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आधी रात -संगीता गुप्‍ता

साहित्य सरोज साप्ताहिक आयोजन 01
( 01) सोमवार से मंगलवार
कहानी
शीर्षक- आधी रात
मैं आध्यात्मिक दिनचर्या को जीना बहुत पंसद करती हूॅं। प्रातः लगभग साढे़ 7 बजे मेरा मेडिटेशन पूरा हुआ। कुछ घर के काम इत्यादि निपटा कर मेनें खाना खाया और आफिस चली गई। आज का दिन न जाने को बहुत व्यस्तता का दिन रहा। लौट कर आई तो थकावट हावी थी, 9 बजते-बजते नींद आने लगी। मैनें आज दिन सकुशल बीत जाने के लिए प्रभू का धन्यवाद किया ओैर सोने चली गई।
रात के 12 बजे के आसपास अचानक कुत्तों के भौकने एवं रोने की आवाज से नींद टूटी। कुछ अज्ञात सा डर मन में उभर आया। मन विचलित हो रहा था, अपनों की याद आ रही थी। मैं तो सही सलामत थी पर फिर भी कुछ एहसास कचोट रहा था। मैं बहुत व्याकुल था।मेरा बच्चा कैसे मेरे बिन जी रहा होगा।फोन लगाई पर सबके स्वीच आफ आ रहे थे। परमात्मा को याद कर बच्चों की सही सलामत रहने की प्रार्थना और कामना करते हुए किसी तरह मैं सोने की कोशिश करने लगी।
मॉं उठो न मॉं उठो क्या हुआ तुमको, तभी ऐसा लगा की कोई हमें हिला रहा है। देखा तो मेरी बेटी थी जो घबड़ाई हुए मुझे जगा रही थी, मेरे जागते ही वह मुझसे लिपट कर बोली क्या कोई बुरा सपना देख रही थी कि क्यॉं मॉं।मेरे मुहॅं से कोई आवाज नहीं निकली मैं उसे सीने से लगा कर सबके लिए चाय बनाने उठ खड़ी हुई।
संगीता गुप्‍ता पटना, बिहार

 

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