ठेका शरणम गच्छामि -रामभोले शर्मा

त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को पोषित करने आते है।जिनके मूल मे स्वच्छता, पवित्रता, नवीनता, चेतनता, मानवता, सामाजिकता, धार्मिकता और बन्धुत्व जैसे भाव निहित होते हैं।हिन्दू धर्म के त्योहारों में होली का नाम उल्लेखनीय है।हालाँकि होली पूर्णिमा को होने वाला रंगों और खुशियों का त्योहार है किन्तु अब ये बेवड़ों के त्योहार के नाम से कुख्यात हो रहा है।चार पैसे कमाने  दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रदेशों को गए लोगों को मार्च लगते ही अपने खेत,लहसुनिया चटनी संग भुने आलू,चने/मटर का होला,औंधा की भुनी शकरकन्दें,पोर पर दोहा वाले किस्से, फ़ाग,भजन,दुगियाँ,पचकंडी और किसी की लकड़ी को रात में चुराकर होली पर डालने में होने वाली परमानन्दीय अनुभूतियां मन को रंगने लगती है।फिर तो प्रतिपल एक अज्ञात शक्ति मातृभूमि की ओर बरबस खींचने लगती है।परिणामस्वरूप खचाखच भरी रेलगाड़ियां और छतों तक सवारियों से लदी बसों के दर्शन इन दिनों आम बात हो जाती हैं।नन्हें,बबलू,पप्पू,निहोरे कल कई महीने बाद घर लौटे हैं।लश्करी दद्दा (जो कि दलित बिरादरी से हैं)का लड़का जोधन दिल्ली से आज सवेरे ढिलुआ का पूरा ताँगा बुक करके गाँव आया है।जोधन साढ़े पांच फीट का गेहुआँ रंग ,गोल चेहरे ,बड़ी,-बड़ी आंखें और काले बालों वाला आकर्षक नौजवान है।दो-तीन अटैचियों के अलावा अन्य सामान से ताँगा भरा हुआ है।जोधन के शरीर पर डिजाइनर टी शर्ट,घुटनों पर फ़टी नई जीन्स पैंट, आंखों पर काला चश्मा और सिर पर अंपायर ब्रांड टोपी शोभायमान है।मुँह में थोक भाव में ठुंसे गुटखे की जुगाली का कार्यक्रम लगातार मृदाप्रदूषण की तरह जारी है जिसकी वजह से दांतों पर गुटखीय कालिख पुती हुई है।दाएँ करकमल में हैंडग्रेनेड की तरह विद्यमान चिपयुक्त वूफर(स्टीरियो साउंड )में धड़कता- फड़कता भोजपुरी लोकगीत ‘हज़ारा देवै गोरी’गुंजायमान है।गुलाबी नेत्रधारी जोधन लहराते हुए उतरे और दो सौ का नोट ढिलुआ को थमाते हुए खड़ी बोली में जमीदराना अंदाज़ में बोले- “और कोई कमी हो तो बताना।”देखने वाले समझ रहे हैं कि पट्ठा समुद्र मंथन से निकले चौदहवें रत्न के कम से कम दो पौवों का हरपालपुर बस अड्डे से ही आचमन करके पधार रहा है।समले चच्चा ने धीमी आवाज में अभिनेता जीवन छाप दृष्टिपात करते हुए श्रीमान जोधन पर लौकोक्तिक व्यंगबाण छोड़ा…..गगरी में दाना..चालि उताना।दरअसल लश्करी के पास एक बीघा ही खेत है और पांच बच्चे हैं जिनमें तीन बेटियां और दो बेटे हैं।जोधन सबमें बड़ा है।वे थोड़ी बहुत बटाई खेती कर लेते हैं जिससे जीवनयापन होता रहता है।जोधन से छोटी बेटी मीना है जो अब बड़ी हो रही है अतः उसकी शादी के लिए भी चिन्ता होना स्वाभाविक है।इस मंहगाई के जमाने में दो- ढाई लाख में लगता ही क्या है।जोधन दसवीं कक्षा में फेल होने के बाद पुनः स्कूल दर्शन करने नहीं गया।गांव के लड़कों के साथ दिन भर लकड़ी (एक प्रकार का ताशों का खेल)खेलना और शाम को मित्रमण्डली के साथ ठेका शरणम गच्छामि होने लगा। ये देखकर लश्करी ने एक दिन उसे अपने एक परिचित के साथ दिल्ली भेज दिया कि चार पैसे कमाएगा और इन बबालों से भी दूर रहेगा। महताब पुरवा लटुआ बिरादरी का गाँव है।जिसमें ज्यादातर मजदूर वर्ग रहता है।शिक्षा की ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है।निठल्ले दिन भर ताश फेंटते हैं और बच्चे सुधी दर्शकों की तरह शो के अंत तक वहीं डटे रहते हैं। बच्चे अपने बड़ों से ही सीखते हैं।अतः उनकी पीढियां विरासत सम्हालने को तैयार रहती हैं।बेसिक शिक्षा का मिड डे मील,कपड़े,जूते-मोजे आदि मिलने वाली सुविधाएं भी उन्हें स्कूल की ओर आकर्षित करने नें नाकाम हैं।यूँ समझो उन्होंने कसम खा रखी है कि साक्षरता दर को देश में विकसित नहीं होने देंगे। ठीक भी है सब पढ़-लिख जाएंगे तो मजूरी कौन करेगा? पड़ोस के मिश्राने से लोग मजदूर लेने इसी पुरवा में आते हैं।ऐसा नहीं है कि वे कमाते नहीं हैं।बहुत मेहनती है।चिलचिलाती धूप या हाड़ कँपा देने वाली सर्दी, वे काम करने में कतई पीछे नहीं हटते।किन्तु इस वर्ग की सबसे बड़ी समस्या ये है कि इनके व्यसन इतने बेढब होते हैं जो उन्हें कभी पनपने ही नहीं देते।जब तक पैसा पास में है तब तक रांड़ रोटी गले के नीचे उतरना असंभव है।बकरा,मुर्गा,मछ्ली या अण्डा उनकी थाली के अनिवार्य अंग बने रहते हैं।सवेरा होते ही इन महानुभावों का कुल्ला पानी की बजाय दारू से ही शुरू होता है।फिर शाम तक ठेके से खेपें होती रहती हैं और दारू स्नान चलता रहता है जब तक उल्टी-पलटी करते हुए बेसुध न हो जाएं।करमज़लों को यही पता नहीं कि वे दारू पी रहे हैं या दारू उन्हें पी रही है।कुछ तो इतनी पी लेते हैं कि रास्ते में धरती को ही रजाई गद्दा मानकर बिस्तर लगाकर लम्बलेट हो लेते हैं।किसी भद्रजन की सूचना पर घरवाले लतियाते-गरियाते इन नवाबों को मोटरसाइकिल पर मरीजों की तरह बीच में दाबके या ठेलिया पर लाद के लाते या मंगाते हैं।
वहीं कुछ ज्यादा पी लेने के बाद अंटशंट बकते हुए अवतरित होते हैं।किसी के डाँटने पर पैर छूने लगते है और इतनी बातें करते हैं कि जी छुड़ाना मुश्किल हो जाये। वहीं एकाध मटकते हुए,अपने वर्जन में बलम पिचकारी गाते हुए जमाने को ये बताते हैं कि बॉलीवुड में अवसर नहीं मिला वरना अगले में टैलेन्ट की कोई कमी थोड़े ही रही।कुछ मुहल्लों में इन कर्णधारों के द्वारा प्रायोजित दंगल का पूरा गाँव जमा होकर आनन्द उठाता।जिसमें ये अपने माँ-बाप और रिश्तेदारों की तीन साख की सुधि ले डालते ,यहाँ तके कि मारपीट भी करने में गुरेज नहीं करते।अब कोई दारू पिए और कोई जाने भी न तो धिक्कार है ऐसे पीने वाले पर।इसी नज़ाक़त में वे नाली दर्शन,लोटन इत्यादि भी कर डालते हैं।कुछ भी हो दारू आजकल फैशन है और स्टेटस सिम्बल भी।अतः साँझ-सवेरे उनकी बैठकों में चर्चा का विषय भी दारू की गौरवगाथा ही होती है। फलनवां ने कल तीन पौवे बिना पानी मिलाये ही पी लिए।तो अगला तुरन्त उसे उसके अल्पज्ञानी होने का एहसास कराता कि तुम्हें कुछ पता भी है कि आठ तो हम लोगों ने शाम के पहले ही पी के मूत दिए थे।फिर दिनमुंदे निहोरे दद्दा ने चार और मंगवाए।फिर दस बजे चार और….।इस तरह रोज व्यसन प्रतियोगिता के सम्बंध में अपनी-अपनी शान में शेखियाँ बघारी जातीं।।कोई एक पोर पर दारू की चर्चा छेड़ता तो कोई न कोई विद्वान आँखों देखे हाल का प्रत्यक्ष कलात्मक विवेचन और प्रतिवेदन प्रस्तुत कर डालता।कि अमुक की पीने के बाद क्या दशा थी?किसने आज दिल्ली फतेह कर डाली और कौन खेत रहा?दरअसल मुफ्त में ख़ुफ़िया सूचनाएँ एकत्र करने वाले ये निठल्ले,पैसा पास न होने से मजबूरी के ईमानदार लोग हैं जोकि दिन भर ऐसी जगहों पर अड़े रहते हैं।इसी प्रकार के प्राणियों को लोग सम्भवतः विश्वस्त सूत्रों के नाम से जानते हैं। अब जिस समाज के लोगों में इस तरह की गौरवशाली प्रतियोगिताओं का आयोजन सतत जारी हो और उनके बच्चे अपने बड़ों से मिली परम्परा को अमरत्व प्रदान करने के लिए जी जान से मेहनत कर रहें वो समाज तरक्की कैसे नहीं कर सकता है?ये और बात है कि वो अभिशाप और अवनति के रूप में होती है।देश में अकुशल मानव संसाधन की आवश्यकता कल भी थी और सदैव रहेगी।मशीनें भले ही हर क्षेत्र में दखल दे रही हों लेकिन वे चलती तो मानव द्वारा ही हैं।जैसे-तैसे होली निपट गयी और अष्टमी तक इन नबावों के पास जमा पूंजी भी।अधिकतर लोग मोबाइल आदि बेचकर किराए का जुगाड़ करके फिर टिकट कटा कर अपनी -2 कर्मस्थलियों को प्रस्थान कर गए।जोधन को लश्करी ने रोक लिया क्योंकि इस बार पूरन के दस बीघा खेत में गेहूं बटाई किया था।रबी की फसलें होली के बाद पकने लगती हैं।खेतों में कटाई,खंदाई,भूसा ढुलाई आदि बहुत से काम इस समय होते हैं।मई भर में ये काम निबट गया।इसी बीच जोधन की रिश्तेदारी से लड़के के मुंडन का न्योता आया।जो लगभग छः कोस दूर सेमरा नामक गाँव में था। हनाहन स्प्रे करके स्टायलिश पोशाक धारी जोधन,गोरे मुखड़े पर काला चश्मा लगाकर अपनी दुचक्रवाहिनी से गंतव्य की ओर चल पड़े।रास्ते में मधुशाला से भेंट हुई तो निरादर करने की हिम्मत न कर पाए।दो पौवे ले डाले।एक वहीं चढ़ा लिया और दूसरा जेब के हवाले करके बोले- अब ऐसी-तैसी धूप की।खैर ग्यारह बजे सेमरा पहुंच गए।बिरादरी के अन्य लोगों से मुलाकात हुई।दो पियक्कड़ों के साथ जोधन फिर एकांतवास को निकल लिए।फिर शुरू पौवापान का दौर शरू हुआ और पट्ठों ने छः-सात के ढक्कन तो कम से कम खोल ही डाले होंगे।जैसे-तैसे खाना खाया और सबके द्वारा मना करने के बाद भी जोधन ने भरी दोपहर में निज निवास के लिए प्रस्थान कर दिया।चूंकि जोधन पहले से ही पिये था अतः अब दारू अपने फुल फॉर्म में बैटिंग करने लगी थी।जोधन को दो राहें नजर आ रही थीं। नशे ने दिमागी संतुलन डावांडोल कर दिया था।ऊपर से धूप की जला देने वाली फील्डिंग और लू के बाउंसर सीधे मुंह को निशाना बना रहे थे।बस उल्टे-सीधे पैडल मारे जा रहे थे सवार और सवारी किसी दोनों रामभरोसे थे।गला बुरी तरह सूख रहा था और दिमाग तो लग रहा था कि अब फटा-तब फटा।जैसे तैसे जोधन दो कोस की मंजिल तय करके दुरजना गाँव पहुँचा।एक घर के पास लगा नल और नीम के नीचे चारपाई देखकर,साइकिल दीवार के पास छोड़ के डगमगाते हुए खटिया के पैंताने बमुश्किल बैठ पाए। मुँह से निकला पानी…..।गृहस्वामी ने पानी देने के बजाय पूछा कौन जाति से हो?और जाति का नाम सुनते ही गरजते हुए बोले “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारी खटिया पर बैठने की?जोधन ने हाथ जोड़े और गुस्से में अपना साहस बटोर के साइकिल उठा के चल पड़े।गांव से बमुश्किल एक किलोमीटर ही आगे जा पाया थे कि गर्म धूल में बेहोश होकर गिर पड़े। हालाँकि वहाँ से नल चंद कदम की दूरी पर ही था।लेकिन ये दूरी अब उनके लिए लाख कोस हो चुकी थी।वे पानी बिना रेत पर पड़ी मछली से तड़पते रहे।अपने माँ-बाप को करुण पुकार लगाते रहे।लेकिन सब बेकार…।जून की दोपहर में कम ही लोग निकलते हैं घर के बाहर किन्तु मानसिंह कहीं से लौट रहे थे।जोधन को देखकर पहले तो उन्होंने सोचा कि दरूहल है चलो चलते हैं फिर उन्होंने मानवतावश मोटरसाइकिल खड़ी की और जोधन को उठाके बबूल के पेड़ के नीचे ले आए जहाँ नल लगा था।नल से पानी निकाल के मुँह पर छींटे मारे।पपराये होठों को खोल के पानी डाला।किन्तु खास फर्क नहीं पड़ा।अलबत्ता नब्ज अभी चल रही थी और अस्फुट आवाज में जोधन क्या रहा था वो समझ से परे था।जेब में तलाशी ली तो पचास रुपये के अलावा कुछ नहीं निकला।मोबाइल सम्भवतः धूल में ही कहीं गिर गया होगा।मानसिंह को कोई उपाय नहीं समझ में आया तो उन्होंने पुलिस को फोन लगाया खैर लगभग एक घण्टे बाद सौ नम्बर वाली गाड़ी आयी और जोधन को लेकर अस्पताल रवाना हो गयी।
इधर जब दूसरे दिन भी जोधन घर नहीं पहुँचा तो लश्करी को चिन्ता हुई।उन्होंने कहीं से सेमरा वालों का नम्बर लेकर पता किया तो उन्होंने बताया कि वो तो कल दोपहर में ही खाना खा के निकल गया था।अब लश्करी अपने भतीजे खंजन को लेकर सेमरा के लिए चल पड़े।रास्ते के गाँव में पूछताछ करते हुए जब दुरजना पहुँचे तो गांव के कुछ लोगों ने एक बेहोश लड़के को पुलिस के द्वारा अस्पताल ले जाने की बात बताई।किसी अनहोनी की आशंका से लश्करी का दिल धड़कने लगा।अस्पताल पहुंचते -2 शाम हो गयी।डॉक्टर ने बताया कि उसकी हालत नाजुक थी और यहां इलाज उपलब्ध न होने की वजह से उसे जिला अस्पताल रेफर कर दिया था।अब तो लश्करी का दिल बैठने लगा।अगले दिन जब वो सरकारी अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि जब वो यहां लाया गया मर चुका था।पोस्टमार्टम के बाद कोई परिचित उपलब्ध न होने की वजह से लावारिश मानकर उसका अन्तिम संस्कार (दफन)करवा दिया गया।यदि आपको लाश चाहिए तो डी एम साहब को प्रार्थना पत्र देकर अनुमति ले आइए।लश्करी की आंखों के आगे दिन में अँधेरा छा गया।
रामभाेले शर्मा पागल
हरदोई उत्‍तर प्रदेश
94522 59224

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