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शहीद की माँ बनाम पत्नी-आशा


जाके पैर ना फटे बिवाई वह क्या जाने पीर पराई। सच्च ही कहा है किसी ने, जिसे चोट लगती है उसे ही तकलीफ का एहसास होता है दूसरा कोई दर्द का एहसास नहीं कर सकता। उसी तरह जिस परिवार ने अपने बेटे को, अपने पति को देश की रक्षा के लिए कुर्बान कर दिया हो, उनकी पीर भला एक आम इंसान क्या जाने? अब यह जो जवानों के शहीद होने के बाद उनके परिवार में मतभेद हो रहे हैं कि मुआवजा किसे मिलना चाहिए मां को या पत्नी को, यह सरासर कष्टप्रद है। कहते हैं न कि पैसा ही सारे झगड़े की जड़ है। एक मां अपने कलेजे के टुकड़े को दिल पर पत्थर रख भेज देती है देश की रक्षा के लिए, कुर्बान कर देती है। दूसरी तरफ वह दुल्हन होती है उसकी पत्नी, जो खुशी-खुशी जवान को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लेती है। अब प्रश्न यह उठता है कि इसमें किसका सबसे बड़ा योगदान है? मां का अधिकार इसलिए कि उसने बेटे को जन्म दिया और देश की रक्षा हेतु कुर्बान किया, दूसरी तरफ शहीद की पत्नी जिसकी दुनिया ही उसका पति होता है और उसके न रहने पर वो बेसहारा हो जाती है।
कुछ भी निर्णय करने से पहले सरकार को पारिवारिक पहलुओं पर ध्यान देना होगा। यदि पत्नी को अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभानी है तो मुआवजा उसे मिले और यदि मां का शहीद बेटे के सिवाय कोई सहारा न हो तो मां का भी मुआवजे पर अधिकार बनता है, वर्ना तो पैसों के लिए छल-बल अपनाकर पारिवारिक रिश्तों में खटास आ ही जाती है।

आशा गुप्ता ‘आशु’, पोर्ट ब्लेयर, अंडमान द्वीप समूह

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