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कैसा बचपन-नीलम सारंग

दस साल  का अरनव खीझ रहा था एलेक्सा पर,  जब देखो जैसा  बोलो वैसा ही करती रहती है । मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा साथ ।  मम्मी भी ना,  कहो कुछ करती कुछ है । खुद के पास तो समय है नहीं और मुझे फ्रेंड भी ढूंढ कर दिया तो यह एलेक्सा  । इसके साथ कोई कैसे दोस्ती कर सकता है जब देखो जो कहो वैसा करती रहती है मुझे तो ऐसा फ्रेंड चाहिए था जो मेरे साथ खेले मेरी बात मानें और कभी-कभी मुझसे लड़े भी ।  मैं नहीं चाहता मैं जैसा बोलूं मेरा दोस्त वैसा ही करे  ।  आखिर उसकी भी कोई अपनी सोच होनी ही चाहिए । कभी वह अपने मां बाप के बारे में बात करे,  कभी दादा दादी , कभी  नाना नानी जैसे रिश्तों  की बात करे ।  कभी मेरी बात से असहमत होकर मुझसे लड़े । मजा तो तब आए  जब वह छुपे और मैं ढूंढू । मैं कोई शरारत करता वह मुझे रोकता लेकिन यहां तो ऐसा कुछ नहीं है । 

मम्मी पूरा टाइम व्यस्त रहती है ।  कुछ कहो तो एक खिलौना और आ जाता है , कभी गुस्सा हो तो नौकर के साथ बाजार चले जाओ  । कभी मन उदास हो तो पार्टी कर लो और पार्टी में   भी कौन ?  एलेक्सा और मैं और म्यूजिक । नहीं चाहिए मुझे यह सब कुछ कितना अच्छा लगता है पार्क में बच्चो को  खेलते हुए देखता हूँ  ।  टीवी में देखा था पार्क में बच्चों को शरारते करते हुए । मैं बच्चों के साथ खेलना चाहता हूं । सोचता हूँ कयूँ  नहीं हूँ  मैं उनके जैसा ? वैसा ही तो दिखता हूं फिर मुझे कयूँ नहीं खेलने दिया जाता सबके साथ ?  क्या फायदा ऐसे पैसे और रूतबे का ?  रो पड़ा वह और  रोते रोते सो गया  ।

उधर सोनू को नींद नहीं आ रही थी उसे लगता सुबह उठकर सूखी रोटी खाकर उसे काम पर जाना पड़ता है सारा दिन ढाबे वालों के बर्तन बर्तन साफ करो उनकी गालियां खाओ जब चाहे मालिक आकर डांट जाता है कितना काम करो काम खत्म ही नहीं होता कभी तो मुझे भी 10 मिनट  मिले और मैं गुल्ली डंडा खेलूँ जैसे दूसरे बच्चों को खेलते हुए देखता हूं । कभी भागता रहूँ  भागता रहूँ और किसी के हाथ ना आऊँ ।  कभी चुप बैठ जाऊँ बस कुछ सोचता रहूँ  कोई कुछ नहीं कहे कोई कुछ नहीं पूछे  किसी को जवाब ना देना पड़े जो मन करे वह खाने को मिले अच्छे कपड़े पहनूँ । नहा धोकर तैयार होकर टिफिन लेकर मैं भी स्कूल जाऊं और अध्यापक की बातें सुन हंसी मेरे चेहरे पर आए कभी कोई शरारत करूं तो डांट खाओ और फिर दोस्तों के साथ खूब मस्ती करो लेकिन यहां तो ना दोस्त है ,ना मस्ती  है ,न शरारत है बस काम, काम और काम  ही है ।       

कभी-कभी उसे अपने ऊपर बहुत ही गुस्सा आता सुबह उठते ही वह माँ से  बोलता आज मैं ढाबे पर नहीं जाऊंगा काम करने , मुझे सोने दो मुझे सोने दो लेकिन मां तो दो बार उठा कर चली जाती फिर वह सोचता कि काम पर नहीं गया तो इनके लिए खाना कहां से लाऊंगा बची हुई सब्जी ही सही पेट तो भर जाता है कभी मां रोटी ले आती है और वह सब्जी तो दोनों  मिलकर खाकर अच्छी नींद सोते हैं अगर मैं नहीं गया तो कल मालिक की डांट-फटकार खाएगा और भूखे पेट  सोना पड़ेगा सो अलग । उसे फिर मन मार कर बिस्तर से उठना पड़ता । बेमन से बचा हुआ खाना खाकर  काम पर निकल जाता रोज का वही नियम जैसे बिना किसी इच्छाओं के बिना किसी सोच के मशीन की तरह काम में लग जाना है ।

कोई प्यार से बोलता नहीं । कभी-कभी वह सोचता यह लोग सारा गुस्सा मुझ पर उतारते हैं ।  क्यों ? कभी-कभी उसे अपनी जिंदगी डस्टबिन की तरह लगती जैसे हर कोई अपनी गंदगी  डस्टबिन में फेंक देता है और  वह  चुपचाप जो कुछ उसमें डालते जाओ अपने अंदर समेटता चला जाता है वैसे ही उसे भी होना चाहिए सबकी गालियां सुनते सुनते उसे भी चुप रहना चाहिए और इस तरह की तुलना पर कुछ देर के लिए ही सही वह अपने व्यंग पर स्वयं ही हंस लेता । बस यही तो एक मनोरंजन का साधन है उसके पास जिससे वह थोड़ी देर खुश  हो लेता है ।

पूनम जो अनरव की ट्यूशन टीचर थी और सोनू उसके घर आने वाली मेड का बेटा ।  कभी कभी पूनम सोचती इतना अलग परिवेश होते हुए भी दोनों में एक समानता है दोनों ही अपने बचपन को जी नही पा रहे थे और पूनम चाह कर भी उनके लिए कुछ कर नही पा रही थी।

            नीलम नारंग

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