आधुनिक युग का नारी-विमर्श-शैली

आधुनिक युग का नारी-विमर्श-शैली

युगों से चली आ रही विवाह नामक संस्था में पति-पत्नी के बीच की दूरियों को मात्र वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखना उचित नहीं होगा।वर्तमान, भूतकाल पर आधारित होता है। ऐसे में मात्र एक समय की घटनाओं से कोई निष्कर्ष नहीं निकला जा सकता। मैं युवा पीढ़ी की नहीं, सीनियर सिटीजन हूँ। एक दीर्घ काल देखा ही नहीं जिया है। अब अपने बच्चों के समय को जी रही हूं। अतः मैं अपने कथ्य को कुछ प्राचीन समय में ले जाकर आज की स्थिति पर लिखूंगी। आशा है पाठक धैर्य रखेंगे।हमारे पूर्वजों ने जिस समय इस संस्था को बनाया उस काल में धनार्जन के साधन आखेट, गौ पालन, कृषि और व्यापार आदि थे। कुछ वर्ग अन्य वर्गों की सेवा करके बदले में कृषि भूमि या अन्न पाकर जीवनयापन करते थे। आज के समय की तरह सरकारी, गैरसरकारी नौकरियां नहीं थीं। लोग समूहों में एक निश्चित भूमि पर रहते थे।

स्त्री प्रजनन करती है। अतः उसको घर में रह कर बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी दी गई थी। जनशक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति थी, अतः बच्चों की आवश्यकता थी।गर्भनिरोध नहीं था तो बहुत बच्चे होते थे। पोषण, चिकित्सा के अभाव में मृत्यु दर भी अधिक थी तो, मां का जीवन इस चक्र में बीतता था। श्रम विभाजन था, पुरुष घर से बाहर की और आय के स्त्रोत की जिम्मेदारी लेता था और स्त्री घर और बच्चों की। पति-पत्नी के रिश्तों की बात हमें ज्ञात नहीं क्योंकि उस बारे में जानकारी सीमित है।स्त्री को पुरुष के अधीन रहने कि शास्त्र सम्मत व्यवस्था थी। स्त्री की शिक्षा भी घर के कामों से संबंधित थी।पुरुष घर के बाहर के काम और स्त्री घरेलू काम करती रही। परिवार चलता रहा।

लेकिन समय के साथ स्त्री शिक्षित हुई। फिर भी वह घर की परिधि में रही। लेकिन पुरुष ने अपने रोज़ी कमाने के काम को महत्वपूर्ण माना और स्त्री के कामों को कम आंका। अक्सर स्त्रियों को निकम्मा और पति के पैसों पर ऐश करने वाले की तरह माना गया। उसकी स्थिति दोयम दर्जे की हो गई। उसके आत्मसम्मान को बेदर्दी से आहत किया जाता रहा। विवशता में वह सहन करती रही।भारतीय शादियों में दहेज़ की कुप्रथा अनादि काल से चली आ रही है। मनुष्य के विकसित होने के साथ ये कुप्रथा भी परिवर्तित हुई। क्योंकि बदले समय में कृषि या स्वरोजगार से अधिक सरकारी नौकरी करने वाले की आय को सम्मान मिलना शुरू हुआ। नौकरी के अवसर सीमित संख्या में थे, तो अच्छी नौकरी करने वाले , अच्छी तनख्वाह पाने वाले भी सीमित थे। ऐसे में योग्य वर- पक्ष की दहेज़ की मांग बढ़ गई। दहेज़ का लालच यहां तक बढ़ा की, एक वधू को मार कर, वर के दूसरे और तीसरे विवाह का चलन आम हो गया। लायक पुत्र के विवाह से मिला दहेज़, परिवार के ऐशो आराम का साधन बन गया।

1970 के दशक में, शादी के बाद ससुराल गई लड़कियों की मृत्यु की खबरें आम हो गईं। इसी समय “ब्राइड बर्निग” शब्द प्रयोग में आने लगा, क्योंकि शादी के बाद अधिकांश मरने वाली लड़कियों की मृत्यु जलने से होती थी।’दहेज मृत्यु’- शब्द का प्रयोग पहली बार 1977-78 में शुरू हुआ, जब ज्ञात हुआ कि विवाहित महिलाओं की मृत्यु- आत्महत्या या दुर्घटना नहीं थी, बल्कि पति या उसके ससुराल वालों या दोनों द्वारा क्रूरता, उत्पीड़न, घरेलू हिंसा या यातना के बाद हत्या या आत्महत्या के लिए उकसाना था।

यूँ तो दहेज निषेध अधिनियम 1961, में बनाया गया और भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी और 498 ए तहत दहेज़ के लेन-देन को निषिद्ध ठहराया गया था। लेकिन सभी जानते हैं कि भारत में कोई भी शादी दहेज़ के बिना नहीं होती। दहेज़, नकद, सोने, ज़मीन, घर या किसी भी अन्य तरीके में लिया ही जाता था। ये कुप्रथा इतनी बढ़ी कि दहेज के लिए, घर आई बहू को प्रताड़ित किया जाता था यहां तक कि हत्या भी कर दी जाती थी।फलत:, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि 1977-78 में ‘दहेज मृत्यु’ शब्द सामने आया। अतः न्यायालय को अनुभव हुआ कि, पहले बने कानून प्रभावी नहीं हैं। अतः 1983, धारा 498 ए, लाया गया। जिसके अनुसार-
‘विवाहित स्त्री के पति या परिवार के द्वारा दहेज़ के कारण स्त्री पर होने वाली क्रूरता की रिपोर्ट किये जाने पर, बिना जाँच के ही प्रथमदृष्टया परिस्थिति में पति और परिवार के सदस्यों को जेल हो सकती है। 3वर्ष के कारागार का प्राविधान है।’न्यायालय ने जब सामाजिक स्थिति को समझते हुए, इस कानून की व्यवस्था की तो, सिद्ध है कि स्थिति कितनी भयावह थी। लाखों नव विवाहिताओं को मार डाला जाता था या आत्महत्या को मजबूर किया जाता था। स्त्री की सुरक्षा के लिए बनाए गए इस कानून का धीरे-धीरे दुरुपयोग स्त्री और स्त्री के परिवार के द्वारा शुरू हुआ। अब लड़कियां पढ़-लिख कर नौकरी करने लगी थीं। वे पुरुष की आय की मोहताज नहीं थीं। वास्तव में शादी की संस्था मात्र स्त्री के दमन, शोषण और उसकी मजबूरी पर टिकी थी। पति-पत्नी के बीच खाइयां तो युगों से रही हैं। यदि पति बहु विवाह करता था, रखैल रखता था या वेश्यागमन करता था, तो कोई भी स्त्री इसे स्वीकार नहीं कर सकती थी। लेकिन उसकी आर्थिक निर्भरता के कारण वह सहती रही और ये दूरियां या तो नज़र नहीं आईं या नज़रंदाज़ कर दी गईं।

लेकिन आज स्त्री अपना अधिकार समझती है। वह पति की दासी, बनकर नहीं रहती। जैसे पति बाहर रहता है। दोस्तों के साथ नशे करता और पार्टियां करता है। वैसे ही पत्नी भी अपनी निजी जिन्दगी जी रही है। वह सुबह से चाय की प्याली लिए, पति की मनुहार नहीं कर रही है। घर के कुछ काम अगर वह कर रही है, तो पति से भी कुछ काम करने की अपेक्षा करती है। बच्चे पालने की जिम्मेदारी में पति को हाथ बंटाना होगा। एक साथी की तरह रहना होगा, शासक या स्वामी की तरह से नहीं।

पुरुष और उसके परिवार को यह बात हजम नहीं होती। युगों की आदत है। स्त्री पर कुछ तो अत्याचार होता ही है। दहेज़ अगर नहीं मिला है, तो भी पैसे पाने का जुगाड़ तो लड़के वाले करते ही रहते हैं। जहां पत्नी ये बात मान जाती है, दूरियां दिखती नहीं। लेकिन जो स्त्री इन बातों को नहीं सह पातीं, वो कानूनों का उपयोग करती हैं। कुछ दुरुपयोग भी करती हैं। ऐसे में दूरियां बढ़ रही हैं।

परिणामत: अब वही प्रताड़ना जो पुरुष स्त्री पर युग युगान्तर से करता रहा, वह इसका शिकार हो रहा था। सबसे चर्चित रहा अतुल सुभाष का केस, जो बंगलुरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था, उसने 9 दिसंबर 2024 को अपने अपार्टमेंट में फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली अपने पीछे, 24 पन्नों का एक दस्तावेज़ और 81 मिनट की एक वीडियो रिकॉर्डिंग छोड़ी। उसके अलावा मानव शर्मा, मोहित यादव, पुनीत खुराना, समीर मेहंदीरता, कर्नाटक के रिटायर्ड DGP ओम प्रकाश मर्डर केस प्रकाश में आए। सोनम के काण्ड ने तो तहलका मचा दिया।स्पष्ट है कि पति-पत्नी के बीच दूरियां सदा-सर्वदा थीं। क्योंकि स्त्री सह रही थी, तलाक़ के नियम बहुत पेचीदा थे, स्त्री आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं थी, तो दूरियों की समझ सामाजिक नहीं हुई थी।

आज जब, पुरुष इस चपेट में आया। तलाक़ ज़्यादा होने लगे। अकेली माँ को भी मान्यता मिली, तब ये शाश्वत खाई और दीवारें समाज को दिखाई दीं।इसका निवारण मात्र तभी सम्भव है, जब स्त्री के घरेलू कार्यों को महत्व दिया जाए। उसे अवहेलना और प्रताड़ना का शिकार न होना पड़े, तो सम्भवतः शादी और पति-पत्नी का रिश्ता टिक जाए। अन्यथा यह संस्था समाप्त होने की कगार पर है।

शैली,
लखनऊ, उत्तर-प्रदेश

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