एक राजा था बड़ा ही चतुर ! अक्सर वह रात में प्रजा के हालचाल जानने को अकेला ही निकल पड़ता लेकिन भेष बदलकर। भेष बदलने में भी बड़ा कुशल! कभी ग्वाला बन कर जाता तो कभी चूड़ियाँ बेचने का स्वांग रचता। भरे बाजार में आवाज लगाने लगता -दूध ले लो –दूध !चूड़ियाँ ले लो –रंग बिरंगी चूड़ियाँ! इससे राजा की पांचों उँगलियाँ घी में ही रहतीं। प्रजा अपने राजा को पहचान भी नहीं पाती और प्रजा उसके सामने ही आपस में हँसते खिलखिलाते दिल की बात उड़ेल देती।यहाँ तक कि राजा की अच्छाइयाँ और बुराइयों को कहने से भी न चूकती।
एक दिन राजा लौटते समय रास्ता भूल गया। अब तो वह चलते -चलते अपने राज्य से बहुत आगे निकल गया। दूर से उसे टिमटिमाती रोशनी दिखाई दी। एक मिनट तो उसने सोचा सूरज झांकते हुए उसकी हंसी उड़ा रहा है -“बड़े राजा बनते हो । रास्ता तक तो याद नहीं रख सकते !प्रजा की भलाई के काम कैसे याद रहेंगे!”
फिर भी बड़ी उम्मीद से रोशनी के सहारे थके पैर उसी ओर बढ्ने लगा। पास आने पर पता लगा वह तो दीपक की रोशनी है। हैरत से देखता ही रह गया। बुदबुदा उठा “ इतनी रात गए झोंपड़ी के आगे जलता झिलमिलाता दीपक!
तभी एक बूढ़ी लालटेन लिए निकली और बोली-“ आओ -आओ बेटा,अंदर आओ।‘
“माँ ,यह दीपक किसके लिए जला रखा है। रात होने पर तुम तो अंदर सो जाती हो।”
“बेटा यह मेरे लिए नहीं तुम जैसे भूले भटके राही के लिए है।जिससे उन्हें पता लग जाय यहाँ एक कुटिया भी है जहां उनका हमेशा स्वागत है। अगर दीपक न रखा होता तो न जाने कहाँ- कहाँ चक्कर लगाते रहते । भूख-प्यास तुम्हें अलग सताती।”
“तुम्हारी झोंपड़ी तो बहुत सुंदर है । फल फूलों के पेड़ -पौधों छतरी की तरह उसपर तने हैं। झोंपड़ी पर तो एक तख्ती भी लटकी है।”
” अरे बेटा ,मेरा पोता हैं न सरजू ! बड़ा कुराफाती है । सारे दिन बंदर की तरह कूदता फाँदता रहता है। उसी ने तख्ती लटका दी होगी ।”
” इस पर तो कुछ लिखा है–विश्राम धाम! “
“हा -हा !फिर देरी क्या है! अंदर आराम करके हल्के हो जाओ। कुछ खाओ -पीओ । थकान से तुम्हारा चाँद सा चेहरा एकदम मुरझा गया है।”
“अरे सरजू ,बाहर निकलकर आ। और हाँ, पानी भरी लुटिया भी उठा ला । मेहमान जी के हाथ पैर धुलाने हैं।”
खरगोश सा फुदकता सूरज आया और लुटिया राजा के हाथ में थमा दी। बोला -“महाराज जी, पहले अपनी धूलभरी जूतियाँ तो उतारो। वरना भीग जाएंगी,भीग गईं तो बीमार ही जाएंगी,बीमार हो गईं तो कल तुम इन्हें पहनकर कैसे जाओगे?”
एक मिनट को तो राजा घबरा गया कि कहीं इस बच्चे ने उसे पहचान तो नहीं लिया। उसकी घबराहट देख बूढ़ी माँ बोली-“बेटा इसकी बात पर न जा । मेरा पोता बहुत बड़ा नाटकबाज़ है। ”
वृदधा ने बड़े प्यार से राजा को आसन पर बैठाया और सूरज ने भोजन की थाली उसके सामने लाकर रख दी।
राजा को खाना बहुत स्वादिष्ट लगा। उसमें उसे अपनी माँ के हाथों की खुशबू लगी। डकार लेकर उठ खड़ा हुआ। कमर पर ।
“अरे कहाँ चले?अपनी दाईं तरफ दीवार पर तो जरा देखो। “सूरज कमर पर दोनों हाथ टिकाए बड़े रौब से बोला।
राजा ने नजर दौड़ाई। लिखा था-“जाने से पहले कोई निशान न छोड़ो।”
“कुछ समझे ?”
राजा ने “ना ‘में अपनी गरदन हिला दी।
“”तुमने खाना खाया ?”सूरज ने पूछा।
“हाँ खाया!”
“खाया तो खाया,रोटी -चावल थाली से बाहर भी गिराया! यह सब छोडकर कहाँ चले?”
राजा ने नीचे देखा । सोचने लगा -“यह लड़का तो बहुत शातिर है। इसका वश चले तो उड़ती चिड़िया भी पकड़ ले। उसने चुपचाप नीचे गिरे चावल रोटी के दाने थाली में डाले। थाली बर्तन माँजने की जगह रखी और आसन कील पर टांग दिया।
उसने जूती पहनने को उसमें पैर ही डाला होगा कि लड़के ने फिर टोक दिया-”कहाँ चले ?जाने से पहले सोने की जगह तो देखते जाओ।”
राजा चारपाई के आगे खड़ा तो हो गया पर परेशान सा सिर खुजाने लगा।
पीछे -पीछे लड़का जा पहुंचा -”महाराज कुछ समझे ?”
राजा ने इस बार भी “ना”में अपना सिर हिला दिया।
“तुम चारपाई पर सोये थे ?”
“हाँ”
“उठने के बाद चादर पर पड़ी सलवटें देख रहे हो!”
“हाँ !”
“सोये तुम तो चादर ठीक कौन करेगा?”
“मैं !”राजा तुरंत बोल उठा।
“और यह गीला अंगोछा !चारपाई पार….।सूरज ने अपनी आँखें घुमाईं। ”
“हटाता हूँ …हटाता हूँ।”
“अब तो तुम सब समझ गए ।”
“हाँ मेरे गुरू सब समझ गया और पाठ याद भी हो गया-जाने से पहले कोई निशान न छोड़ो। अब तो जाऊँ! पास कर दिया!”
लड़का इतनी ज़ोर से हंसा कि विश्राम धाम गूंज उठा। दादी -दौड़ी आई-“उपद्रवी फिर कुछ कर बैठा क्या?”
“माई जी, आपका पोता बुद्धि बाँट रहा था और मैं बटोर रहा था। ” राजा की आँखें मुस्कराने लगीं।
“अरे बेटा अभी से इसका यह हाल है तो बड़े होकर न जाने क्या होगा। गलती से यह मेरे घर में पैदा हो गया । इसे किसी ऋषिमुनि की संतान होना चाहिए था । “
“अब भी देरी कहाँ हुई ?इसे मैं अपने साथ ले जाता हूँ। खूब लिखाऊंगा -पढ़ाऊंगा । “
“मैं क्यों जाने लगा तुम्हारे साथ? मेरी दादी ही मेरे लिए ऋषिमुनि हैं। उसने जो मुझे पढ़ाया वह मैंने तुम्हें पढ़ा दिया। तुम्हें बच्चों को पढ़ाने का ही शौक है तो यहाँ स्कूल खोल दो। सबसे पहले मैं उनको अपना काम खुद करने का पाठ पढ़ाऊंगा। तुम तो न जाने किस स्कूल में पढे हो कि अब तक अपने हिस्से का काम समझ ही नहीं पाते।”सूरज ने मुंह बनाया।
राजा को सरजू की बातों में बड़ा आनंद आ रहा था। वह अपने साथ सरजू को तो नहीं ले जा सका पर उसे और उसकी बातों को कभी भूल न पाया
सुधा भार्गव
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