , आराम करने से ठीक हो जाऊँगी । तू निश्चिन्ततापूर्वक , खुशी – खुशी जा और अपनी चाँद सी दुल्हन लेकर घर आ। आ…तेरा माथा चूम लूँ । बड़ी माँ के उस प्यार भरे स्पर्श ने उसे सदैव ही एक नई ऊष्मा प्रदान की है… हर परीक्षा के लिए जाते वक्त वह उनका आशीर्वाद लेना नहीं भूलता था…फिर आज उन्हें देखे बिना , उनके आशीर्वाद के बिना कैसे निकल जाता । रुँधे गले से बस इतना ही कह पाया…सारी रस्में तो आपको ही करनी होगी चाहे बिस्तर पर लेटकर ही सही …और अपने बेटे के इस शिकवे पर निहाल हो माँ उसकी बलैया ले रही थी… अपने लाडले को काजल का दिठौना लगाया …तिलक लगाकर आरती उतारी…उसके माथे पर आँचल फेरा और आशीषों की झड़ी लगा दी ।
          सारा समुदाय माँ – बेटे के इस अनोखे प्रेम को देखकर विस्मित था..क्या कोई कह सकता था कि इस माँ ने अपने पुत्र को नौ माह अपनी  कोख में नहीं रखा..
उसे जन्म नहीं दिया…माँ – बेटे के बीच गर्भनाल का सम्बंध न होने पर भी वात्सल्य भाव में कोई कमी नहीं आ सकती । कृष्ण और यशोदा का प्रेम शाश्वत है , माता यशोदा ने कृष्ण को जन्म नहीं दिया पर जब भी माँ – बेटे के प्रेम की बात होती है उन्हीं की मिसाल दी जाती है । बच्चे को जन्म देने से बढ़कर है अपने स्नेह व वात्सल्य से सींच कर उसका पालन – पोषण करना  । सच्चे प्रेम को अंकुरित होने के लिए निश्छल ,विशाल हृदय की धरा होनी चाहिए …त्याग व समर्पण की भावना का सिंचन होना चाहिए… आज आयुष ने माँ को सम्मान देकर अपना फर्ज निभा दिया था.. पुत्र-प्रेम की गर्वीली मुस्कान ने उस बीमार माँ के चेहरे पर एक अनोखी आभा ला दी थी ।
     छोटी माँ  अर्थात अनुभा …जिसने आयुष को जन्म दिया था… नम आँखों से माँ – बेटे के वात्सल्य को देख रही थी… मन का कोई कोना उपेक्षित भी महसूस कर रहा था पर इन सब के लिए वह स्वयं जिम्मेदार थी ।
        बड़ी माँ यानी कि राधा चौधरी परिवार की बड़ी बहू बनकर आई थी…आते ही  उसने सास – ससुर , तीन भाई और दो बहनों युक्त इस भरे – पूरे परिवार की सारी जिम्मेदारी संभाल ली । सास – ससुर की जी जान से सेवा की… देवर – ननदों की हर जरूरत का ख्याल रखा। देवर – ननद का विवाह किया…उनकी सारी रस्में बहुत मन लगाकर निभाया…लेन देन , स्वागत – सत्कार किसी भी चीज में कमी नहीं रखी । इतना अधिक दिया कि वे गदगद हो गए । ईश्वर की कृपा से चौधरी परिवार में सम्पत्ति की कमी नहीं थी परन्तु बाँटने के लिए सम्पत्ति के साथ – साथ उदारमना हृदय की आवश्यकता होती है और राधा की उदार प्रवृत्ति ने सारे रिश्तों को स्नेह के धागों में कसकर बाँध दिया था..इतना अधिक कि आत्मनिर्भर होने के बाद भी कभी देवरों ने अलग रहने के बारे में सोचा ही नहीं ।देवरानियों को शुरुआत में जेठानी की सर्वाधिक पूछ – परख खली..परन्तु उनकी बीमारी हो या बच्चों का जन्म ,  उनकी देखभाल ..हर जगह बड़ी माँ समर्पित भाव से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही …समय के साथ उन्होंने भी अपनी जेठानी के सोने से खरे हृदय की पहचान कर ली और उन्हीं की होकर रह गई ।
               राधा के जीवन में बस एक ही कमी थी
उन्हें सन्तान सुख न मिल पाया..जिसके दिल में वात्सल्य का समन्दर लहरा रहा था …उसकी गोद अभी तक सूनी थी । अपनी सारी ममता अडोस – पड़ोस , देवर के बच्चों पर लुटाती राधा कई बार बहुत ही अकेलापन महसूस करती । अपने पति व सास – ससुर की उदासी उनसे देखी नहीं गई और वह अपने पति योगराज चौधरी से दूसरा विवाह कर लेने की जिद करने लगी । पति के जीवन की यह कमी दूर करने के लिए वह सारी तकलीफें झेलने को तैयार थीं..यहाँ तक कि अपने पति का प्यार बाँटने को भी..परन्तु योगराज चौधरी इसके लिए तैयार नहीं थे । वह राधा के जीवन में कोई तूफान नहीं लाना चाहते थे न ही घर की सुख – शांति भंग करना चाहते थे । अब इस उम्र में क्या विवाह करना..फिर घर में भाइयों के बच्चे तो हैं ना ..पर सेवाभावी राधा की उत्कट इच्छा ने उन्हें मजबूर कर दिया और अनुभा दूसरी पत्नी के रूप में उनके जीवन में आ गई । स्त्री का हृदय इतना गहरा , इतना विशाल होता है कि दर्द के छोटे – मोटे पत्थर उसके जल को मटमैला नहीं कर सकते । पति के सुख के लिए राधा ने अपने प्यार का बंटवारा किया , अधिकारों का समर्पण किया और सामंजस्य का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए खुले दिल से अपनी गृहस्थी में अनुभा का स्वागत किया । उसने अकेलेपन का दंश झेलते हुए भी दर्द की एक लकीर अपने चेहरे पर नहीं आने दिया और वैसे ही हँसती हुई अपने दायित्वों का निर्वहन करती रही । जहाँ निःस्वार्थ सेवा , आत्मसमर्पण होता है वहाँ असन्तोष के लिए कोई स्थान नहीं रहता है । उनके बीच कोई तनाव नहीं , कोई उलझन नहीं..किसी बाहरी व्यक्ति को तो पता ही नहीं चलता कि योगराज की दो पत्नियाँ हैं।
       शीघ्र ही अनुभा दो बेटों की माँ बन गई..वह एक छोटे परिवार से आई थी जहाँ उसने सुख – वैभव देखा ही नहीं था…इस वैभवशाली , सम्पन्न परिवार को उत्तराधिकारी प्रदान कर वह अपने आपको श्रेष्ठ मानने लगी थी  और  इस अहंकार में राधा की उपेक्षा करने लगी थी …परन्तु वह यह भूल गई कि उसे यहाँ लाने वाली राधा ही थी । हाँ , उसकी जिम्मेदारी को कभी उसने बाँटने का प्रयास भी नहीं किया.. वह जीवन के सुखों का उपभोग करना चाहती थी..अपने विश्राम में उसके अपने बच्चे बाधा बन जाते तो उनकी देखभाल में भी लापरवाही बरतने लगी…राधा ने उसकी यह जिम्मेदारी भी खुशी से अपना लिया…उसने देवर के बच्चों को खूब प्यार दिया फिर ये तो उसके अपने पति के बच्चे थे …बच्चों की परवरिश के लिए उसने अपने आपको समर्पित कर दिया.. बच्चे दिन भर उसी के साथ रहते.. दिन भर बड़ी माँ की ही पुकार लगती रहती..,पढ़ने की , खाने की..उनकी कोई भी जरूरत होती तो उसका इंतजाम बड़ी माँ ही करती
बड़ी माँ के प्यार ने बच्चों को यह भुला दिया कि उन्होंने उनकी कोख से जन्म नहीं लिया है । राधा ने बच्चों को अच्छे संस्कार , अच्छी शिक्षा प्रदान की थी..उनके व्यवहार में राधा का संस्कार झलकता था…जब कोई बच्चों के व्यवहार की तारीफ करता कि ये तो अपनी बड़ी माँ पर गए हैं.. राधा को लगता ..उसकी परवरिश सार्थक हो गई । अनुभा के बेटों वाली होने के अहंकार को पूरे परिवार , रिश्तेदारों ने नकार दिया और उसकी महत्ता पाने के हर तर्क को खारिज कर दिया… जिस स्थान को राधा ने अपने मधुर व्यवहार , अपनी सेवा ,त्याग , समर्पण से प्राप्त किया था..उसे महज बेटों को जन्म देने के कारण अनुभा कैसे प्राप्त कर सकती थी पर हाँ.. राधा का भरपूर स्नेह उसे अवश्य मिला ।क्योंकि उसकी वजह से राधा  को बच्चों का निश्छल प्रेम मिला था और वह सचमुच में माँ बन गई थी , उन्हें  बिना  जन्म दिए…वह  सन्तानहीन नहीं  थी …वह थी ममता से भरी…प्यारी माँ और निर्विरोध सबने इसे स्वीकार कर लिया था ।
         खुशी-खुशी बेटे की बारात को विदा करने के लिए ही मानो राधा के प्राण अटके हुए थे। मांगलिक कार्य में विघ्न न हो यह सोचकर एक दृढ़प्रतिज्ञ माँ यम से रार ठाने बैठी थी । अपनी झोली में जीवन भर अर्जित किया मान-सम्मान, बड़ों का स्नेह, बच्चों का लाड़-दुलार, पति का प्यार भरकर राधा अंतिम सफर पर चल पड़ी थी.. पीछे छोड़ गई रोता-बिलखता परिवार और अपनी कर्मनिष्ठ व अच्छाई का उजाला।
 डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग  , छत्तीसगढ़
491001
फोन 9424132359

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