संस्मरण-रमेश तोरावत

संस्मरण

   फावडी एक गरीब परिवार की बेटी थी.. उस के माता पिता दोनों मजदूरी करते थे और वह अकेली दिन भर इधर उधर भटका करती थी.. उन दिनों मेरा रहना गरीब और कामगारों की बस्ती में था.. कुछ अमिर थे मगर  बस्ती गरीबो की ही थी और आज भी गरीब तबका वहा रहता है.. वहा मेरी किराणा दुकान थी और रहना भी वही था.. फावडी का असल नाम तो मुझे नही मालूम था.. उस के कुछ दांत बाहर की और निकले हुए थे सो सब लोग उसे फावडी फावडी कह कर पुकारते थे और मेरे जेहन में भी यही नाम उसका अंकित हो गया.. हमेशा के लिए.. सदा सदा के लिए.
        वह कोई आठ साल की रही होंगी और दिन भर इधर उधर दौड़ा करती.. पढाई लिखाई से तो शायद उस की दुश्मनी थी.. कभी कभार वो स्कुल जाती जरूर थी मगर मुझे नही लगता की अक्षरो अंको से उस का कोई नाता भी था.. कुछ लोगो के घर का सामान ले आती तो बदले में चव्वनी अठन्नी उसे मिल जाती.. वो मिले हुए पैसे ले कर मेरे पास आती और गोली बिस्कुट खरीदती थी.. इतनी छोटी सी उम्र में भी वो आवारापन की हदे लांघने लगी थी.. एक दिन तो वह मुझे बीड़ी पीती दिखायी दी.. जमीन पर पड़ी अधजली सिगरेट बीड़ी वह ढूंढती और किसी अभ्यस्त व्यक्ति सा नाक में से धुँआ छोड़ती थी.. एक बार बीड़ी पीती उसकी नजर मुझ से मिली तो वह खी खी कर हँसने लगी.. गंदगी और उस का चोली दामन का साथ था.. नाक में से तो सदा ही तरल पदार्थ भरा रहता था और वो सुडूप सुडुप कर भीतर खींचते रहती थी.. दिखने में भी वह साधारण या कुछ हद तक पहली बार में नही भाने वाली थी.. नन्ही उम्र में उस की हरकते इस बात की गवाह थी की भविष्य उसका कलंकित है.. आवारापन शब्द उस के लिए उपयोग करना पसंद नही था मगर उस की हरकतों के लिए इस से कोई कमजोर शब्द मेरे पास है भी नही.. सुना था की जुर्म का जन्म गरीबी की दहलीज पर होता है.. फावडी उसी दहलीज पर खड़ी थी.. छोटी सी उम्र में अपने पुरे जलवो के साथ.. मै हैरान था की पुस्तको में पढ़ी हुयी बाते केसे यथार्थ रूप में सामने आ रही है.
      भाषा उसकी अत्यंत कठोर थी.. गालिया तो बेछूट उस के मुख से निकलती थी.. उसे यह भी भान नही रहता था की बड़ो से कैसे बात करते है.. बड़ो को भी तू तड़ाक से बोलना उसका शगल था.. माँ बहनो की शान में गुस्ताखी तो वो यु चलते फिरते कभी भी कही भी कर देती थी.. मुझे हैरानी होती थी की इतनी गंदी गंदी गालिया वह कहा से सिख कर आती है..? मेरा बेटा राहुल जब एकाध साल का रहा होंगा.. राहुल बहुत सुंदर और हस्टपुष्ट था.. पास पड़ोस के सभी लोग उसे ले जाते थे और उस के साथ खेलते थे.. फावडी भी चाहती थी की राहुल को गोद में ले.. उसे खिलाये.. उस के साथ खेले मगर संकोच वश बोल नही पाती थी.. एक बार उस ने कहा भी की राहुल को घुमा कर लाऊ तो मैने गुस्से से उसे घूरा.. जवाब में वो बोली तेरे लड़के को कोई खा नही जाउंगी और भाग खड़ी हुयी.. मै गुस्से में भुनभुना कर रह गया.
  जैसे जैसे उसकी उम्र बढ़ती जा रही थी उसकी भाषा और भी अधिक असभ्य होती जा रही थी.. नल पर पानी भरने को ले कर वह बड़ी बड़ी महिलाओ से यु उलझती थी मानो स्वयं कोई बहुत अधेड़ औरत हो.. बिच में घुस कर पानी भरना उसे भाता था और इसी बहाने लोगो से झगड़ा करना उसका एक प्रकार का शौक हो गया था.. लोग बाग़ भी तमाशा देखते और खूब मुस्कराते थे.. बढ़ती उम्र के साथ उस में परिवर्तन शुरू हो गए थे.. सजना संवरना उस ने शुरू कर दिया था.. अपने शरीर में होने वाले बदलाव को उस ने महसूस कर लिया था और यह भी उस ने महसूस कर लिया था की आवारा लड़को की टोली उसे घूरने लगी है.. एक दिन वह मुझे खूब सारी लिपिस्टक लगाती जाती दिखी.. वह बहुत ही गंदी और फूहड़ दिख रही थी.. पता नही कैसा मेकअप किया था जिस में वह भद्दी और बकवास नजर आ रही थी.. पडोसी भी वही खड़ा था.. मेरे पास आ कर एक आँख दबाते हुए बोला देख लो लड़की के जलवे.. लग गयी लाइन पर अभी से.. मैने प्रश्न वाचक निगाहो से उसे देखा तो वह बोला अभी तो पन्द्रह साल की भी नही हुयी है.. धंधा करने लग गयी है.. बाप को तो कोई चिंता है नही और माँ को ये मानती नही.
      उस का यह रूप देख मुझे बहुत बुरा लगा.. घिन सी आने लगी.. फिर सोचने लगा ये इतनी बदसूरत दिखती है तो कौन इसका शरीर खरीदता होंगा.. मगर सच तो यही था की जिंदा मांस के सौदागर हर जगह होते है.. यह आदमकाल से चला आ रहा व्यपार है.. संभवत पृथ्वी पर सब से पुराना व्यपार.. सदा ही फलने फूलने वाला धंधा.. कोई वास्तु दोष इस धंधे पर लागु नही होता.. शराब और शबाब अशुभ मुहर्त में भी शुभ फलदायक होते है.. ये व्यपार किसी भाषा के मोहताज नही.. कुछ इशारे और काम हो गया.. इंसानियत को शर्मसार करती इस धंधे की आंच कभी कम नही होती.. यह वह प्रखर सूर्य है जो कभी अस्त नही होता.
       कई साल बित गए है.. मै अब उस जगह पर नही रहता हु.. उस दिन वही मेरे पुराने पडोसी मुझे बाजार में मिल गए.. बातचीत में फावडी का भी विषय निकल आया तो उन्होंने बताया की फावडी तो मर गयी.. फावडी मर गयी.. मै चौक गया.. कैसे.. कब.. हुआ क्या..न जाने कितने सवाल एक साथ मैने दाग दिए.. जवाब में उन्होंने बताया की नदी में नहाने गयी थी.. तैरना उसे आता नही था.. पैर फिसला तो गहरे पानी की और चली गयी.. खूब चिल्लायी.. लोग भी थे वहा पर मगर सब से उस ने दुश्मनी कर रखी थी.. कोई भी बचाने नही आया.. सब उस के डूबने का तमाशा देखते रहे.. सब उसे डूबते देखते रहे.. और फिर वह मर गयी.. नदी में डूब गयी.
    रात भर मै फावडी के बारे मे ही सोचता रहा.. उस की मौत की खबर ने मुझे चौकाया तो था मगर दुःख तनिक भर भी नही हुआ था.. ऐसा क्यू..? शायद इसलिए की उस से मुझे कोई लगाव नही था.. या फिर उस की हरकतों ने मेरे मन में हमेशा नफरत ही पैदा की थी.. या फिर मै उस के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित था.. किसी नतीजे पर जब नही पहुचा तो सोचने लगा की फावडी यदि आज जीवित होती तो क्या करती.. यह तो तय था की वह जरा भी सुंदर नही थी सो देह व्यपार में वह अधिक दिनों तक नही चलती.. तो क्या वह बदनाम बस्ती की मुखिया बन जाती जिस के इशारो पर लडकिया खरीदी बेचीं जाती है..? हा.. मुझे स्वयं का यह कथन सही प्रतीत हुआ.. छोटी सी ही उम्र में उस ने अपना जो स्वरूप प्रस्तुत किया था उस के मुताबिक उस का भविष्य अपराध की गर्त में छुपा था.. वह स्वभाव से थोड़ी बेवकूफ किस्म की थी और संस्कार जैसे शब्दों का उस के जीवन में कोई महत्व नही था.. घर के हालातो ने शायद उसे इन शब्दों से दूर ही रखा हो.. बरहाल जो भी हो एक मरे हुए इंसान के प्रति मेरी दुर्भावना कायम थी.. यह मेरे स्वरूप और स्वभाव से विपरीत अवस्था है.. मै ऐसा नही हु फिर भी फावडी की मौत ने मुझे दुखी तो नही किया.. हा चौका जरूर दिया था.. जीवन के इस रूप का मैने कभी अध्यन नही किया था.. तो क्या फावडी मेरे जीवन की किताब का कोई पाठ है जिसे मैने अभी पढ़ना है.. समझना है.. क्या जीवन की पाठशाला में मै फावडी चरित्र का मूल्यांकन कर पाउँगा.. मेरी मरी हुयी सव्वेदनाये फिर जीवित हो जाएँगी.. मै फावडी के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त हो पाउँगा.. मन का मन्थन शुरू है और जानता हु की भोर की पहली किरण तक यह शुरू रहेंगा.. अनेक अनेक धन्यवाद.

रमेश तोरावत जैन
अकोला
मोबा 9028371436

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