14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह दिन हिंदी की संवैधानिक प्रतिष्ठा को याद करने और उसके प्रचार-प्रसार के संकल्प को दोहराने का प्रतीक बन गया। बड़े-बड़े सभागारों में गोष्ठियाँ होती हैं। लेखकों, कवियों और विचारकों को सम्मानित किया जाता है। सोशल मीडिया पर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग दोहराई जाती है और विदेशों में हिंदी की पहुँच पर गर्व किया जाता है। यह सब एक सतही आडंबर बनकर रह गया है, क्योंकि इन सबके शोर में उस हिंदी की जमीनी सच्चाई, उसकी उपेक्षा, उसकी दुर्दशा और उसके विरुद्ध हो रहे भेदभाव की आवाज कहीं गुम हो जाती है।
हिंदी दिवस एक उत्सव या खोखला कर्मकांड
हिंदी दिवस एक औपचारिक आयोजन में तब्दील होता जा रहा है। सरकारी कार्यालयों में हिंदी सप्ताह मनाया जाता है। जिसमें निबंध लेखन, वाद-विवाद, कवि सम्मेलन भाषण आदि कार्यक्रमों का आयोजन बड़े उत्साह से किया जाता है। मंचों पर हिंदी को ‘माँ’ कहा जाता है, उसकी गरिमा का गुणगान होता है और यह दावा भी किया जाता है कि हिंदी एक दिन विश्व भाषा बनेगी। यह सब एक सप्ताह तक ही सीमित रहता है।
जैसे ही यह औपचारिक सप्ताह समाप्त होता है, वही हिंदी जिसे अभी मंचों पर देवी स्वरूप बताया गया था। पुन: उपेक्षा की स्थिति में पहुंच जाती है। कार्यालयों की भाषा अंग्रेजी हो जाती है, सोशल मीडिया की भाषा ‘हिंग्लिश’ और युवाओं की प्राथमिकता अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा होती है। हिंदी पढ़ने वाला छात्र पिछड़ा समझा जाता है और हिंदी में बात करने वाला कमजोर माना जाता है। विडंबना यह है कि जिस भाषा ने आजादी की लड़ाई में जनमानस को जोड़ा, वही आज अपने ही देश में आत्मविश्वास की जगह संकोच की भाषा बनती जा रही है।
हिंदी दिवस केवल प्रतीकों और आयोजनों तक सीमित रह जाए, तो यह कर्मकांड बनकर रह जाएगा। उसकी सार्थकता तभी है जब हिंदी को वास्तविक रूप में व्यवहार की भाषा बनाया जाए। कार्यालयों, अदालतों, विज्ञान तकनीक, उच्च शिक्षा और डिजिटल माध्यमों में उसका सशक्त प्रयोग हो। हिंदी को लेकर भावुक होना पर्याप्त नहीं, उसके लिए व्यवहारिक और नीतिगत प्रयास जरूरी है। तभी हिंदी दिवस एक उत्सव कहलाएगा, न कि खोखला औपचारिक अनुष्ठान।
महाराष्ट्र में हिंदी विरोध और तथाकथित हिंदी पुत्रों की खामोशी
भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, जहाँ हर भाषा और बोली की अपनी गरिमा, संस्कृति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। लेकिन जब किसी एक भाषा को जानबूझकर लक्षित किया जाए, उसका अपमान हो और उसके बोलने वालों को हाशिए पर धकेला जाए, तो यह सिर्फ भाषायी असहिष्णुता नहीं, यह राष्ट्र की साझा चेतना पर प्रहार होता है। हाल ही में महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर जो घटनाएँ हुई। जैसे हिंदी बोलने बालों को अपमामित किया जाना, हिंदी नाम पर आपत्ति जताना, उस पर हिंदी के तथाकथित सेवकों, रचनाकारों, आलोचकों और मंचीय विद्वानों की खामोशी बहुत कुछ कहती है।
हिंदी को बाहरी भाषा कहकर प्रचारित करना, सार्वजनिक स्थानों से हिंदी बोर्ड हटाना, हिंदी में बात करते वालों के साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करना। ये सब घटनाएँ गहरे भाषायी पूर्वाग्रह को उजागर करती हैं। इस पूरे परिदृश्य में हिंदी के तथाकथित सेवक, रचनाकार, आलोचक और मंचों पर हिंदी को ‘माँ’ कहने वाले वक्ता पूरी तरह मौन रहे। उनका यह मौन उनकी प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।
वर्षभर हिंदी के हितैषी बनने वाले लोग जब सचमुच हिंदी के सम्मान की लड़ाई में शामिल होने की आवशयकता होती है, तब या तो गायब हो बाते हैं या खामोश रहते हैं। ना तो कोई साहित्यिक मोर्चा खड़ा होता है, न कोई आंदोलन और न कोई लेखकीय प्रतिवाद। मंचों से निकलने वाली बड़ी-बड़ी बातें और घोषणाएँ ऐसे समय लुप्त हो जाती हैं। कुछ नामचीन लेखक ऐसे मौके पर यह कहकर किनारा कर लेते हैं कि “हमें राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए” जबकी वही लेखक सत्ता और व्यवस्था पर कटाक्ष करने में सबसे आगे रहते हैं। अगर वह व्यवस्था हिंदी विरोध की हो, तो उनकी कलम निःशब्द हो जाती है।
यह दोहरापन हिंदी की वर्तमान हालत का मूल कारण है। हिंदी केवल किताबों, मंचों और सरकार की योजनाओं तक सीमित रह गई है। जमीनी स्तर पर उसकी उपेक्षा, बहिष्कार और अपमान को कोई चुनौती देने वाला नहीं है, जो लोग हिंदी को “जनमानस की भाषा” बताते हैं वह जन की पीड़ा से कटा हुआ आचरण करते हैं।
अगर हिंदी को सचमुच सम्मान चाहिए, तो यह सम्मान केवल पुरस्कार, गोष्ठियों और दीवारों पर लिखे नारों से नहीं मिलेगा। यह तब मिलेगा जब उसके लिए जमीनी संघर्ष होगा। जब महाराष्ट्र जैसे राज्यों में हिंदी को गाली दी जाए, तो हिंदी के लेखक, पाठक और प्रेमी एकजुट होकर प्रतिवाद करें। जब भाषा पर हमले हों, तब उनकी कलम तलवार बने।
हिंदी दिवस पर भाषण देना आसान है, हिंदी के पक्ष में खड़े रहना कठिन और दुर्भाग्य से आज हिंदी के अधिकतर लेखक सिर्फ आसान रास्ता चुनते हैं। मंचीय तालीयों में खो जाने वाला भाषण, पुरस्कार समारोह की चमक-दमक और अपने ही घर में हिंदी को भूलकर अंग्रेजी की श्रेष्ठता का मौन स्वीकार।
हिंदी की जमीनी सच्चाई: छह-सात राज्यों तक सीमित
हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है और यह देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि करोड़ों लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा मानते हैं। लेकिन इन आँकड़ों के पीछे जो यथार्थ छिपा है, वह कुछ और ही तस्वीर पेश करता है। सच्चाई यह है कि हिंदी की वास्तविक ताकत केवल उत्तर भारत के कुछ राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड और उत्तराखंड तक ही सीमित है। इन राज्यों के बाहर हिंदी न तो प्रशासन की मुख्य भाषा है, न शिक्षा की, और न ही आमजन की सामाजिक भाषा।
दक्षिण भारत के राज्यों तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में हिंदी को लेकर विरोध की भावना लंबे समय से रही है। वहाँ हिंदी को ‘थोपी गई भाषा’ माना जाता है और इसकी जगह स्थानीय भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगु, मलयालम या कान्नड़ को प्राथमिकता दी जाती है। पूर्वोत्तर भारत में भी हिंदी को बाहरी भाषा समझा जाता है और वहाँ बांग्ला, असमिया, मणिपुरी जैसी भाषाओं का वर्चस्व है। यही नहीं, पश्चिम भारत के गुजरात और महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्यों में भी हिंदी को हमेशा सहज सम्मान नहीं मिला। महाराष्ट्र में हाल ही में हिंदी बोर्ड हटाए गए, हिंदी में बात करने पर छींटाकशी की गई और हिंदी नामों पर आपत्ति जताई गई।
इन सबके बीच मंच हह हिंदी को राष्ट्रीय पहचान देता है, वह है हिंदी सिनेमा अर्थात बॉलीवुड। हिंदी फिल्मों ने भारत के सुदूर क्षेत्रों तक हिंदी की उपस्थिति दर्ज कराई है। वह उपस्थिति सांस्कृतिक या भावनात्मक नहीं, केवल मनोरंजन और बाजार के स्तर की है। फिल्म देखकर एक व्यक्ति हिंदी बोल सकता है, लेकिन वह न तो हिंदी में पढ़ाई करेगा, न प्रशासन से उस भाषा में संवाद करेगा। यही कारण है कि दक्षिण या पूर्वोतर भारत में लोग हिंदी फिल्मों के गीत गुनगुना सकते हैं पर हिंदी में एक पत्र नहीं लिख सकते।
भाषा का असली प्रभाव तब होता है जब वह किसी क्षेत्र की प्रशासनिक, शैक्षणिक और सामाजिक व्यवस्था में रच बस जाती है। किसी राज्य के बच्चे हिंदी माध्यम से शिक्षा शिक्षा प्राप्त करते हैं, वहाँ के कागज हिंदी में होते हैं आम जनता हिंदी को आत्मीयता से अपनाती है। तब वह भाषा उस क्षेत्र की भाषा कही जा सकती है। लेकिन हिंदी के मामले में ऐसा नहीं है। हिंदी अभी भी कई क्षेत्रों में ‘दूसरी भाषा’ या ‘वैकल्पिक भाषा’ के रूप में है, जबकि स्थानीय भाषाएँ ही जनवीवन का वास्तविक हिस्सा बनी हुई हैं।
यह कटु सत्य है कि भारत में हिंदी की स्थिति अखिल भारतीय नहीं है, वह ‘क्षेत्रीय बहुलता’ बाली भाषा की है। इसे सुधारने के लिए एक समावेशी भाषा नीति भी जरूरत है, जो हिंदी को थोपने के बजाय संवाद सांस्कृतिक साझेदारी का माध्यम बनाए। हिंदी को उसकी वास्तविक सीमाओं के साथ पहचान कर ही हम उसे नई दिशाएँ दे सकते हैं। अन्यथा वह केवल एक ‘उत्तर भारतीय भाषा’ बनकर सीमित रह जाएगी। जिसका उपयोग अन्य क्षेत्रों में केवल फिल्मों, टीवी और पर्यटन तक सिमटा रहेगा।
सोशल मीडिया पर हिंदी: दिखावा और ब्रांडिंग का माध्यम
आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त मंच बन गया है। हिंदी दिवस जैसे अवसरों पर ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर हिंदी प्रेम के ज्वार उमड़ते हैं। लोग, हिंदी दिवस, हिंदी हमारी शान, हिंदी माँ है। जैसे हैशटैग लगाकर कविताएँ पोस्ट करते हैं, भावनात्मक वीडियो बनाते हैं और हिंदी के गौरवशाली अतीत का बखान करते हैं। यह सबकुछ दिखावे और आत्म प्रदर्शन का एक साधन बनकर रह गया है।
सोशल मीडिया पर हिंदी की सेवा एक ‘डिजिटल स्टेटस’ बन गई है। एक ऐसा स्टेटस जिससे लोग खुद को ‘संस्कृति संरक्षक’ साबित करना चाहते हैं। इन पोस्टरों के पीछे वास्तविक हिंदी प्रेम नहीं, ब्रांडिंग की भावना छिपी होती है। जो लोग हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ घोषित करने की माँग करते हैं, वही निजी जीवन में हिंदी को पीछे छोड़ चुके होते हैं। उनके बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं, उनका दैनिक संवाद अंग्रेजी में होता है। मोबाइल की डिफॉल्ट भाषा अंग्रेजी में रहती है और गूगल पर वे हिंदी की जगह अंग्रेजी में सर्च करते हैं।
हिंदी की वर्तमान स्थिति : सड़क की धूल से भी बदतर?
कई राज्यों में हिंदी बोलना असभ्यता समझा जाता है। सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी को प्राथमिकता मिलती है। न्यायपालिका में तो हिंदी की पहुँच लगभग ना के बराबर है। अगर एक आम आदमी किसी दक्षिण भारतीय राज्य में हिंदी में कुछ पूछता है तो उसे उपेक्षा मिलती है। सरकारी भाषाई नीति तो हिंदी को बढ़ावा देने की बात करती है, पर व्यावहारिक धरातल पर न कर्मचारियों को हिंदी में काम करने की सुविधा है, न संसाधन।
हिंदी के नाम पर मिलने वाले सम्मान : एक आत्मप्रवंचना
आजकल हिंदी के नाम पर पुरस्कार प्राप्त करना एक आदर्श स्थिति बन गई है। साहित्य अकादमी, भाषा विभाग, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, हिंदी प्रचार संस्थाएँ अनेक पुस्कार देती हैं, इनमें से अधिकतर आपसी पहचान, संबंधों और राजनीति पर आधारित होते हैं। ये पुरस्कार न तो हिंदी के वास्तविक संघर्षशील सिपाहियों तक पहुँचते हैं, न ही नये प्रयोगशील लेखकों को प्रोत्साहन देते हैं। आधिकतर हिंदी दिवस कार्यक्रम केवल कुछ वरिष्ठ लेखकों और मंचीय वक्ताओं का क्लब बन चुके हैं।
हिंदी की दशा और दिशाहीन नेतृत्व
हिंदी को आगे ले जाने के लिए नीति योजना और जनसंघर्ष की जरूरत है। वर्तमान में हिंदी का नेतृत्व दिशाहीन है। वह या तो राजनीतिक गुलामी में डूबा है या पुरस्कार सम्मान के मोह में। लेखकों की नजर प्रकाशकों से छपने और संगोष्ठियों में भाग लेने तक सीमित रह गई है।
हिंदी की वर्तमान स्थिति बेहद चिंताजनक है और इसका एक कारण दिशाहीन नेतृत्व है। आजादी की इतने वर्षों बाद भी हिंदी को उसका उचित स्थान नहीं मिला है। शिक्षा, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में हिंदी का प्रयोग सीमित है और इसके प्रसार की नीतियाँ केवल कागजों में सिमट कर रह गई हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि कोई ठोस आंदोलन हिंदी के पक्ष में खड़ा नहीं होता। न कोई सड़क पर उतरता है न जनभावनाओं को जगाने वाला कोई जनभाषा आंदोलन दिखाई देता है। हिंदी प्रेम केवल मंचों, सम्मेलनों और सोशल मीडिया के संदेशों तक ही सीमित रह गया है। जिन संस्थाओं और नेताओं पर इसकी रक्षा और प्रचार का दायित्व है, वे स्वयं दिशाहीन हैं। जब तक नेतृत्व में स्पष्ट दृष्टि, प्रतिबद्धता और साहस नहीं होगा, तब तक हिंदी केवल भाषणों की भाषा बनी रहेगी और वास्तविक जीवन में उपेक्षित रहेगी।
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग : एक खोखली अपील
हिंदी दिवस पर एक बात आवश्य कही जाती है कि ‘हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाओ।’ यह अपील वर्षों से दोहराई जा रही है, पर सवाल यह है कि क्या वास्तव में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए ठोस प्रयास किये जा रहे हैं? सच यह है कि यह माँग अब खोखली परंपरा बन गई है, जिसे हर साल दोहराया जाता है किंतु उस पर अमल नहीं होता।
अगर हिंदी को वास्तव में राष्ट्रभाषा बनाना है तो सबसे पहले इसे देश की न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्थ तकनीकी क्षेत्र, विज्ञान और प्रशासन में अनिवार्य करना होगा। इन क्षेत्रों में आज भी अंग्रेजी का एकाधिकार है और हिंदी की भूमिका अत्यंत सीमित है। जब तक हिंदी को इन क्षेत्रों में व्यवहारिक रूप से लागू नहीं किया जाएगा। तब तक वह राष्ट्रभाषा कहलाने योग्य नहीं बन सकेगी। केवल भावनात्मक नारों, कविताओं या मंचीय भाषणों से हिंदी का उत्थान संभव नहीं है। इसके लिए नीतिगत बदलाव, राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनसहभागिता आवश्यक है, वरना यह अपील हर साल की रस्म अदायगी बनकर रह जाएगी।
हिंदी की राह में बाधाएँ
हिंदी के मार्ग में केवल अन्य भारतीय भाषाएँ बाधा नहीं हैं, हिंदी समुदाय का आत्ममुग्ध रवैया भी एक सबसे बड़ी बाधा है। हिंदी पट्टी में भी लोग अंग्रेजी बोलने को ही सभ्यता और आधुनिकता मानते हैं। शहरी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग के बच्चे हिंदी बोलने में झिझकते हैं। हिंदी माध्यम से पढ़ाई को हीन दृष्टि से देखा जाता है।
आगे क्या किया जा सकता है?
हिंदी माध्यम को प्रोत्साहन : स्कूल और कॉलेजों में हिंदी माध्यम को बढ़ावा देना होगा, उसे विज्ञान, तकनीकी और प्रशासनिक विषयों से जोड़ना होगा।
प्रशासनिक क्षेत्र में हिंदी : न्यायपालिका, सरकारी और उच्च सेवाओं में हिंदी का अधिक से अधिक प्रयोग सुनिश्चित किया जाए।
भाषा आंदोलन की जरूरत : अगर तमिल, मराठी, बांग्ला, तेलुगु जैसी भाषाओं के लिए आंदोलन हो सकते हैं, तो हिंदी के लिए भी एक सशक्त, व्यापक और राष्ट्रव्यापी आंदोलन की जरूरत है।
मूल्य आधारित साहित्य सृजन : हिंदी लेखकों को जन सरोकारों से जुड़ी रचनाएँ लिखनी होगी। केवल पुरस्कारों के लिए नहीं।
हिंदी युवाओं की भाषा बने : युवा वर्ग को यह समझाना होगा कि हिंदी कोई पिछड़ी भाषा नहीं है, यह सांस्कृतिक गौरव और समृद्ध साहित्य की भाषा है।
हिंदी दिवस तब सार्थक होगा जब यह केवल औपचारिकता न रहकर आत्मनिरीक्षण का अवसर बने। हमें यह तय करना होगा कि केवल हिंदी के नाम पर सम्मान प्राप्त करने वाले बनना चाहते हैं या सच में हिंदी के सच्चे सिपाही। हिंदी की हालत पर मौन रहकर केवल उत्सव मनाने से भाषा नहीं बचेगी। इसके लिए सड़क से संसद तक आवाज उठानी पड़ेगी। जन-जन तक चेतना ले जानी होगी और यह स्वीकारना होगा कि हिंदी की लड़ाई अब भी अधूरी है। हमें प्रण लेना होगा कि हम केवल मंचों पर नहीं, अपने व्यवहार, कार्य और सोच में भी हिंदी को प्राथमिकता देंगे। तभी हम हिंदी को उसका यथोचित स्थान दिला सकेंगे।
अनुज पाल ‘सार्थक’
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, (उ.प्र.)-282005
मो. 8755123629
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