आज बाल साहित्य एक संपूर्ण चिंतन या विमर्श का रूप धारण कर चुका है। इसके विविध पहलुओं पर अलग-अलग मंचों से इतनी चर्चा हो चुकी है कि अब इसे एक गंभीर रचना –कर्म के साथ-साथ एक सामाजिक कर्म के रूप में भी स्वीकार किया जाने लगा है । परंतु क्या ज़रूरत है हमको बच्चों के अलग से साहित्य की? इस प्रश्न पर दरअसल हमने अपने परिवेश में विचार नहीं किया। हम लोगों ने सोचा कि दुनिया के और देशों में बाल साहित्य होता है, तो हमारे यहाँ भी होना चाहिए। उससे बाल साहित्य की शक्ल भी कुछ इस तरह से बन गई है कि जैसा वहाँ होता है वैसा हमारे यहाँ होना चाहिए। इस पर बहुत कम लोगों ने गौर किया है कि दरअसल बाल साहित्य दुनिया के हर देश में नहीं लिखा गया।
बिना बाल साहित्य के न स्वस्थ बच्चे की कल्पना की जा सकती है और न स्वस्थ समाज की| इसीलिए विश्व की जितनी भी प्रमुख भाषाएं हैं, उनमें बाल साहित्य को बहुत महत्त्वपूर्ण दर्जा मिला है| अच्छा बाल साहित्य बच्चे की संवेदना का विस्तार करता है, उसे अधिक समझदार और जिम्मेदार बनाता है और उसमें सकारात्मक संवाद की क्षमता विकसित करता है| कोई भी समृद्ध साहित्य परंपरा बाल साहित्य के बिना पूर्ण नहीं होती। जिस तरह गद्य को कवियों की कसौटी माना गया है, इसी तरह बाल साहित्य भी लेखकों की कसौटी है. बाल साहित्य खेल-खेल में उसे आसपास की दुनिया से परिचित कराता है, उसकी सुकोमल जिज्ञासाओं को शांत करता है।
उस तत्कालीन समाज में अगर बच्चों के लिए साहित्य के नाम पर कुछ था, तो सिर्फ धार्मिक नीति कथाएं और उपदेशात्मक लोक कथाएं। लेकिन जैसे-जैसे समाज में आधुनिकता बोध का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे न सिर्फ बच्चों के स्वतंत्र अस्तित्व को प्रबुद्धजनों ने स्वीकारा, वरन उनके लिए आधुनिक मूल्य-बोध से सम्पन्न साहित्य की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी।प्लेटो ने दो सहस्राब्दि पहले कहा था कि बच्चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है, जैसे आप किसी विदेशी से जिसकी भाषा आपको न आती हो जब बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा और जब वो कुछ बोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम भी उसकी पूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान –प्रदान होता है, वह आधा-अधूरा ही रहता है। सम्प्रेषण का एक बहुत बड़ा क्षेत्र रहेगा, जो अँधेरे में रहेगा।
साहित्य ने एक ऐसा काम किया जो साहित्य का सबसे बुनियादी कर्म है। और यह है कि वो भाषा और संसार के बीच जो पुल भाषा ने बनाए थे, उनकी मरम्मत करना है। बच्चों की दुनिया सर्वथा पृथक होती है। उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है। वे संस्कृति साहित्य तथा समाज के लिए नए होते हैं । सोहनलाल द्विवेदी के शब्दों में ” सफल बाल साहित्य वही है जिसको बच्चे सरलता से अपना सकें”। बच्चे कल्पना के परों पर सवार होकर कहीं भी पहुँच सकते हैं उनका सोचना भले ही असीम हो पर सोचने के लिए उनका शब्द कोश तो एक सीमित परीधि में ही है। इस कारण सहज संप्रेषणीयता बाल –कथा साहित्य की पहली अनिवार्य शर्त है।
साहित्य इस बात की आशा और सम्भावना जगाता है कि शब्द को दोबारा जाग्रत करना सम्भव है।डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने भारतीय भाषाओं में रचित बाल-साहित्य में रचनात्मकता पर बल दिया और बच्चों के लिए मौजूद विज्ञान- कथाओं और एकांकी के ख़ालीपन को भरने की कोशिश की। उस जमाने में जब बाल साहित्य अपनी कोई पहचान तक नहीं बना पाया था, लोग उसे दोयम दर्जे का साहित्य मानते थे, उन दिनों देवसरे ने बाल साहित्य की लगभग हर विधा में लिखा। हर क्षेत्र में अपनी मौलिक विचारधारा की छाप छोड़ी।। वे उस फंतासी को बाल साहित्य से बहिष्कृत कर देना चाहते हैं, जिसका कोई तार्किक आधार न हो।डॉ0 देवसरे बाल साहित्य के प्रयोगवादी लेखक के रूप में जाने जाते हैं। बाल साहित्य में राजा-रानी और परीकथाओं की प्रासंगिकता पर तर्कपूर्ण ढ़ंग से सवाल उठाए और बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास पर बल दिया। अतः कहा जा सकता है कि जिस साहित्य से सहजता पूर्वक बालकों का स्वस्थ मनोरंजन, ज्ञान वर्द्धन और चरित्र संवर्द्धन हो वही सही अर्थों में बाल साहित्य है ।
बाल साहित्य और समाज में अविछिन्न संबंध रहा है। साहित्य समाज का दर्पण है। बाल साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं बल्कि कवि का कर्म होना चाहिए। उसमें उचित शिक्षा का मर्म भी होना चाहिए। बाल साहित्य के द्वारा बच्चों में विभिन्न प्रवृतियों का विकास किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक कहानियों से मनोवैज्ञानिक प्रवृति का विकास किया जा सकता है । विज्ञान कथा साहित्य द्वारा बच्चों में पनपने वाली अतथ्य कल्पनाओं को बदला जा सकता है।
काल्पनिकता भी बाल साहित्य की प्रमुख प्रवृति है। बच्चे अपने चारों ओर जो देखते हैं, उसका परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। साहित्य इसका सबसे सरल और रुचिकर माध्यम हैं। गुलज़ार जी ने लेखन की एक अन्य चुनौती की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार बच्चों की भाषा सीखना एक चुनौति पूर्ण काम है, जैसे पीढियां बदलती हैं , वैसे ही भाषा भी परिवर्तित होती है। बाल साहित्य उसकी शब्द संपदा में सहज ही वृद्धि करने की चुनोती भी स्वीकार करता है।
बच्चों के लिए लिखते समय कोई साहित्यकार भाषा प्रक्रिया के बारे में नहीं सोचता। उसके सामने तो बस बालक का चेहरा होता है, जिस तक वह अपने मन की भावनाएं पहुंचना चाहता है. वह एक गहरी डुबकी लगाकर अपने बचपन में उतरता है, तो उसकी भाषा, संवेदना और अभिव्यक्ति खुद-ब-खुद ऐसी चपल-चंचल हो जाती है, जो हर बच्चे को आकर्षित करे, और खेल -खेल में जीवन की बड़ी से बड़ी बातों को बच्चे के जिज्ञासु मन तक पहुंचा दे। बोलचाल की भाषा ही बाल साहित्य की भाषा हो सकती है, जिसमें स्थानीयता तो होगी ही।
आज के दौर में ही बाल साहित्य की जरूरत सबसे ज्यादा है। ऊपर से देखने पर लगता है कि आज के बच्चे मोबाइल, लैपटाप और कंप्यूटर गेम्स खेलने में मगन हैं, पर सच यह है कि आज का बच्चा बहुत अकेला है। ऐसे में अगर वह कोई अच्छी कविता या कहानी की पुस्तक पढता है तो उसे अवश्य अच्छा लगता है। एक साथी के रूप में पसंद करता है। यही कारण है कि आज नन्हें शिशुओं की भी पुस्तके बनती हैं, जिन्हें देखकर बच्चे बहुत कुछ समझते भी हैं। बेबीज़ डे ऑउट एक अच्छा उदाहरण है।
बाल साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती है, सुदूर गांव के बच्चों, तक पहुंचकर, उनके अंदर जीवन का हर्ष-उल्लास, आत्मविश्वास और कुछ करने की धुन पैदा करना। बाल साहित्य की सबसे बड़ी संभावना यह लगती है कि आने वाले कल में वह घर-घर पहुंचकर बच्चों से दोस्ती करेगा और उन्हें अपना जीवन सार्थक ढंग से जीने को प्रेरित करेगा। आज बाल साहित्य के सृजन में वैज्ञानिक दृष्टि कोण की आवश्यकता है, और यह लेखक के लिए चुनौती भी है। वैज्ञानिक दृष्टि काल्पनिकता को भी विश्वसनीयता का आधार प्रदान करने का गुर सिखाती है, जो आज के बच्चे की मानसिकता के अनुकूल होने या उसकी तर्क संतुष्टि की पहली शर्त है।
एक ज़माने की चित्र कथाओं की विवादास्पद दुनिया में अमर चित्र कथा ने सुखद हस्तक्षेप किया । इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और पुस्तकों में बुनियादी तौर पर कोई बैर का रिश्ता नहीं है और न ही ये एक दूसरे के विकल्प बन सकते हैं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के कारण खतरे में भी नहीं है। आज बहुत सारा बाल साहित्य इंटरनेट के माध्यम से भी उपलब्ध है। जरूरत इस बात की है कि दोनों के मध्य एक सार्थक रिश्ता बनाया जाए ।इस संदर्भ में बाल साहित्य के बंगाली लेखक शेखर बसु की इस बात से सहमत हूँ कि ” आज बालक बदलते हुए संसार की चीज़ों में रूचि लेता है लेकिन वह अपनी कल्पना की सुंदर दुनिया को नहीं छोडता ।” बच्चे बाल साहित्य की धुरी हैं, लेकिन उनके परिवेश का याने सामाजिक दायरे के बिना बाल साहित्य की तस्वीर अधूरी है। साहित्य में समाज का हित निहित होता है। बाल साहित्य एक समानांतर साहित्य है। अतः उसके भीतर समाज की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। समाज से अनिवार्य जुडाव होने के कारण निश्चित ही बाल साहित्य के कुछ सामाजिक सरोकार भी होने ही चाहिए।
बाल साहित्य का प्रथम सरोकार बच्चों में ऐसे जीवन मूल्यों का विकास करना होना चाहिए कि वे भविष्य में एक संस्कारवान नागरिक के रूप में समाज- निर्माण में अपना योगदान कर सकें । बच्चे कल की दुनिया के नींव हैं। हमारा भविष्य हैं और बाल साहित्य बच्चे के मन को रंजित करते हुए उसके सर्वागींण विकास की आधार भूमि तैयार करता है । अच्छे बाल साहित्य से बच्चे में सकारात्मक उर्जा आती है। देश समाज के लिए कुछ करने का भाव जागृत होता है। अच्छा साहित्य वास्तव में मुक्ति की गाथा है । अच्छा बाल साहित्य समाज का दर्पण है और बच्चे राष्ट्र की नींव हैं।
शुभम्
स्वर्ण ज्योति
9443459660