भूमिका- यह केवल एक कथा नहीं, बल्कि जीवन की उस यात्रा की गाथा है जिसमें कठिनाइयों, अभावों और चुनौतियों के बीच भी शिक्षा, संस्कार और परिश्रम से सफलता की नई राहें खुलती हैं। मजदूर का शिक्षित पुत्र और शिक्षक परिवार की बेटी—दोनों ही अलग सामाजिक धरातल से आए, लेकिन उनका मिलन केवल विवाह का बंधन नहीं था, बल्कि यह दो संघर्षशील जीवनों का संगम था। जैसे कीचड़ और जल के बीच रहकर भी कमल अपनी पवित्रता बनाए रखता है, वैसे ही यह कथा दिखाती है कि अभावों के सरोवर में भी सपनों के कमल खिल सकते हैं। “संघर्ष-सरोवर के कमल” उन सभी परिवारों और युवाओं को समर्पित है जो मानते हैं कि संघर्ष ही जीवन का वास्तविक सौंदर्य है, और जो कठिनाइयों के बीच भी आशा और प्रेम के फूल खिला सकते हैं।
ईंटों के ढेर और सपनों की उड़ान
गाँव के पश्चिमी छोर पर, जहाँ कच्ची गलियाँ धूल में लिपटी रहती थीं, वहाँ रामसखाराम का छोटा-सा घर था। मिट्टी से लिपा हुआ आँगन, फूस की छत और बगल में बंधा बैल—यही उसकी दुनिया थी। रामसखाराम खेतिहर मजदूर था। दूसरों के खेतों में काम करना ही उसकी जीविका थी। सुबह सूरज निकलने से पहले ही वह फावड़ा उठाकर निकल पड़ता और शाम तक खेत की मिट्टी, धूप और पसीने से तर हो जाता।उसकी पत्नी गीता, घर संभालने वाली सीधी-सादी औरत थी। जीवन भर तंगी देखी थी, मगर कभी हार नहीं मानी। जब घर में बच्चों के लिए खाना कम पड़ जाता, तो खुद भूखी रहकर भी बच्चों का पेट भर देती।
रामसखाराम का सबसे बड़ा बेटा था अजय। बचपन से ही वह मेहनती और जिज्ञासु स्वभाव का था। गाँव के दूसरे बच्चे जब खेलों में मस्त रहते, तब अजय स्कूल की पुरानी कॉपी में लिखने-पढ़ने में तल्लीन रहता। उसके हाथों में छाले भले ही मजदूरी से पड़ गए हों, लेकिन आँखों में सरकारी नौकरी का सपना चमकता था। स्कूल की जर्जर इमारत, टेढ़े-मेढ़े बेंच और टूटी खिड़कियों के बीच बैठकर भी अजय का मन किताबों से जुड़ा रहता। मास्टरजी अक्सर कहा करते—“अजय, अगर तुम चाहो तो अपने पूरे खानदान की तकदीर बदल सकते हो। तुम्हें मेहनत करनी होगी, गाँव से बाहर निकलना होगा।”यह शब्द अजय के मन में गूँजते रहते।घर में अक्सर पैसों की कमी रहती। किताबें खरीदना तो दूर, कभी-कभी फीस भरने के लिए भी माँ-बाप को कर्ज लेना पड़ता। लेकिन गीता हमेशा बेटे को हिम्मत देती—“बेटा, तू पढ़-लिख जाएगा तो हमारी हालत बदल जाएगी। हम मजदूर ही रहेंगे, लेकिन तू अफसर बनेगा।”इन शब्दों ने अजय को भीतर से मजबूत बना दिया। वह जानता था कि उसके माता-पिता का पूरा जीवन कठिनाइयों में बीता है, और अब उनकी आँखों का सपना उसी के कंधों पर है।
अजय ने गाँव के स्कूल से हाईस्कूल तक की पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई में वह हमेशा अव्वल रहा। गाँव के लोग भी कहने लगे—“देखना, अजय एक दिन बड़ा अफसर बनेगा।”बारहवीं की पढ़ाई के बाद अजय ने शहर जाकर कॉलेज में दाखिला लिया। यहाँ आकर उसे पहली बार असली संघर्ष का एहसास हुआ। शहर की भीड़, तेज़ रफ़्तार जीवन और प्रतियोगी माहौल—सब कुछ नया था। लेकिन अजय ने कभी हार नहीं मानी।वह दिन में कॉलेज जाता और रात को ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्चा निकालता। अकसर उसे नींद पूरी नहीं मिलती, लेकिन वह किताबों के पन्नों में अपनी थकान भूल जाता।प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी स्नातक पूरा करने के बाद अजय ने ठान लिया कि वह सरकारी नौकरी ही करेगा। वह जानता था कि यही रास्ता है, जिससे उसके परिवार को सम्मान मिलेगा।वह दिन-रात पुस्तकालय में बैठा पढ़ता। पसीना बहाने वाले हाथ अब किताबों की गहराई में डूब चुके थे। कभी-कभी उसे लगता कि यह राह बहुत कठिन है, लेकिन पिता की मजदूरी से भीगी हथेलियाँ उसकी आँखों में आ जातीं और वह फिर पढ़ाई में लग जाता।कई बार असफलता हाथ लगी। परीक्षा दी, परिणाम आया, और नाम सूची में नहीं। लेकिन अजय ने हार नहीं मानी। वह कहता—“मुझे अपने माँ-बाप की उम्मीदें टूटने नहीं देनी।”आख़िरकार, एक दिन वह घड़ी आई जब उसे सरकारी नौकरी में चयन पत्र मिला। पोस्ट ऑफिस से चिट्ठी आई और उसमें लिखा था—“आपका चयन राजस्व विभाग में सहायक पद पर हुआ है।”
उस दिन रामसखाराम की आँखों में आँसू थे। उसने बेटे को गले लगाकर कहा—“बेटा, आज तूने मेरी पूरी ज़िंदगी का बोझ हल्का कर दिया।”गीता ने घर के छोटे से आँगन में दीपक जलाए और पड़ोसियों को गुड़ बाँटा। गाँव में जैसे उत्सव का माहौल बन गया। अजय अब मजदूर का बेटा नहीं, बल्कि सरकारी अफसर बन गया था। लेखपाल की बेटी–एक आदर्श शिक्षिका गाँव के उत्तर दिशा में बसा एक मध्यमवर्गीय घर, जहाँ लाल ईंटों की दीवारें और खपरैल की छत थी। यहीं रहते थे हरिनाथ मिश्र, जो पास के कस्बे में लेखपाल थे। नौकरी भले ही बहुत ऊँचे दर्जे की न हो, लेकिन गाँव में उनका नाम और सम्मान दोनों थे। लोग उन्हें “मिश्रजी” कहकर बुलाते और ज़मीन-जायदाद के मसलों में उनकी राय अंतिम मानी जाती।हरिनाथ मिश्र का परिवार अपेक्षाकृत सम्पन्न था। घर में गऊशाला, कुछ खेत और पक्की दीवारों वाले कमरे थे। उनकी पत्नी सुशीला देवी साधारण, धर्मनिष्ठ और सादगी से भरी हुई महिला थीं। लेकिन इस परिवार की पहचान केवल हरिनाथ मिश्र की नौकरी से नहीं, बल्कि उनकी बेटी अनामिका से भी थी।अनामिका का स्वभाव बचपन से ही गंभीर और संवेदनशील था। जब बाकी लड़कियाँ गुड़ियों से खेला करतीं, तब वह किताबों में डूबी रहती। पिता उसे खूब पढ़ाना चाहते थे। उन्होंने सोचा—“लड़कियाँ भी बेटों से कम नहीं। अगर बेटा अफसर बन सकता है, तो बेटी भी समाज का दीपक जला सकती है।”इसी सोच के साथ उन्होंने अनामिका को शहर के अच्छे विद्यालय में भेजा। वह मेहनती निकली। पढ़ाई में सदैव प्रथम और शिक्षकों की प्रिय।
बारहवीं पूरी करने के बाद अनामिका ने स्नातक किया और आगे शिक्षा शास्त्र (B.Ed.) की पढ़ाई की। उसका सपना था कि वह एक दिन शिक्षिका बने और गाँव की बेटियों को पढ़ा-लिखाकर आत्मनिर्भर बनाए।अनामिका की नियुक्ति कस्बे के ही प्राथमिक विद्यालय में हो गई। पहले ही दिन से उसने यह ठान लिया कि शिक्षा केवल किताबों तक सीमित नहीं रहेगी। उसने बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ अनुशासन, संस्कार और आत्मविश्वास देना शुरू किया।कक्षा की चारपाई जैसी बेंचों पर बैठने वाले गरीब बच्चों के बीच वह खुद घुल-मिल जाती। कभी उनके साथ मिट्टी में बैठ जाती, तो कभी उनके साथ मिलकर पौधारोपण करवाती। धीरे-धीरे उसका नाम बच्चों के बीच “अनामिका दीदी” के रूप में प्रसिद्ध हो गया।हरिनाथ मिश्र को अपनी बेटी पर गर्व था। लेकिन समाज की परंपराएँ परिवार के सामने विवाह का प्रश्न खड़ा करती रहीं।रिश्तेदार अक्सर कहते—“मिश्रजी, अब लड़की बड़ी हो गई है। अच्छी नौकरी कर रही है, तो कोई ऊँचे खानदान का लड़का ढूँढिए।”हरिनाथ मुस्कुराकर जवाब देते—“मुझे ऐसा वर चाहिए, जो अनामिका की काबिलियत को समझे और उसका सम्मान करे। ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा—ये सब बातें मेरे लिए महत्वहीन हैं।”अनामिका भी शादी को लेकर अपने विचार रखती थी। वह चाहती थी कि उसका जीवनसाथी केवल दिखावे या पद से बड़ा न हो, बल्कि दिल से बड़ा हो।वह अपनी सहेली से कहा करती—“मैं ऐसा पति चाहती हूँ, जो मेरे काम को समझे, समाज की सेवा में साथ दे। चाहे उसके पास बहुत धन न हो, लेकिन उसका दिल ईमानदार होना चाहिए।”
यही सोच एक दिन उसकी किस्मत से टकराने वाली थी। मजदूर का शिक्षित पुत्र अजय, जो हाल ही में सरकारी नौकरी में चयनित हुआ था, अनामिका के जीवन में प्रवेश करने वाला था।दोनों की दुनियाएँ अलग थीं—एक ओर मजदूर का बेटा, जिसने पसीने और संघर्ष से अपनी राह बनाई थी।दूसरी ओर लेखपाल की बेटी, जिसने शिक्षा और संस्कार से अपनी पहचान गढ़ी थी।लेकिन भाग्य ने उनके रास्तों को मिलाने की तैयारी कर ली थी। पहली मुलाक़ात–नए रिश्तों की आहट सरकारी नौकरी लगने के बाद अजय का परिवार गाँव में चर्चा का विषय बन गया था। मजदूर का बेटा अब अफसर बन गया था। लोग कहते “रामसखाराम की मेहनत रंग लाई। देखो, उसका बेटा अब कितने बड़े ओहदे पर है।”गाँव के बुजुर्ग से लेकर छोटे बच्चे तक, सब अजय की ओर गर्व से देखते।इन्हीं दिनों हरिनाथ मिश्र के एक रिश्तेदार ने रामसखाराम को सुझाव दिया—“क्यों न अजय की शादी अनामिका से कर दी जाए? लड़की पढ़ी-लिखी है, शिक्षिका है। संस्कार भी उत्तम हैं। दोनों की जोड़ी खूब जमेगी।”
रामसखाराम के मन में हल्की झिझक थी। वह सोचते—“हम गरीब मजदूर लोग, और सामने लेखपाल का घर। कहीं वे हमें ठुकरा न दें।”लेकिन गीता ने हिम्मत बंधाई—“अगर लड़का अच्छा है, नौकरी करता है और संस्कारी है, तो हमें डरने की ज़रूरत नहीं। रिश्ता समानता से बनता है, दौलत से नहीं।”आख़िरकार, दोनों परिवारों की मुलाक़ात का दिन तय हुआ। मिश्रजी का घर साफ-सुथरा, नीम के पेड़ की छाँव से घिरा था। जब रामसखाराम अपने परिवार के साथ वहाँ पहुँचे, तो उनका दिल तेज़ धड़क रहा था।मिश्रजी ने बड़े आत्मीय भाव से उनका स्वागत किया—“रामसखाराम जी, आप हमारे अतिथि हैं। हमारे घर में आपका सम्मान है।”बातचीत शुरू हुई। गाँव, समाज, नौकरी और शिक्षा पर चर्चा चली। बीच-बीच में सुशीला देवी और गीता रसोई से चाय-नाश्ता लातीं और मुस्कुराकर एक-दूसरे की ओर देखतीं।अजय और अनामिका आमने-सामने कुछ देर बाद, सुशीला देवी ने अनामिका को आवाज़ दी—“बेटी, ज़रा इधर आओ।”अनामिका हल्के गुलाबी सलवार-सूट में आई। उसके हाथ में एक ट्रे थी, जिसमें चाय के कप रखे थे। चेहरे पर सादगी और आँखों में आत्मविश्वास झलक रहा था।अजय पहली बार उसे देख रहा था। उसके मन में हलचल हुई।“यही है वो, जिससे शायद मेरी ज़िंदगी का सफर जुड़ सकता है।”
अनामिका ने भी जब अजय की ओर देखा, तो पाया कि उसके व्यक्तित्व में एक सादगी और गहराई है। साधारण कपड़ों में भी उसका आत्मविश्वास चमक रहा था।कुछ समय बाद, दोनों को आँगन के कोने में बैठने का अवसर मिला। यह परिवारों की परंपरा थी कि लड़का-लड़की आपस में थोड़ी बातचीत कर लें।अनामिका ने मुस्कुराकर पूछा—“आपकी पढ़ाई कहाँ तक हुई है?”अजय ने सहजता से उत्तर दिया—“स्नातक के बाद मैंने प्रतियोगी परीक्षा पास की। अभी राजस्व विभाग में नौकरी मिली है।”
अनामिका की आँखों में चमक आ गई।“सरकारी नौकरी तो बहुत बड़ी बात है। आपने ज़रूर बहुत मेहनत की होगी।”अजय ने गंभीर स्वर में कहा—“मेहनत तो की ही, पर असली मेहनत मेरे माँ-बाप ने की है। अगर उन्होंने अपनी भूख दबाकर मुझे पढ़ाया न होता, तो मैं आज यहाँ नहीं होता।”अनामिका का दिल छू गया। उसने सोचा—“यही गुण चाहिए जीवनसाथी में—संघर्ष की कदर और माता-पिता का सम्मान।”दूसरी ओर, परिवारजन भी धीरे-धीरे एक-दूसरे को समझ रहे थे। मिश्रजी ने रामसखाराम की ईमानदारी और सरलता को महसूस किया। वहीं गीता को अनामिका की सादगी और शिक्षिका होने का गर्व था।चाय-नाश्ते के बाद जब रामसखाराम का परिवार विदा लेने लगा, तो मिश्रजी ने कहा—“रिश्ते दिलों से बनते हैं। हमें सोचने-विचारने का समय तो चाहिए, लेकिन आपका परिवार हमें बहुत अच्छा लगा।”रामसखाराम ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया—“हम भी यही चाहते हैं कि यह रिश्ता समानता और सम्मान पर टिके।”उस रात अनामिका देर तक जागती रही। अजय की बातें उसके मन में गूँजती रहीं—“मेरे माँ-बाप की मेहनत…”उसने महसूस किया कि यह रिश्ता केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो संस्कृतियों और दो संघर्षों का संगम हो सकता है।
विवाह की राह – परंपरा और चुनौतियाँ अजय और अनामिका की पहली मुलाक़ात के बाद दोनों परिवारों के दिलों में एक सकारात्मक छवि बनी। परंतु विवाह का निर्णय इतना आसान नहीं था। भारतीय समाज में रिश्ते केवल दो व्यक्तियों का मेल नहीं, बल्कि दो कुलों और परंपराओं का मिलन माने जाते हैं। यही कारण था कि धीरे-धीरे समाज और रिश्तेदारों की आवाज़ें इस रिश्ते के इर्द-गिर्द मंडराने लगीं। गाँव की चौपाल पर जब यह खबर पहुँची कि मजदूर का बेटा अब लेखपाल की बेटी से ब्याहने वाला है, तो चर्चा शुरू हो गई। कोई कहता—“भई, जमाना बदल गया है। पढ़ाई-लिखाई ही सब कुछ है। लड़का अफसर है, अब मजदूर का बेटा नहीं रहा।” तो कोई ताना मारता—“मिश्रजी का दिमाग खराब हो गया है क्या? बेटी को मजदूर खानदान में देंगे? भले ही नौकरी लग गई हो, पर खून तो मजदूर का ही है।” यह ताने केवल चौपाल तक ही सीमित नहीं रहे। धीरे-धीरे रिश्तेदारों और परिवारवालों तक भी पहुँच गए। हरिनाथ मिश्र सम्मानित व्यक्ति थे। उन्हें समाज की बातों की परवाह कम थी, लेकिन रिश्तेदारों के दबाव को अनदेखा करना आसान नहीं था। उनकी बड़ी बहन ने फोन पर कहा—“भाई, सोच-समझकर कदम उठाना। लड़की पढ़ी-लिखी है, अच्छी नौकरी कर रही है। क्यों मजदूर घर में बिठाना चाहते हो? बाद में पछताओगे।”
मिश्रजी ने शांत स्वर में उत्तर दिया—“दीदी, मैं वर का खानदान नहीं, उसके संस्कार और मेहनत देखता हूँ। अजय जैसा लड़का मिलना आसान नहीं।”दूसरी ओर, रामसखाराम के मन में भी डर था। वह गीता से कहता—“हम गरीब लोग हैं। अगर कहीं मिश्रजी ने रिश्ता तोड़ दिया तो? लोग कहेंगे कि मजदूर का बेटा होकर अफसर बन गया तो घमंड चढ़ गया।”गीता ने पति को ढाँढस बंधाया—“डरने की ज़रूरत नहीं। जिसने इतना संघर्ष किया, उसके भाग्य से ही यह रिश्ता तय होगा। अगर नियति ने चाहा तो यह मिलन होकर रहेगा।”इन सबके बीच अजय और अनामिका का मन स्थिर था। वे दोनों एक-दूसरे को ज्यादा नहीं जानते थे, लेकिन पहली मुलाक़ात ने उनके दिलों में भरोसा जगा दिया था।अजय ने अपने पिता से कहा—“बाबा, मैं जानता हूँ कि यह रिश्ता आसान नहीं है। लेकिन अगर लड़की पढ़ी-लिखी है, संस्कारी है और मेरे जीवन के उद्देश्य को समझती है, तो यही सही जीवनसाथी है। बाकी समाज की बातें तो कभी खत्म नहीं होंगी।”अनामिका ने भी अपनी माँ से कहा—“माँ, मुझे लगता है अजय जैसा पति ही चाहिए। उसमें ईमानदारी है, संघर्ष है और अपने माता-पिता के प्रति सम्मान है। यही असली दौलत है।”
कई दिनों की चर्चाओं और विरोधों के बाद, आखिरकार मिश्रजी ने निर्णायक फैसला किया। एक पारिवारिक बैठक में उन्होंने स्पष्ट कहा—“मेरे लिए बेटी की खुशी सबसे बड़ी है। समाज क्या कहेगा, यह मैं नहीं सोचता। मुझे अजय का चरित्र और संघर्ष पसंद है। यही रिश्ता होगा।”उनकी बात सुनकर सुशीला देवी मुस्कुराईं और बोलीं—“आपने सही निर्णय लिया। लड़की की जिंदगी दौलत से नहीं, अच्छे जीवनसाथी से सँवरती है।”रामसखाराम के घर यह खबर पहुँची तो सबके चेहरे खिल उठे। गीता ने मंदिर में दिया जलाया और हाथ जोड़कर कहा—“हे माँ, तूने हमारी लाज रख ली।”शादी की तैयारी धीरे-धीरे शादी की तैयारी शुरू हो गई। गाँव और कस्बे दोनों से रिश्तेदारों को न्योते भेजे गए। हल्दी, मेहंदी, संगीत और बारात की योजनाएँ बनने लगीं। घर-आँगन सजने लगे।यह केवल दो परिवारों का मिलन नहीं था, बल्कि समाज के लिए एक संदेश भी था कि मेहनत और शिक्षा से कोई भी ऊँच-नीच की दीवारें तोड़ सकता है।
विवाह और नया जीवन गाँव में चैत का महीना था। हवा में हल्की-हल्की गुनगुनाहट थी और खेतों में गेहूँ की सुनहरी बालियाँ लहराती थीं। इसी बीच दोनों परिवारों के घरों में शादी की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही थीं।हरिनाथ मिश्र के घर आँगन में आम और अशोक के पत्तों से बनी झालरें टाँगी गईं। महिलाएँ मंगलगीत गा रही थीं—“आओ सजनी, अब सखियों संग….”हल्दी की महक और मेंहदी की खुशबू पूरे घर में फैल गई थी।अनामिका के हाथों पर गहरी मेंहदी रची थी। सहेलियाँ हँसी-ठिठोली कर रही थीं। एक ने मजाक किया—“बहन, अगर मेंहदी गहरी चढ़ी तो पति बहुत प्यार करेगा।”अनामिका शरमा गई और मुस्कान दबा न सकी।उधर, रामसखाराम के घर में भी उत्सव का माहौल था। मजदूर का घर पहली बार बारात निकालने जा रहा था। मोहल्ले भर के लोग मदद में जुट गए। किसी ने पंडाल सजाया, किसी ने खाना बनाने की व्यवस्था की।
अजय हल्दी की रस्म में पीले कपड़े पहने बैठा था। माँ गीता ने बेटे के माथे पर हल्दी लगाते हुए आँखों से आँसू पोंछे—“बेटा, आज तेरा सपना पूरा हो रहा है। तूने हमें गर्व से भर दिया।”शुभ मुहूर्त पर ढोल-नगाड़ों और शहनाई की धुन के बीच बारात मिश्रजी के घर पहुँची। बाराती नाचते-गाते चले। बच्चे फूल बरसाते और महिलाएँ मंगलगीत गातीं।मिश्रजी ने द्वार पर खड़े होकर आत्मीयता से बारात का स्वागत किया।“रामसखाराम जी, आज आपके बेटे ने हमारे घर को सम्मानित किया है।”मंडप में यज्ञकुंड जल रहा था। पंडित मंत्रोच्चार कर रहे थे।अनामिका ने लाल साड़ी पहनी थी, माथे पर सिन्दूर की रेखा जैसे प्रतीक्षा कर रही थी। अजय ने भी सादा परंतु गरिमामय शेरवानी पहन रखी थी।जब वरमाला की रस्म हुई तो पूरा मंडप तालियों से गूँज उठा। अजय और अनामिका की आँखों में एक-दूसरे के लिए विश्वास और अपनापन झलक रहा था।फेरे शुरू हुए। पंडित ने मंत्र पढ़े—“धर्मे चार्थे च कामे च….”अजय और अनामिका ने अग्नि के सात फेरे लेकर जीवनभर साथ निभाने की प्रतिज्ञा ली।गीता और सुशीला देवी दोनों की आँखों से आँसू झर रहे थे—खुशी और भावनाओं से भरे आँसू।विदाई का समय सबसे कठिन था। अनामिका पिता के गले लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी—“बाबा, मुझे माफ़ कर दीजिए, अगर कभी कोई भूल हुई हो।”
मिश्रजी ने उसके सिर पर हाथ रखा—“बेटी, अब यह तुम्हारा घर है। लेकिन याद रखना, मेरा आँगन हमेशा तुम्हारे लिए खुला रहेगा।”अजय जब अनामिका को अपने घर लाया, तो गीता ने थाली से आरती उतारी और दहलीज पर चावल से भरा कलश रख दिया। अनामिका ने उसे पाँव से धीरे-धीरे आगे बढ़ाया।अब यह केवल घर नहीं रहा था, बल्कि दो संस्कृतियों और दो संघर्षों का संगम बन गया था।गाँव के लोग कहते—“देखो, मजदूर का बेटा और लेखपाल की बेटी—कैसा सुन्दर मेल है।”पहली रात अजय और अनामिका आँगन में बैठे थे। आसमान में चाँद झिलमिला रहा था।अनामिका ने धीरे से कहा—“आज से मैं तुम्हारे साथ हूँ, हर सुख-दुख में। लेकिन एक वचन चाहती हूँ—हम दोनों मिलकर समाज में शिक्षा का दीप जलाएँगे।”अजय ने उसका हाथ थामकर कहा—“यह वचन मैं दिल से देता हूँ। मेरी मेहनत और तुम्हारी शिक्षा—यही हमारी सबसे बड़ी पूँजी होगी।” संघर्ष और सहयोग से भरा वैवाहिक जीवन शादी के कुछ दिन बाद का समय सबसे नया और सबसे संवेदनशील होता है। अजय और अनामिका के लिए भी यह दौर अलग-अलग अनुभवों से भरा रहा।अनामिका जब अजय के घर आई, तो उसने देखा कि घर बहुत साधारण है।
मिट्टी का आँगन, खपरैल की छत और रसोई में धुएँ से भरी चूल्हे की गंध।उसने मन ही मन सोचा—“मैं एक ऐसे परिवार से आई हूँ जहाँ सुविधा थोड़ी अधिक थी। लेकिन यहाँ प्रेम और अपनापन कहीं ज़्यादा है। मुझे इस घर को सजाना है, सँवारना है।”वह गीता के साथ रसोई में काम करने लगी। कपड़े धोने, झाड़ू-पोंछा करने, सब कुछ सहजता से सीख लिया। गाँव की औरतें देखकर कहतीं—“मिश्रजी की बेटी होकर भी बिल्कुल सादगी से जी रही है। सचमुच संस्कारी है।”अजय अब नौकरी में व्यस्त रहता। सुबह जल्दी दफ्तर निकलता और शाम को देर से लौटता। कभी-कभी काम का बोझ इतना होता कि थककर चुपचाप बिस्तर पर गिर जाता।अनामिका उसकी थकान समझती। वह खाना परोसते हुए कहती—“आप आराम कर लीजिए, बाकी बातें बाद में कर लेंगे।”अजय मुस्कुराकर सोचता—“सचमुच, यह केवल पत्नी नहीं, मेरी हमसफ़र है।”हालाँकि अजय सरकारी नौकरी में था, पर शुरुआती वेतन बहुत अधिक नहीं था। ऊपर से परिवार में छोटे भाइयों-बहनों की पढ़ाई और माँ-बाप की दवाइयों का खर्चा।कभी-कभी पैसों की तंगी महसूस होती। अनामिका तब हौसला देती—“चिंता मत कीजिए। मैं भी तो कमाती हूँ। मेरा वेतन इस घर की ज़रूरतों में काम आएगा। हम मिलकर सब संभाल लेंगे।”यह सुनकर अजय को गर्व होता—“अनामिका मेरे जीवन का सबसे बड़ा सहारा है।”वैवाहिक जीवन में सब कुछ सुचारू ही नहीं था। कभी अजय देर से घर आता तो अनामिका नाराज़ हो जाती। कभी घर के कामकाज या रिश्तेदारों की अपेक्षाओं को लेकर तनाव पैदा हो जाता।
एक दिन अनामिका ने कहा—“आपको मेरी बातों के लिए कभी समय ही नहीं मिलता।”अजय ने थके स्वर में उत्तर दिया—“मैं दफ्तर और परिवार दोनों का बोझ उठा रहा हूँ। थोड़ा मुझे भी समझो।”कुछ पल के लिए वातावरण भारी हो गया। लेकिन अगले ही क्षण अनामिका ने अजय का हाथ पकड़कर कहा—“हम एक-दूसरे को समझेंगे, तभी यह रिश्ता मजबूत होगा।”अजय ने भी मुस्कुराकर कहा—“तुम सही कहती हो। हमें झगड़ों को पलभर में खत्म करना चाहिए।”दोनों ने मिलकर निश्चय किया कि वे केवल अपने परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि गाँव के लिए भी कुछ करेंगे।अनामिका ने स्कूल में बच्चियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। वह कहती—“अगर बेटियाँ पढ़ेंगी तो पूरा घर उजाले से भर जाएगा।”अजय ने अपनी नौकरी के साथ-साथ गाँव के युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में मदद करना शुरू किया।धीरे-धीरे उनका घर शिक्षा और प्रेरणा का केंद्र बन गया।समय के साथ अजय और अनामिका का रिश्ता और भी गहरा होता गया। जब कभी अजय निराश होता, अनामिका उसे सँभाल लेती।जब अनामिका थक जाती, अजय उसके लिए चाय बना देता। एक रात अनामिका ने तारों की ओर देखते हुए कहा—“क्या तुम्हें नहीं लगता, हमारी शादी केवल हम दोनों का नहीं, बल्कि दो दुनियाओं का संगम है?”अजय ने मुस्कुराकर उत्तर दिया—“हाँ, और यह संगम तभी तक सुंदर रहेगा जब तक हम दोनों एक-दूसरे का सहारा बने रहेंगे।”इस प्रकार उनका वैवाहिक जीवन संघर्षों और चुनौतियों से भरा रहा, परंतु हर कठिनाई में एक-दूसरे का साथ उन्हें मजबूत बनाता गया।
डॉ. धर्मेन्द्र सिंह “दीपेंद्र ठाकुर”
सह आचार्य, हिन्दी विभाग
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार
ई-मेल : dharmendra.singh@dsvv.ac.in
मोबाइल : 9120907173

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