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वो अब भी याद आती है-यशोदा

बार-बार करवटें बदलती रही  पर सीने का दर्द था कि बेचैनी संग बढ़ता ही जा रहा था। चेहरा दर्द से सफेद हो गया और आवाज गले में ही जम गई। सर्द निगाहें खिड़की से झाँकते नीम की फुनगी पर टंँगे चाँद पर पड़ी। चाहे-अनचाहे,जाने-अनजाने उसे चाँद को देखना अच्छा नहीं लगा और उसके मुँह से निकल ही गया ” चाँद तुम जितना पूजे जाते हो उतना ही इतराते हो। और भला कहो तो करते क्या हो ?”  चाँद ने झुक कर उससे पूछ ही लिया- “क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा जो यूँ उखड़ी-उखड़ी बातें कर रही हो और मुझे इतना भला- बुरा कह रही हो।” 
“अच्छा!तुम तो जैसे कुछ जानते ही नहीं!” अंदर भरा दुख और विषाद पके फोड़े की तरह फूट कर बह निकला,आँखों में आँसू छलक आए । 
 “हर साल की तरह पिछले साल मैंने भी तो सभी सुहागिनों की तरह तुम्हें पूजा था। भूखी-प्यासी,निर्जला व्रत रख खूब भक्ति भाव से पूजा कर आराधा था तुम्हें। पर देखो! इस बार मैं तुम्हें कहाँ पूज पाई! कहाँ रह पाई मैं सुहागन?क्यों नहीं बच पाया मेरा आशु?क्या कसर रह गई मेरी श्रद्धा में, मेरे व्रत, पूजा और भक्ति में ?”
आशु ने ही तो तुम्हें पूजते करते समय मेरी तस्वीर खींची थी। तस्वीर भी ऐसी जिसे मैं आत्ममुग्ध हो देखती ही रह गई।
अगले दिन समाचार-पत्र के साप्ताहिक परिशिष्ट में भी उसे छपा देख मैंने आश्चर्य से आशु को देखा तो उसके साँवले चेहरे पर बड़ी-बड़ी काली-काली आँखें शरारत से चमक उठी थीं।
“ये तस्वीर तुमने कब भेजी?”
एक नटखट मुस्कुराहट आशु के चेहरे पर फ़ैल गई थी !दिन भर मेरी आँखें वही तस्वीर देखती रही पर तृप्त कहाँ हो पाईं थीं?  और उसी शाम  हम दोनों इसी खिड़की से तुम्हें तकते एक दूसरे में पूरी तरह डूब गए थे।

एक दूसरे की आँखों में खोए प्रेम की पींगे भरते समय को धता बताते, बरसों-बरस पहले वाले स्कूल प्रेमी युगल हो गए, जो स्कूल कॉरिडोर में आते-जाते सबकी आँख बचाकर एक मुड़ा-तुड़ा कागज का टुकड़ा धीरे से एक-दूसरे को थमा देते थे। हथेलियों में बंद उस कागज के टुकड़े के स्पर्श मात्र से दिल कैसा धड़-धड़ धड़कता था जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा। कागज के इन्हीं टुकड़ों को लेते-थमाते स्कूल से कॉलेज तक पहुँच गए।आँखों ने बातें करना सीख लिया था और दिल ने तेज धड़कनों के साथ तालमेल बैठाना! हालांकि तब भी एक अजीब सी बेचैनी बनी रहती। और फिर नौकरी के सिलसिले में आशु को अपने कस्बे से दूर जाना पड़ा।

कैसे कटेंगे दिन? जब एक- एक पल भी न कटता हो! एक-दूसरे को देख भी न पाएँगे!असह्य!
आँखें रो-रोकर सूज गईं और चेहरा सूख कर मुरझा गया।
“सुन रहे हो न चाँद?
उन दिनों आज के समान मिलना- मिलाना डेटिंग-वेटिंग कहाँ हुआ करता था।छत से छत और नुक्कड़ की दुकान से गुजर कर, एक झलक पाकर ही दिन निकल जाता था।पर अब? कलेजा मुँह को आ गया। 
हमारी ऐसी हालत पर आशु के दोस्त का दिल पसीज गया।
“शादी कर लो तुम दोनों।”
“शादी!
वो भी दूसरी जात में!
मेरे घरवाले नहीं मानेंगे।”
रुआंसे स्वर में धीरे से बोली।मन घबरा कर कहीं दुबक जाना चाहता था जिससे सारे झंझट ही कट जाएँ।
आशु के दोस्त ने भैया को मनाया और फिर भैया ने जाति,बिरादरी,परिवार, कुनबा सब कुछ नाक पर रखकर चलने वाले बाऊजी को।
 “घर-परिवार अच्छा है बाबूजी। देखाभाला है।बहन को कोई कमी न रहेगी। बढ़िया खाता-पीता परिवार है और हाँ दान-दहेज का भी कोई झंझट नहीं।ऐसी शादियों में कौन दहेज देता है भला?”
भरी जेब में कभी हाथ न डालने वाले बाऊजी को भैया की आखिरी बात खूब जँची।
आशु के परिवार को तो इस शादी से कोई गुरेज न था।
दोनों घरों में शहनाई बज गई। परिवार सच में बहुत अच्छा था। अपने मायके में जो सुख न मिला वह ससुराल में पा  गई ।और आशु का प्यार तो उसकी सबसे बड़ी दौलत थी। तभी तो उसके सुख-स्वास्थ्य, दीर्घायु के लिए तुम्हें पूजती रही चाँद!पर मेरी पूजा में न जाने क्या कसर रह गई कि तुमने मेरी पूजा नकार दी।
उस रात की फिर सुबह कहाँ हुई? 
हँसते-हँसाते आशु ने दिल पर हाथ रखा और निढाल हो गया।
“कितना नाटक करते हो?” कहती मैं उस पर झुकी तो उसने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया।
“रुचू मैं जाना नहीं चाहता। मैं तुम्हारे बिना वहाँ भी न रह पाऊँगा।चेहरे पर दर्द,आँखों में आँसू।”
मैं कुछ समझती उससे पहले ही उसकी टकीटकी बाँधे काली आँखें पथरा गईं।
 निष्ठुर हृदयी चाँद! तुम भी तो नीम पर टँगे चुपचाप सब देखते रहे। 
सुन रहे हो न चाँद!अब मैं भी जा रही हूँ। बादलों के उस पार जहाँ आशु मेरा इंतजार कर रहा है।देखो!यह वही तुड़ा-मुड़ा कागज़ का टुकड़ा। 
क्या खूब नज़ारा है ! सितारों टंका आसमान! गुलाबी साड़ी में सजी मैं!मैं और आशु एक-दूसरे का हाथ थामे साथ- साथ चल रहे हैं…चलते रहेंगे हमेशा-हमेशा। 
“देख रहे हो न चाँद!” 
 दिन,माह,बरस बीत गए।
एक बार फिर चांद नीम की फुनगी पर टंगा खिड़की को देख रहा था।टंगे-टंगे धीरे से बोला –
 “वो अब भी याद आती है।”

यशोधरा भटनागर

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