आधी रात-किरण बाला

साप्ताहिक प्रतियोगिता (कहानी लेखन)

जाड़े की कंपकंपाती रात… सन्नाटा चारों ओर अंधकार का दुशाला ओढ़ कर गहन निद्रा की मुद्रा में सिमटा सा बैठा था कि अचानक से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ से इस प्रकार सकपका गया जैसे शांत सरिता में किसी ने अचानक जोर से कोई कंकड़ फेंका हो और वो तरंगित हो भय से तितर- बितर होने लगी हो।
पावनी जो कि आज रात घर में अकेली थी आवाज़ को सुनकर गहन निद्रा से जाग गई। उसे लगा कि छत पर कोई दौड़ रहा है। कानों में आती धप‌ – धप की आवाज़ से उसके मन में एक अनजाना सा भय घर कर गया। कौन हो सकता है? कहीं कोई चोर उच्चका तो नही! कोई भूत प्रेत… नहीं- नहीं, वो छत पर क्यों भागेंगे भला? क्या जाकर देखना उचित होगा? 112 नंबर पर फोन करूं क्या? क्या पड़ोसियो के घर इस वक्त फोन करना उचित होगा ? ना जाने कैसे- कैसे सवाल मन ही मन कर डाले।
अगर कोई होगा भी तो इतनी आसानी से नीचे नही आ सकता, उसके लिए पहले उसे छत का दरवाजा तोड़ना होगा। यह सोच कर मन को थोड़ी तसल्ली देते हुए डर को कम करने के लिए उसने आँखे भींचते हुए रजाई से अपने चेहरे को ढक लिया।
कुछ समय पश्चात आवाजें आनी तो बंद हो गईं लेकिन किसी अनहोनी की आशंका से पावनी की आँखों में नींद का कोई नामोनिशान नहीं था। उसे पिछले दिनों की घटनाएं रह- रह कर याद आ रही थीं। कैसे उसकी मेहनत का श्रेय किसी और को मिल गया था। क्या उसकी ईमानदारी, मितभाषिता , सरलता और दयालुता ही इसकी वजह थे? क्या सफलता केवल चापलूसों और मौका परस्त लोगों के ही हाथ लगती है। सभी को पता था कि कौन कितनी मेहनत कर रहा है फिर भी न जाने क्यों सामने वाला देखकर भी नही देखता या फिर शायद ऑंखों पर ही पट्टी बांध लेता हो। उसके विचारों में अब निराशा और क्रोध के मिश्रित भाव थे।
सभी को देखने में तो ऐसा ही लग रहा है कि सब कुछ यथावत् चल रहा है , किंतु उसके भीतर के ख़्यालों का द्वंद्व कोई नहीं देख पा रहा ? उसके ख़्यालों की नाव, जो मस्तक पटल पर अविरल धारा-प्रवाह में बह रही थी , अचानक आई हुई उथल-पुथल से संतुलन खोती जा रही थी । सत्य-असत्य, आशा-निराशा, उचित – अनुचित के मध्य, सामंजस्य बैठाने में ,वो ना जाने क्यों स्वयं को स्थिर नहीं कर पा रही थी । आवेश की लहरों के मध्य ख़्याल ,एक-एक करके बहते जा रहे थे। अब नकारात्मक ख़्यालों का वजन इतना बढ़ चुका था कि यह नाव कभी भी डूब सकती थी। वह चीख कर इन पर प्रहार करना चाहती थी क्योंकि अभी भी वह डूबने की आशंका के प्रति सचेत थी । एक अनजाना भय उसे चीखने नहीं दे रहा था । तभी एक नए ख़्याल से क्रांति घटित होती है । अपनी चैतन्य शक्ति और शेष बचे हुए सकारात्मक ख़्यालों से वह अदम्य साहस के साथ चीखती है । उसकी चीख की तरंगे उसकी नकारात्मकता को दूर ले जाकर पटकती हैं । तभी भीतर से आवाज आती है शाबाश ! तुम जीत गई…तुमने कर दिखाया । क्या फर्क पड़ता है श्रेय मिले न मिले। कोई देखे या ना देखे। मेहनत व्यर्थ नही जाती। उपर वाला तो देख रहा है । तुमने ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूर्ण किया , बाकी वो जाने। उस आधी रात में घटित हुई क्रांति की एक लहर ने उसमें ऐसा परिवर्तन किया कि उसने स्वयं को फिर से मजबूत कर लिया ।

किरण बाला (चण्डीगढ़)

 

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