अर्चना त्‍यागी की कहानी परवरिश

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आज सुबह जैसे ही सोकर उठा वृद्धाश्रम से फोन आया। जो सूचना मिली उसे सुनकर मेरा दिल बैठ गया। एक बार तो आंखों के सामने अंधेरा ही छा गया। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं ? घरवालों को कुछ बताऊं या नहीं ?पिछले रविवार को ही चाची से मिलकर आया था। बीमारी के कारण कमज़ोर हो गई थी। रसोईघर में फिसल कर गिर गई थी। हड्डी तो नहीं टूटी थी पर बिना सहारे चल नहीं पा रही थी। अधिक समय बिस्तर पर लेटी रहती थी।  लेकिन  उनकी बातों से बिलकुल नहीं लगता था कि वो बीमार हैं और ऐसा तो बिलकुल भी नहीं था कि दुनिया को इतनी आसानी से अलविदा कह देंगी।
“इस उम्र में सेहत ऐसी ही रहा करती है। इसीलिए तो अपनों की ज़रूरत होती है।”
एक दिन उनका मन टटोलने के लिए मैंने कहा तोउन्होंने मेरी बात को हंसकर टाल दिया ।अपनी पोती को याद कर रही थी। जिसे उन्होंने बचपन में ही देखा था। कभी खिलाया नहीं। साथ में भी नहीं रही फिर भी इतना लगाव था कि उसकी बचपन की फोटो और एक दो खिलौने अपने साथ ले आई थी। आश्रम में सबको दिखाती थी और यह बताना तो बिल्कुल नहीं भूलती थी कि उनकी पोती की शक्ल उनसे हुबहू मिलती है।उसके लिए कुछ पैसे उन्होंने बचाए थे, वो भी मुझे दिखाए थे। ज़िद कर रही थी कि उन पैसों को किसी भी तरह उनकी पोती के पास पंहुचा दूं। या कोई खूबसूरत उपहार खरीदकर उसके जन्मदिन पर उनकी ओर से भेज दूं। कैसा है यह संसार ? तेरा हिसाब आज़ तक नहीं समझ पाया भगवान। मैं फूट फूट कर रोना चाहता था लेकिन रो नहीं पाया। बिना किसी को कुछ बताए मैं घर से निकल गया चाची को अंतिम प्रणाम करने। उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने। खुद को तसल्ली देने कि मैंने आखिरी वक्त तक उनका साथ दिया। बस एक ही काम नहीं कर पाया उनका।
अंतिम संस्कार के बाद उनके कमरे में अकेला बैठा रहा कुछ देर। चाची से जुड़ी यादें दिमाग पर छाई हुई थी।
मेरे पड़ोस में रहने वाला एक उच्च मध्यम वर्गीय संपन्न परिवार। चाचाजी की दो बड़ी दुकानें थी शहर में। खूब चलती थी। दो ही बेटे थे। शहर के नामी विद्यालय में पढ़ते थे। पूरे मौहल्ले में वे दोनों ही थे जो अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ते थे। पड़ोस के बच्चों से उनकी बातचीत ना के बराबर ही थी।  ऐसा अवसर कभी नहीं आया कि खुलकर उन दोनों से बात हुई हो। चाचा चाची सबसे प्रेमभाव रखते थे परंतु  घनिष्ठता किसी से भी नहीं थी।
बच्चों को बेहतर परवरिश देना ही उनके जीवन का उद्देश्य था। चाची एकदम घरेलू भारतीय महिला थी। पति की सेवा, बच्चों की परवरिश और घर के कामकाज ही उनके कर्तव्य के दायरे में आते थे।  नौकर के होते हुए भी वो घर के सभी काम अपने हाथ से करती थी। हमारा परिवार एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार था। हम चार भाई बहन थे और पिताजी की छोटी सी नौकरी ही आमदनी का एकमात्र स्रोत थी। मां एक सुघड़ गृहिणी की तरह सब व्यवस्थित कर लेती थी। ज़रूरत की सभी चीजें हम सब भाई बहनों को उपलब्ध हो जाती थी। यह अलग बात है कि कपड़े, किताबें, खिलौने बड़े भाई से लेकर छोटी बहन तक सब इस्तेमाल करते थे। चाची के दोनों बेटों के बारे में जानने की कई बार प्रबल इच्छा होती थी परंतु वे दोनों बाहर नज़र ही नहीं आते थे। नज़र आ भी जाते तो ऐसा दिखाते जैसे पहचानते ही नहीं हों। बड़े भाई की शादी से पहले पिताजी ने लोन लेकर एक बड़ा सा मकान खरीद लिया। हम दूसरी कॉलोनी में रहने चले गए और चाचा चाची से संपर्क लगभग टूट ही गया। पढ़ाई पूरी हुई और अपने कामकाज में व्यस्त हो गए। बचपन की बातें, पड़ोसी भूले तो नहीं पर याद धुंधली हो गई।
“भैया, कमरा साफ करना है, आज ही शाम तक कोई आ जायेगा इस कमरे में।”
वृद्धाश्रम का ही एक कर्मचारी खड़ा था मेरे सामने।
,”उठिए, भाई साहेब।”
वह झाड़ू लगाते लगाते बोल रहा था
,” यहां तो यह सब तीसरे दिन का काम है।  खुशी होती है कि चलो बोझ बन गए जीवन से इन्हें मुक्ति मिल गई।  बूढ़े लोग हैं। भगवान के पास नहीं जायेंगे तो कहां जायेंगे ? आप खुद को संभालिए।”
मुझे सलाह देकर वह फिर से अपने काम में लग गया।
प्रबंधक की अनुमति से चाची का छोटा सा बक्सा खोला गया। दो तीन सूती धोती, एक शाल, कुछ कागज़ और एक पोटली। पोटली में पूरे 1100₹ थे। पोती के उपहार के लिए यही पैसे जोड़े होंगे चाची ने। मैंने मन में सोचा।
,”आप यह सब ले जा सकते हैं।”
प्रबंधक ने मुझसे कहा।
,” नहीं श्रीमान, यहीं रहने दीजिए इस सामान को। किसी और के काम आ जाएगा। ”
भारी मन से मैंने उत्तर दिया।
प्रबंधक हैरान था।
,” आप उनके रिश्तेदार हैं ?”
उसने प्रश्न किया।
” नहीं भाई, मेरे मोहल्ले में रहती थी चाची। एक बार भाई के जन्म दिवस पर हमारी ओर से खाना था वृद्धाश्रम में। तभी चाची को देखा था यहां।”
उसने ठंडी सांस ली।
,” ओह, तो यह बात है। कितना बुरा किया उनके बेटों ने उनके साथ। मृत्यु की सूचना मिलने पर भी नहीं आए हैं। एक आप हैं , हर हफ्ते माताजी के हाल चाल जानने आते थे।”
मैं चाची के यहां आने का कारण जानना चाहता था इसलिए पूछ लिया।
,” क्या किया था उनके बेटों ने ?”
प्रबंधक के चेहरे पर गुस्से और दुख के मिले जुले भाव थे। उसने बताया,” दोनों ने नौकर से झूठ बुलवाया कि कार दुर्घटना में घायल हो गए हैं। माताजी तुरंत नौकर के साथ उन्हें देखने  गई लेकिन अस्पताल के बदले वृद्धाश्रम पहुंच गई।”
उसने अपनी बात जारी रखी।
,” एक दिन आए थे दोनों। संपत्ति के कागजों पर दस्तखत लेने। माताजी ने नही किए तो नकली दस्तखत कर लिए। मुझे भी धमकी दे गए थे कि अगर बुढ़िया को बताया तो शहर में रहने नहीं देंगे। दोनों बड़े अफसर हैं। नेताओं से जान पहचान है।”
मैं ठगा सा उसकी बात सुन रहा था।
,” आश्चर्य तो इस बात का है कि माताजी सब कुछ जानकर भी चुप रही।”
,” अच्छा ऐसा ?”
उसने आगे बताया।
,” जब वृद्धाश्रम छोड़ा उन्हें, तब भी वो जानती थी।”
बातें मेरी सोच से परे जा रही थी इसलिए मैंने प्रबंधक से पूछा।
,” आपको क्या बताया था चाची ने ?”
इस बार प्रबंधक के चेहरे पर मुस्कान थी। उनके चेहरे से साफ़ दिख रहा था कि चाची के आश्रम में गुजारे हुए  समय  की स्मृतियों में वो खो गए हैं।
” बोली, मैं यहां खुश हूं।  गलती मेरी परवरिश की ही है। बच्चों को काबिल तो बनाया परंतु संस्कारी नहीं बना पाई।”
मैं बहुत ध्यान से सारी बातें सुन रहा था।
प्रबंधक ने बात जारी रखी।
,” यहां आते ही उन्होंने हमारी रसोई संभाल ली थी। सबको उनकी पसंद का खाना मिलने लगा था। आज आश्रम में सुबह से किसी ने कुछ भी नहीं खाया है। रात भर सब उनके साथ इस कमरे में ही थे।”
मैं खुलकर रोना चाहता था कि तभी वृद्धाश्रम का एक कर्मचारी कमरे में आया और प्रबंधक के हाथ में एक लिफाफा थमा दिया।
,” ये कोर्ट के काग़ज़ हैं सर, माताजी की धोती की तह में रखे हुए थे।”
प्रबंधक ने मुझे दिखाए। चाचाजी की वसीयत थी। लिखा था।
,” मैं अपनी पूरी संपत्ति अपनी पत्नि आशा के नाम कर रहा हूं। मेरे दोनों बेटे एक नंबर के स्वार्थी हैं। मेरी बीमारी में मुझे देखने तक नहीं आए। मेरी मृत्यु के बाद यह संपत्ति उस संस्था के पास चली जायेगी जो उसे आश्रय देगी। मैं जानता हूं मेरे पुत्र उसकी जिम्मेदारी नहीं उठाएंगे।”
नीचे  चाचाजी के हस्ताक्षर थे।  उस कागज़ के टुकड़े को पढ़कर मन को बड़ी तसल्ली मिली। मैंने प्रबंधक से इजाज़त ली और आश्रम से बाहर आ गया। चलते समय  रुपए उसने मेरे हाथ में दे दिए और उनकी पोती तक उन्हें पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी।
घर पहुंचा तो मां बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी। पहले तो गुस्से में बरस पड़ी परंतु चाची के बारे में बताया तो बस यही बोली
,” छूट गई है, आशा। मर तो उसी दिन गई थी जब बेटों ने झूठ बोलकर वृद्धाश्रम पहुंचा दिया था।”
मेरे मुंह से बिना सोचे ही निकल गया।
,” मां, वहीं तो उन्होंने जिंदगी जी है। यहां  तो ज़िम्मेदारी ही निभा रही थी।”
नहा धोकर तुरंत डाकखाने गया और दिए गए पते पर मनी ऑर्डर करके आ गया।
अर्चना त्यागी
व्याख्याता रसायन विज्ञान
एवम् कैरियर परामर्शदाता
जोधपुर ( राज.)
पिन 342011
7983481584

 

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