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बचपन हर गम से बेगाना होता है-सीमा

बच्चे तो बचपन में ढ़ेरो शरारतें करते हैं।  बचपन भले ही धीरे-धीरे  हाथों से फिसलता जाता है, पर यादें वहीं रह जाती है। आज उन्हीं शरारतों के खजाने में से एक यादें निकाल कर लाई हूँ। भादो का महीना था और तीज व्रत की तैयारी जोर शोर से हो रही थी। मै तीज के  एक दिन पहले, गुजिया,खजूर,मैदे की पूरी सभी पहले बनाकर पलंग के नीचे छुपा कर रख दी थी  ताकि बच्चे जूठा ना कर सके। तभी मेरी तीन साल की छोटी बेटी,वर्षा दौड़ती हुई मेरे पास आई और गले में झूल कर बोली- माँ, “मुझे भी प्रसाद दे दो ना,खाना है” । मैंने उसे बड़े प्यार से समझाया कि “नहीं बेटा!कल पूजा के बाद सभी को प्रसाद मिलेगा, तभी खाना”… आज खाओगी तो जूठा हो जाएगा।  उस समय तो वर्षा समझ गई पर पड़ोस के  बच्चों को खाते देखकर वह फिर से मचल उठी। ( आस-पड़ोस के घरों में उसकी नानी के घर से  तीज  आने की प्रथा थी ।तीज दो दिन पहले ही आ जाता था। तीज में साड़ी, श्रृंगार का सामान और गुझिया,मिठाई सबकुछ मायके से लड़की के लिये आता हैं।) वही सारे बच्चे घूम-घूम कर खा रहे थे पर मेरे नसीब में ये सुख नहीं था क्योंकि मेरे मायके में मेरी माँ हीं नहीं थी।
” वर्षा फिर से मुझसे जिद करने लगी कि उसे प्रसाद खाना ही है।” तंग आकर मैंने कह दिया कि मैंने बनाया ही नहीं है, बगल वाली आंटी सारा लेकर चली गई। बिटिया फिर से समझ गई पर उसके अंदर कुछ चल रहा था।शाम को बाहर बरामदे में सारे बच्चे खेल रहे थे। मैं रात के भोजन की तैयारी में व्यस्त हो गई।एक घंटे बाद बाहर जाकर देखा तो वर्षा वहाँ पर नहीं थी।मैंने पड़ोस में सभी से पूछा- “वर्षा आपके घर गई है क्या”?  पर हर जगह से निराशाजनक उत्तर ही मिला कि वह यहाँ पर नहीं आई है।  मेरे घर में कोहराम मच गया।पति महोदय अलग परेशान होकर सारा भड़ास मेरे ऊपर निकाल रहे थे कि तुम एक छोटे बच्चे का भी ख्याल नहीं रख सकती हो।

 ढूंढते- ढूंढते रात के दस बज गए । पति थक हारकर पुलिस स्टेशन की ओर रुख कर गए।मेरा भी रो-रो कर बुरा हाल था।पड़ोस की सभी महिलाएं और बच्चे मेरे घर में इकट्ठे हो गए।  सारे बच्चे भी वर्षा को इधर-उधर ढूंढ रहे थे। तभी एक बच्चे की नजर मेरे घर में पलंग के नीचे पड़ी। और वह जोर-जोर से ताली बजाकर हंसने लगा।   “वर्षा मिल गई वर्षा मिल गई” । अब मुझे सारा माजरा समझ में आ गया था कि प्रसाद खाने के क्रम में हीं  वर्षा को वहीं पर नींद आ गई थी। पता नहीं थकान था या मेरा डर।  उसे देखते हैं मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और मैं दौड़कर उसे सीने से लगा ली। अब खुशी के आंसू मेरी आँखों से बह रहे थे। उस दिन के बाद मैं जब भी तीज के प्रसाद बनाती हूँ तो थोड़ा सा प्रसाद अलग से भी बना देती हूँ ताकि ये नौबत फिर कभी दोबारा ना आए। हर साल तीज में उस वाकये को याद कर के हम लोगों की हंसी नहीं रुकती है।

सीमा रानी 
पटना

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