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अथ श्री ओलम्पिक चिन्तनम- रामभोले शर्मा

जनववरी-2023

 इस समय टीवी चैनलों पर बड़ी तेजी से काँव-2 जारी है कि हमारा महान भारत आखिर ओलंपिक में अमेरिका,चीन,जापान आदि देशों की तरह स्वर्ण पदक क्यों नहीं जीत पाता?तो सुनो हम किसी से कम हैं क्या?अगर यूज़ एंड थ्रो,मतलब लेथन फैलाने,घूसखोरी,कामचोरी,बेईमानी आदि में कोई अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा करा दी जाए तो सारे स्वर्ण और रजत हमारे बन्दे ही न झटक लें तो मेरा नाम बदल देना। अब जिस देश मे केवल क्रिकेट को ही राष्ट्रीय खेल और राष्ट्रधर्म माना जाता हो।क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा हासिल हो।भारत रत्न जैसा पुरस्कार बिना सरकारी देर के युवावस्था में ही प्राप्त हो जाए, किन्तु तीन बार देश को हाकी में ओलम्पिक स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद जैसे महान हॉकी के जादूगरों को मरणोपरान्त भी यह सौभाग्य नसीब न हो वहाँ क्रिकेटर के अलावा कोई और क्या बनना चाहेगा?गनीमत है ध्यानचंद जी मे आधुनिक आइआइ टियन्स और एमबियन्स बालकों जैसे संस्कार नहीं थे अन्यथा वे हिटलर के ऑफर पर जर्मनी में सेट हो लिए होते।मीडिया ने भी इस मामले में बड़ी खूबसूरत भूमिका निभाई है। इसीलिए कुछ लोगों ने आरोप लगाते हुए कहा है कि ये ट्रिपल सी की पिछलग्गू है मतलब क्रिकेट,सिनेमा और क्राइम ही उसकी नज़र में न्यूज़ मैटेरियल हैं।हमें पिता जी के द्वारा सुनाया गया एक संस्मरण याद आ रहा है।जो पड़ोसी  गाँव के बाँकेलाल के सम्बन्ध में है।गुलाम भारत में एक बार अंग्रेजों ने गांव में लम्बी कूद का आयोजन कराया।

बाँकेलाल परिवार पालने के लिए भारे में झोंकने के लिए बाग में आम के पत्ते बटोरने गए थे।कूद होते देख वे भी पहुँचे और गोरों से बोले हम भी कूदना चाहते हैं।गोरों ने व्यंगात्मक लहजे में कहा हाँ-हाँ ,क्यों नही-2?लम्बे कद के बाँके ने जो छलांग लगाई तो गोरों की आंखें फटी रह गईं।उनकी अधिकतम कूद से लगभग पांच फीट आगे। उसके बाद बाँकेलाल अपना फट्टा उठाकर यह कहते हुए चल दिये कि हमें देर हो रही है।भार झोकना है जब कोई यहां तक पहुंच जाए तो हमें फिर बुला लेना।हमारी मड़इया यहाँ से बस आधा मील दूरी पर है।संस्मरण  का सार यह है कि ऐसे कितने बाँके यूँ ही नमक,तेल,लकड़ियों की पारिवारिक आपूर्ति के चक्कर मे अभावों में ही दुनिया से गुमनाम चले जाते हैं जोकि इतिहास रचने का माद्दा रखते हैं किंतु उन्हें अवसर ही नहीं मिलता।इस देश मे आज भी एकलव्यों के अंगूठे काटे जाने की परम्परा बदस्तूर जारी है।किसी महापुरुष ने कहा था दिल्ली से भेजा गया एक रुपया जब बुधई,इतवारी तक पहुंचता है तो घिसते-2 दस पैसा रह जाता है।जहाँ जिम्मेदार बच्चों के और प्रशिक्षुओं के भोजन से पौष्टिकता खा लेते हैं,धात्री और गर्भवती महिलाओं का राशन चट कर जाते हों,सड़कों से कोलतार,पुलों और इमारतों से सरिया- सीमेंट हज़म कर लेते हो,जिस देश में लुच्चई और हराम का माल समेटने की होड़ लगी हो,वहाँ ऐसा भी हो जाना किसी चमत्कार से कम है क्या ?हमारे देश के लोग बड़े कंतड़ी है एक बार किसी चीज को देख लें कुछ दिनों में ही उसकी कॉपी मार्केट में उपलब्ध करा देते हैं।बॉलीवुडिए कितनी कहानियां हॉलीवुड से उड़ाकर ब्लॉकबस्टर फ़िल्में बना डालते हैं। आज का स्वीटलेस म्यूजिक  टोटली वहीं से इंस्पायर्ड है। किन्तु एक बात मेरी समझ में घुसपैठ को बिल्कुल तैयार नहीं है कि देश के इतने उच्च बौद्धिकता वाले लोग ओलम्पिक चिंतनम पर ध्यान क्यों नहीं देते?आखिर बार-2 हमीं फिसड्डी क्यों रह जाते हैं? लानत है हमारे कंतड़ी होने पर।उनकी ट्रेनिंग,प्रबन्धन और रणनीतियाँ हम आज भी कॉपी करने में क्यों असफल हैं?इस तकनीक के समस्त  पीएचडी धारकों को मैं दण्डवत प्रणाम करके निवेदन करता हूँ।इन देशों से वो तकनीकें भर्ती परीक्षा के पेपरों की तरह लीक करके

भारत में भी कॉपीपेस्ट करने का कष्ट करें जिससे आबादी के ओलम्पिक में रजत पदक प्राप्त करने वाला हमारा देश ओलम्पिक खेलों में भी पदकों के कीर्तिमान गढ़ डाले।हाँ नहीं तो…

हरदोई

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