मातृभाषा दिवस पर विशेष –
हिंदी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान और राष्ट्रीय एकता की संवाहिका है। व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में मातृभाषा का अहम् योगदान होता है। मातृभाषा हमारी आंतरिक अभिव्यक्ति का सबसे विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं, मातृभाषा हमारी अस्मिता, सामाजिक -सांस्कृतिक पहचान और आंतरिक निर्माण-विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
अपने इतिहास, परंपरा और संस्कृति के अध्ययन के लिए मातृभाषा का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। हम जितने ही मातृभाषाओं के समीप आएँगे, उतना ही हमारे व्यक्तित्व का विकास होगा।
मातृभाषाएँ व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को समुन्नत करने का सशक्त माध्यम होतीं है। समूचा संसार इस बात का साक्षी है कि मनुष्य का संपूर्ण विकास अपनी भाषा, अपने संस्कारों और अपने देश की संस्कृति को सीखकर उसे प्रस्तुत करने में है।
हम इस बात के साक्षी हैं कि देश की संपर्क भाषा ही लोगों को अपनी बात कहने और समझने के लिए पर्याप्त है।हम देखते हैं, विश्व के किसी भी देश में व्यापार, व्यवसाय के उद्देश्य से जो भी व्यक्ति सफल हुआ है, वह उस देश की संपर्क भाषा के माध्यम से ही सफल हुआ है। यह पूर्णतः सुस्पष्ट है कि भारत में हिंदी ही संपर्क भाषा के रूप में सशक्त माध्यम बनकर उभरी है। हिंदी अपनी क्षेत्रीय बोलियों से समृद्ध हुई है। स्वामी विवेकानंद और डॉक्टर राधाकृष्णन जैसे विचारकों ने मातृभाषा शिक्षण के महत्व को स्वीकार कर उसकी गहनता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उसे मनुष्य व्यक्तित्व निर्माण की आधारशिला बताया है।
मनुष्य के विकास में मातृभाषा की महत्वपूर्ण भूमिका साहित्य सृजना और राष्ट्रीय एकता स्थापना के रूप में देखी जा सकती है। उत्तर भारत के संत कवियों, दक्षिण भारत के आलवारों एवं राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन, महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों ने मातृभाषा हिंदी के माध्यम से समाजोत्थान और राष्ट्र उत्थान की विराट संकल्पना की थी। मातृभाषा के माध्यम से ही गुरुनानक देव, गुरु गोविंदसिंह, कबीर, तुलसी, सूरदास, मीराबाई, अमीर खुसरो, जायसी, रसखान, रैदास, मलूकदास जैसे तत्तकालीन संत कवियों ने भाषा को ‘संतई’ स्वरूप प्रदान किया। वहीं महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त आदि कवियों-साहित्यकारों ने मातृभाषा के माध्यम से नवजागरण काल में राष्ट्रीय स्वातंत्र्य में अभूतपूर्व योगदान दिया है।
जैसा कि मातृभाषा शब्द से ही स्पष्ट होता है कि मातृभाषा वह भाषा है, जिसे बालक अपनी माँ की गोद में रहकर सीखता है। मूल अर्थ में कहें कि वह भाषा जो व्यक्ति की माँ की भाषा हो पर व्यावहारिक रूप में यह अर्थ पूर्णता सत्य नहीं है। इसका रूप विस्तृत हो गया है। व्यक्ति जन्म के बाद केवल माता के ही संपर्क में नहीं रहता है बल्कि वह परिवार के अन्य सदस्यों पिता, भाई-बहन, दादा -दादी व अन्य परिजन तथा सामाजिक सदस्यों के साथ-साथ पूरे समुदाय के साथ संपर्क स्थापित करता है। सबके बीच मौलिक भाषा का स्वाभाविक विकास होता है। हम कह सकते हैं, बालक जन्मगत परिवेश में माता तथा अपने संपर्क में आने वाली व्यक्तियों से सर्वप्रथम जो भाषा सीखता है और बोलता है उसे ही मातृभाषा कहा जाता है।
मातृभाषा के रूप में अनेक बोलियाँ प्रचलित हैं, जो लोक संस्कृति या लोकभाषा के रूप में विख्यात हो रहीं हैं। अवधी, ब्रज, बुंदेली, भोजपुरी इत्यादि इसी प्रकार की बोलियाँ हैं। व्यक्ति जन्म तो अपनी मातृभाषा की गोद में लेता है लेकिन धीरे-धीरे अन्य भाषाओं का ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मातृभाषा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग बनकर उसके विचारों और कार्यों को संकलित कर उनका विकास करती है। मातृभाषा में हमारी संस्कृति एवं इतिहास विद्यमान है। जो सभी जातियों, सभी भाषाभाषियों को, सभी धर्मों को एक सूत्र में बाँधकर मानव, देश आदि का सर्वांगीण विकास करती है।
हिंदी के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र ने स्वीकार किया था –
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
वस्तुतः मातृभाषा व्यक्ति के विकास की प्रमुख आधारशिला होती है। इसके बिना मानव एवं देश के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जिस प्रकार बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास के लिए अच्छे संस्कारों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बालक के सर्वागीण विकास के लिए मातृभाषा का होना अनिवार्य है। मातृभाषा के माध्यम से बालक अपने वर्तमान एवं भविष्य दोनों को उज्ज्वल एवं सुखद बना सकता है। मातृभाषा के द्वारा ही सुख-दुख का अनुभव करने और उसे प्रकट करने की सहज प्रक्रिया मानी जाती है,जिसे बालक माँ की गोद में दूध पीते-पीते सहज भाव से प्राप्त कर लेता है। क्षेत्रीय भाषा या बोली ही मातृभाषा का प्रारंभिक रूप होती है। कलरव करते गाते-गुनगुनाते पक्षियों के समूह, रंभाते पशुओं के झुण्ड, झीं-झीं झनकार करते कीट-पतंगे एवं विविध बोलियों में अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देने के मानव समूह जिस ध्वनि का प्रयोग करता है, वह ध्वनि विशेष ही मातृभाषा कही जाती है।
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि मातृभाषा का मानव के निर्माण में अतुलनीय योगदान है। मातृभाषा के माध्यम से ही व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक विकास तथा चरित्र निर्माण में सहायक सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है। यदि हम इसको रायबर्न के शब्दों में कहें तो, “मातृभाषा एक ओर जो ज्ञान, प्रसन्नता एवं आनंद का स्रोत है, भावनाओं और रुचिओं की पथ प्रदर्शक है तो दूसरी ओर प्रदत्त सर्वश्रेष्ठ शक्ति के प्रयोग का साधन भी है।”
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे –
“मुझे यह कतई सहन नहीं होगा कि हिंदुस्तान का एक भी आदमी अपनी मातृभाषा को भूल जाए या इसकी हँसी उड़ाए। इससे शरमाए या उसे ऐसा लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में प्रकट नहीं कर सकता।”
मातृभाषा के अर्थ सीमा में ग्रामीण अशिक्षित मनुष्य की बोली से लेकर शिष्ट और शिक्षित परम विद्वान नागरिक की बोली एवं साहित्यिक व्यवहार की भाषा तक सम्मिलित है। हम इसे साहित्यिक भाषा, उपभाषा या विभाषा,बोली और लिपिबद्ध भाषा इन चार भागों में अपनी मातृभाषा को शास्त्रीय रूप में विभाजित कर लेते हैं। किंतु मातृभाषा की गुणवत्ता से जुड़कर ही व्यक्ति अत्यंत समृद्ध होता है। भाषा की शास्त्रीयता प्रायः अप्रचलित और कभी-कभी निष्ठुर भी हो जाती है। गढ़ी हुई भाषा, लोक व्यवहार के प्रचलन से दूर चली जाती है। आज जो अनेक खानाबदोश जातियाँ व कबीले हैं, बंजारे व घुमंतू समाज हैं, जंगलों में रहने वाले आदिम लोग हैं, उनकी जो स्थानिक भाषाएँ हैं, उनकी जो बोलियाँ हैं, उनके जो लोकाचार हैं, वह हमारे भारत की विविध लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आज पाश्चात्य भाषाओं के प्रभाव के कारण हमारे भीतर अपनी मातृभाषा के प्रति अनुदारता का जो भाव आ गया है, उस भाव से मुक्त होने की आवश्यकता है। इसके साथ ही हमें अन्य भाषाओं के शब्दों को भी अपने भाषा में आत्मसात् करना होगा तभी हमारी मातृभाषा जीवंत और समृद्ध बनी रह सकती है। हिन्दी भाषा, बुंदेलखण्डी, ब्रज, अवधी, मैथिली, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणावी, भोजपुरी, खड़ीबोली आदि को अपने में समेटे हुए है। हमारी हिन्दी में अलमारी (पुर्तगाली), रिक्शा (जापानी) चाकलेट (मैक्सिकन) जैसे अनेक विदेशी भाषाओं के शब्द तो प्रयोग हो रहे हैं। किंतु लोकभाषा के शब्दों को लेने में हम कतई उदार नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोश में शब्दों की संख्या अंग्रेजी शब्दकोश से आधी भी नहीं है।
हमारी हिंदी भाषा में से किसानों के शब्द, श्रमिकों के शब्द, चरवाहों- हरवाहों के शब्द आज भी अनुपस्थित हैं। हम उन्हें देहाती व गँवारू मानकर छोड़े हुए हैं।
जबकि लोक बोलियों के शब्दों का लालित्य और सौंदर्यबोध देखते ही बनता है। मेरा मत है कि लोक बोलियों के शब्दों के समावेश से हिन्दी और भी समृद्ध होगी। लोकबोलियों और लोकभाषाएँ अपने आदिम युग से ही संस्कृति को समृद्ध करतीं रहीं हैं। लोकबोलियाँ तो अविरल सदानीरा हैं, रसवंती धाराएँ हैं। उन्हें निर्बाध बहने दीजिए। उनके बहते रहने में ही जीवन है, स्पंदन है। ‘भाषा बहता नीर’ का अभिप्रेत भी यही है। यही उसकी अर्थवत्ता है और प्राणशक्ति भी।
अस्तु, यह कहा जा सकता है कि मातृभाषा व्यक्तित्व विकास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण माध्यम है। यह न केवल विचारों और विचारों को संप्रेषित करने का एक साधन है, बल्कि यह पारस्परिक मित्रता, सांस्कृतिक संबंध और आर्थिक संबंधों को भी मजबूत बनाती है। भाषागत् अभिव्यक्ति के माध्यम से हम कई स्थितियों में अपने शब्दों, हाव-भाव और ध्वनि के लहजे से प्रभावी ढंग से संवाद करते हैं। क्या आप एक छोटे बच्चे से उन्हीं शब्दों में बात करेंगे, जैसे आप किसी सभा में करते हैं। अतः यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि मातृभाषा ही वह सशक्त उपकरण है जो एक-दूसरे के साथ संवाद स्थापित करने, संबंध बनाने, सामूहिक रूप से कार्य करने में सक्षम होने तथा मनुष्यों को अन्य जानवरों की प्रजातियों से अलग करती है।
मातृभाषा की सर्जनात्मक शक्ति, व्यक्ति, परिवार, समाज एवं उसकी राष्ट्रोत्थान की भूमिका निर्धारित करती है। मातृभाषा का संकल्प व्यक्ति को विशिष्ट प्रकार की स्वायत्तता प्रदान करता है। सच में, मातृभाषा ही व्यक्ति को समग्ररूप से विकसित कर जीवंतता प्रदान करने में सर्वथा सक्षम और समर्थ होती है।
जय हिंदी! जय नागरी!
आलेख –
डॉ० रामशंकर भारती
बी- 67, दीनदयाल नगर, झाँसी
मोबाइल- 9696520940
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