भगवान महावीर-प्रदीप छाजेड

प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्ट ने कहा – मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ । मेरे अस्तित्व का प्रमाण हैं कि मैं सोचता हूं और सोचता हूं इसलिए मैं हूं । यदि मुझे कहना पड़े तो मैं इस तर्क की भाषा में कहूँगा- मैं हूं और विकसित मस्तिष्क वाला प्राणी हूँ इसलिए सोचता हूँ । सोचना मस्तिष्क का लक्षण नहीं हैं । सोचना एक अभिव्यक्ति हैं । वह लक्षण नहीं बन सकता । हमारा अस्तित्व और चैतन्य चिंतन से परे हैं , सोचने से परे हैं । सोचना ज्योति का एक स्फुलिंग मात्र हैं , समग्र ज्योति नहीं हैं । न सोचना यह ज्योति का अखंड रूप हैं । निरभ्र नील गगन । शान्त, नीरव वातावरण । रात्रि का पश्चिम प्रहर । महाराज सिद्धार्थ का भव्य प्रासाद । वासगृह का मध्य भाग । सुरभि पुष्प और सुरभि चूर्ण की महक । मृदु- शय्या । अर्द्धनिद्रावस्था में सुप्त देवी त्रिशला ने एक स्वप्न श्रृंखला देखी । त्रिशला जागी उसका मन उल्लास से भर गया । उसे अपने स्वप्नों पर आश्चर्य हो रहा था । आज तक उसने इतने महत्वपूर्ण स्वप्न कभी नहीं देखे थें । वह महाराज सिद्धार्थ के पास गईं । उन्हें अपने स्वप्नो की बात सुनाईं । सिद्धार्थ हर्ष और विस्मय से आरक्त हों गया । सिद्धार्थ ने स्वप्न- पाठकों को आमंत्रित किया । उन्होंने स्वप्नो का अध्ययन कर कहा – महाराज ! देवी के पुत्र- रत्न होगा । ये स्वप्न उसके धर्म- चक्रव्रती होने की सूचना दे रहें हैं । महाराज ने प्रतिदान दें स्वप्न- पाठकों को विदा किया । सब दिशाएं सौम्य और आलोक से पूर्ण हैं । वासन्ती पवन मंद-मंद गति से प्रवाहित हों रहा हैं । पुष्पित उपवन वसन्त के अस्तित्व की उद्घोषणा कर रहें हैं । जलाशय प्रसन्न हैं । प्रफुल्ल हैं भूमि और आकाश । धान्य की समृद्धि से समूचा जनपद हर्ष- विभोर हों उठा हैं । इस प्रसन्न वातावरण में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्यरात्रि को एक शिशु ने जन्म लिया । वह शिशु भगवान् महावीर के रूप में प्रख्यात हुआ । यह विक्रम पूर्व 542 और ईसा पूर्व 599 की घटना हैं । जनपद का नाम विदेह । नगर का नाम क्षत्रियकुण्ड । पिता का नाम सिद्धार्थ । माता का नाम त्रिशला । कहते हैं कि जिनका अंतःकरण जागृत होता हैं, वे सोते हुए भी जागते हैं । भगवान् महावीर सतत् जागृति की कक्षा में पहुंच चुके थें । गर्भकाल में ही उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध था । उनका अंत:करण निसर्ग चेतना के आलोक से आलोकित था । भोग और ऐश्वर्य उनके पीछे- पीछे चल रहें थें , पर वे उनके पीछे नहीं चल रहे थे । भगवान ने कहा मैं अनुभव कर रहा हूँ कि यह मेरा जन्म हिंसा का प्रायश्चित करने के लिए ही हुआ हैं । मेरी सारी रुचि, सारी श्रद्धा, सारी भावना अहिंसा की आराधना में लग रही हैं । उसके लिए मैं जो कुछ कर सकता हूं , करूंगा । मेरे प्राण तड़प रहें हैं उसकी सिद्धि के लिए । मैं चाहता हूं कि वह दिन शीघ्र आए जिस दिन मैं अहिंसा से अभिन्न हो जाऊं , किसी जीव को कष्ट न पहुंचाऊं । जीवन में साधना करते – करते एक दिन भगवान महावीर जंभिग्राम के बाहरी भाग में ऋजुबालिका नदी के उत्तरी तट पर जीर्ण चैत्य का ईशानकोण में श्यामाक गृहपति का खेत वहाँ शालवृक्ष के नीचे अपूर्व आभा का अनुभव करने लगे । उन्हें सूर्योदय का आभास हो रहा हैं । ऐसा प्रतीत हो रहा हैं कि अस्तित्व पर पड़ा हुआ परदा अब फटने को तैयार हैं । भगवान गोदोहिका आसन में बैठे हैं । दो दिन का उपवास हैं । सूर्य का आतप ले रहें हैं । शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तमान हैं । ध्यान की श्रेणी का आरोहण करते- करते अनावरण हो गए । कैवल्य का सूर्य सदा के लिए उदित हो गया । वैशाख शुक्ला दशमी का दिन चौथा प्रहर विजय मुहूर्त चंद्रमा के साथ उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का योग इन्ही क्षणों में कैवल्य का सूर्योदय हुआ । भगवान् अब केवली हो गए- सर्वज्ञ और सर्वदर्शी ।  उनमें सब द्रव्यों और सब पर्यायों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो गईं । भगवान् महावीर साधु- साध्वी और श्रावक- श्राविका- इस तीर्थ- चतुष्टय की स्थापना कर तीर्थंकर हो गए । इससे पहले  भगवान् व्यक्ति थे और व्यक्तिगत जीवन जीते थे , अब भगवान संघ बन गए और उनके संघीय जीवन का सिंहद्वार खुल गया । भगवान महावीर पुरुषोत्तम थे । उनकी पुरुषोत्तमता उन सबके सामने हैं जो अहिंसा में आस्था रखतें हैं । भगवान महावीर का जीवन दीर्घ तपस्वी का जीवन हैं।उनका पूर्ण समग्र दर्शन लिखना सम्भव नहीं हैं, किंतु जो दर्शन हैं, वह महावीर के जीवन को स्पर्श करने वाला हैं । भगवान महावीर का अभय अनंत था, पराक्रम अदम्य और सत्य असीम था । इसलिए वे अहिंसक थे । वे अहिंसा की साधना में सतत संलग्न रहें, इसलिए उन्होंने कहा- जो मौन हैं , वह सत्य हैं और जो सत्य हैं, वह मौन हैं ।सत्य – जिज्ञासु के लिए भगवान का जीवन – दर्शन महान समृद्धि- पथ हैं । महावीर को पढ़ना अपने जीवन की कल्याण गाथाएं पढ़ना हैं और महावीर को पाना अपने आपको पाना हैं । आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में – इस असंयम- बहुल युग में महावीर को प्रस्तुत करने का अर्थ संयम को पुनर्जीवित करना हैं । हर नया सूरज नए विकास का साक्षी बनकर ही गगनांगण में उदित होता हैं । भगवान महावीर का जीवन- चरित्र अध्यात्म की जीवंत कहानी हैं । उसे पढ़ कर सहिष्णुता, ध्यानशीलता और ज्ञानशीलता आदि को अपने जीवन में शिरोधार्य किया जा सकता हैं । प्रणम्य वह होता हैं जो अपने जीवन में अनुत्तर उपलब्धि करता हैं । भगवान महावीर ने साधना का पथ लिया । उस पर चलते हुए उन्होंने असह्य कष्ट सहन किए । उनकी जीवनगाथा सुनने और पढ़ने वाले रोमांचित हो जाते हैं । शूलपाणि यक्ष ने एक रात में उनको भयंकर कष्ट दिए। भगवान महावीर ने प्रतिकारात्मक संवेदन किए बिना उन कष्टों को सहन कर लिया । उस रात उनको थोड़ी देर नींद आई। उस समय उन्होंने दस स्वप्न देखें । यह प्रसंग जितना प्रेरक हैं, उतना ही विलक्षण हैं । भगवान महावीर के जीवन प्रसंग का साक्षात्कार कर उनके प्रति सहज ही श्रद्धावनत हो जाएंगे, ऐसा विश्वास हैं ।
प्रदीप छाजेड
( बोरावड़ )
9993876631

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