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भारतीय सिनेमा अब तक-कौशल

लूमियर ब्रदर्स, एक फ्रेचं आविष्कारक, प्रथम अन्वेषक, फोटोग्राफिक उपकरण के अग्रणी निर्माता, जिन्होंने एक प्रारंभिक कैमरा और प्रक्षेपण तैयार किया जिसे सिनेमैटोग्राफ कहते हैं l सिनेमा की उत्पत्ति सिनेमैटोग्राफ से हुई l 22 मार्च, 1895 को लूमियर ब्रदर्स ने अपनी डेब्यू /पहली शार्ट फ़िल्म “Workers Leaving the Lumière Factory” प्रदर्शित की और दुनियाँ बदल दी l इस फ़िल्म को व्यापक रूप से बड़े पैमाने पर दर्शकों के लिये चलचित्र का आविष्कार माना गया lआप इस लिंक में “Workers Leaving the Lumière Factory” को देख सकते हैं https://youtu.be/DEQeIRLxaM4 1895 में , लूईस और अगस्त  लूमियर ने बड़े पर्दे को जन्म दिया l 10 दर्शकों के लिए इस लघु फ़िल्म की निजी स्क्रीनिंग की गई l

लूमियर ब्रदर्स  की 50 second की फ़िल्म अराइवल आफ ए ट्रेन (Arrival of a Train) की अपार सफ़लता और दर्शक वर्ग की प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुये इस फ़िल्म को नावेलटी थिएटर में इस बार निम्न और रईस वर्गों दोनों के लिये आकर्षक टिकट दरें रक्खी गई l इतना ही नहीं अपरिवर्तनवादी/रूढ़िवादी महिलाओं के लिये, एक अलग महिला शो भी चलाया गया उस समय l आपको ज्ञात हो कि उस समय चार आने की सबसे सस्ती सीट थी lसाहब यही चवन्नी का सिनेमा दर, सिनेमा के कलाकार/सितारे , सिनेमा निर्देशक ही दरअसल भारत के सिनेमा उद्योग ब्लकि यूँ कहें तो व्यावसायिक सिनेमा उद्योग के भाग्य विधाता हैं l

फ़िल्म की एक टोली ने कलकत्ता के स्टार थिएटर में सन1898 में प्रोफेसर स्टीवेंसन की एक शॉर्ट फ़िल्म और साथ ही एक स्टेज शो ” द फ्लावर ऑफ पर्सिया (The flower of Persia)” का प्रदर्शन किया l हीरालाल सेन उस प्रोग्राम से प्रभावित हुये l उन्होंने प्रोफेसर स्टीवेंसन से कैमरा उधार लिया और प्रोफेसर स्टीवेंसन के साथ, संयुक्त निर्देशन में छोटे भाई मोतीलाल सेन की सहायता से फटाफ़ट फ़िल्म बना डाली और उसका नामकरण किया, डांसिंग सीन्स फ्राम ” द फ्लावर ऑफ पर्सिया” (Dancing Scenes from” The Flower of Persia”). हीरालाल सेन को भारतीय उपमहाद्वीप का पहला फ़िल्म निर्माता कहा जाता है l हीरा लाल सेन का जन्म ढाका के करीब मानिकगंज, बांग्लादेश में हुआ था मगर बड़े कलकत्ता में हुये l लंदन की चार्ल्स अर्बन की वारविक ट्रेडींग कंपनी से उन्होंने एक अर्बन बाईस्कोप खरीदा और उसी साल अपने भाई के साथ रायल बाइस्कोप कंपनी का गठन किया l

उधर, 1899 में हैंगिंग गार्डन, बॉम्बे में एक कुश्ती पर आधारित एच.एस. भटवाड़ेकर की “द रेसलर्स” भारत की पहली वृत्तचित्र फ़िल्म हुई l एच.एस. भटवाड़ेकर (‘सावे दादा’), 1901 में भारतीय विषयवस्तु और न्यूज रीलों की शूटिंग करनी शुरू की l बस क्या था, भारतीय दर्शकों के वास्ते भारत में ही शूट की गई भारतीय न्यूज रीलों का भरपूर लाभ उठाया तमाम अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों ने l हिन्दू संत ‘पुण्डलिक’ पर आधारित एक नाटक का फ़िल्मांकन आर. जी. टोरणी ने आयातित फिल्म स्टॉक, कैमरा और यंत्रों द्वारा किया जो 18 मई 1912  को ” कोरोनेशन सिनेमैटोग्राफ” बाम्बे में रीलिज हुई l पुण्डलिक (मराठी मूक फ़िल्म) भारत की पहली फुललेंथ फ़िल्म होते हुये भी मतानुसार यह भारत की प्रथम फ़िल्म कहलाने की अधिकारी नहीं है l इसके पुख़्ता कारण हैं कि पहले तो यह फ़िल्म पुण्डलिक एक मराठी नाटक का रिकॉर्डिंग मात्र थी l  इसका चलचित्रकार जाँनसन एक ब्रिटिश नागरिक था और इसकी प्रोसेसिंग लंदन में हुई थी l

हाँ, 1913 में “राजा हरिश्चंद्र”, मूक मराठी फ़िल्म, दादासाहेब फाल्के ने संस्कृत महाकाव्यों के तत्वों को आधार बनाकर निमार्ण किया l दादासाहेब फाल्के भारतीय फ़िल्म उद्योग के अगुआ थे और वे स्वयं भारतीय भाषाओं और संस्कृत के विद्वान भी थे l चूकिं उस काल में  भारतीय महिलाएँ अभिनय में हिस्सा नहीं लिया करती थीं, इसलिये पुरुषों ने ही, महिलाओं का चरित्र निभाया था l यह फ़िल्म मिल का पत्थर साबित हुई l जिसका प्रदर्शन और रिलीज़ ” कोरोनेशन सिनेमैटोग्राफ” में 3 मई, 1913 किया गया l चूँकि इस फ़िल्म को व्यावसायिक सफ़लता मिली, सो इसने आगे भी कई फ़िल्मों के निर्माण का अवसर दिया l

उधर दक्षिण भारत में रंगास्वामी नटराज मुदालियर ने तमिल भाषा में “कीचक बधम” का निर्माण 1916 में किया जो कि एक मूक फ़िल्म थी l अब भारत में 1930 तक तकरीबन 200 फ़िल्में बननी शुरू हो गई l भारत की पहली बोलती फ़िल्म “आलम आरा” साल 1931 में अरदेशिर ईरानी (Ardeshir Irani ) द्वारा बनाई गई l जो कि बड़े पैमाने पर लोकप्रिय हुई l बस क्या था जल्द से जल्द ही बोलती फ़िल्मों का प्रचलन और निर्माण अपने चरम पर पहुंच गया l लेकिन फ़िल्में अभी भी स्वेत श्याम ही हुआ करती थीं l बाद के सालों का आलम यह रहा कि भारत में देश विभाजन, स्वतंत्रता संग्राम और कई ऐतिहासिक घटनायें घटती गईं l उस समय की बनाई गई हिन्दी फ़िल्मों पर समसामयिक प्रभाव छाया रहा l

अंततः फ़िल्मों को स्वेत श्याम से रंगीन होने का अवसर 1950 के दशक में मिला और फ़िल्मों का रंगीन निर्माण होने का दौर आया l मोती गिडवानी द्वारा निर्देशित भारत की पहली सीनेकलर (Cine Color) फ़िल्म “किसान कन्या” साल 1937 में बनी, जिसके निर्माता अरदेशिर ईरानी (Ardeshir Irani ) थे l उस दशक में फ़िल्मों का विषय वस्तु मुख्यतौर पर प्रेम रहता और संगीत एक मुख्य अंग के रूप में उभर कर सामने आया l प्रेम की अधिकता जब चरम पर हुई तो फिल्म निर्माण कर्ताओ ने दर्शकों के मनोरंजन हेतु प्रेम के साथ साथ हिंसा, मारधाड़ को भी फ़िल्मों में स्थान देना शुरू किया l नतीज़ा 1960-70 के दशक की फ़िल्मों पर हिंसा का प्रभाव बना रहा l मगर एक बार फ़िर 1980 और 1990 के दशक से प्रेम आधारित फिल्में वापस लोकप्रिय होने लगी और निर्माण प्रक्रिया में और तेजी हुई। फ़िल्मों और इस उद्योग का विकास इस तरह हुआ कि प्रवासी भारतीयों में भी इनका प्रचलन उनकी बढ़ती जनसंख्या के कारण बढ़ता गया और 1990-2000 के दशक में बनी फ़िल्में भारत के बाहर प्रचलित होती गई l सन 2000 के बाद से अब तक भारतीय फ़िल्मों की लोकप्रियता लगातार बढ़ती ही जा रही है और दर्शकों के मनोरंजन के लिये फ़िल्म जगत अग्रसर है l

कौशल कुमार सिंह
गहमर (उत्तर टोला)
मुनेश्वरी भवन
ज़िला – गाज़ीपुर
मोबाइल (9903369667

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