साहित्य सरोज साप्ताहिक आयोजन क्रम -२
शीर्षक पहला प्यार
प्रेम की सुरभि ऐसी होती है जिससे आपका जीवन सदैव सुरभित होता रहता है। समय के संग जिसकी सुगंध बढ़ती ही जाती है।ज्यों -ज्यों दैहिक ताप कम होता है,प्रेम अलौकिकता ग्रहण करता जाता है।
जीवन की संध्याकाल में जब एक साथी की आवश्यकता सबसे अधिक होती है।तब साथी का विछोह एक ऐसे शून्य को जन्म दे देता है।जिसे सिर्फ प्रेम से ही भरा जा सकता है। इस शून्यता काल में पहला प्यार बड़ी शिद्दत से याद आता है।
पतिदेव के जाने के बाद शर्मिला स्वयं को बहुत अकेला महसूस करने लगी। बेटा तो पहले से ही विदेश में बस गया। यहां पति -पत्नी दोनों ही रहते थे, अब वो भी चले गए तो वो अक्सर नर्मदा के किनारे चली आती। घाट किनारे बैठकर नर्मदा का सौंदर्यपान करती। ऐसे ही एक दिन नर्मदा नदी के सौंदर्य में खोई हुई थी कि एक पुरुष स्वर सुनाई दिया, क्या सोच रही हो शर्मीली? आवाज से तंद्रा भंग हुई तो बगल में बैठे व्यक्ति पर दृष्टि गई।ढलती आयु के सुदर्शन व्यक्तित्व कुछ पहचाने से लगे। समय ने उन पर अपनी छाप छोड़ने का प्रयास अवश्य किया,पर पूर्णतया सफल न हो सका। हाँ, घनेरी केशराशि में कुछ कमी के साथ चांदी अवश्य झलकने लगी।थोड़ा ध्यान से देखने के बाद ही दिल अचानक किसी नवयौवना की तरह धड़क उठा और मुँह से निकला,प्रांजल जी! बगल में बैठा व्यक्तित्व मुस्कुराकर बोला – चलो पहचाना तो सही।शर्मिला मन ही मन सकुचाते हुए , जो हृदय की धड़कन रहा हो भला उसे कोई भूल सकता है।पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं बोली।दोनों ही कुछ देर नर्मदा की शांत जलराशि को देखते हुए हृदय में उठ रहे तूफान को सहेजने का प्रयास करते रहे। कुछ क्षण बाद शर्मिला ही बोली – ये अचानक हुई मुलाकात है या पूर्व नियोजित। प्रांजल – तुमसे संपर्क भले न किया हो।पर खबर पूरी रखता था तुम्हारी।तुम अपने घर – परिवार में व्यस्त और सुखी थी तो तुमसे दूर रहा। पर जब तुम्हारे पतिदेव के देहांत का पता चला तो स्वयं को रोक न सका। चला आया विदेश से अपना सबकुछ समेट कर वापस अपने देश।गया भी तुम्हारी वजह से था और आया भी तुम्हारी वजह से ही।मैने वादा किया था तुमसे,जीवन संध्या में जब कभी स्वयं को अकेला पाओगी मुझे अपने साथ पाओगी। शर्मिला – मुझे लगा आपने यूँ ही बोल दिया था। मैंने इस बात को गंभीरता से लिया ही नहीं था। प्रांजल – तुमने तो मेरे प्यार को भी गंभीरता से नहीं लिया।जबकि मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो गया था। मुझे लगने लगा था कि मैं कहीं कुछ ऐसा न कर बैठूं जो तुम्हारे मान – सम्मान पर प्रश्नचिह्न लगा दे।बस यही सोचकर अपना सबकुछ समेट कर चुपचाप चला गया। पर इस वादे के साथ कि तुमको कभी अकेला नहीं छोडूंगा। शर्मिला – आपके प्रेम को मैंने गंभीरता से ही लिया था।परंतु आप गलत समय पर मिले।काश!आप विवाह के पहले मिले होते। तो दुनिया से लड़कर भी आपका हाथ थाम लेती।आप जीवन के उस मोड पर मिले,जब मैं किसी और की बगिया की बहार बन चुकी थी।परिवार विस्तार पा चुका था।भले मन का मेल नहीं था पर पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व तो थे ही।बस इसलिए मन के भावों को शब्दों का आकार नहीं दिया।पर आपके जान के बाद भी ख्यालों में हर अहसास बांटा है आपके साथ। शायद दोनों के ही प्रेम की लगन में पवित्रता रही।तभी समय के साथ मीलों की दूरी भी प्रेम कम न कर सकी।प्रांजल – सही कहा।मैं बस तुमसे इतना ही कहूँगा कि अब अपने को कभी अकेला मत समझना।मैं हूँ तुम्हार साथ भी और पास भी। डूबते सूरज को देखने में व्यस्त शर्मिला ने चौंक कर उसके ओर देखा और कहा, साथ तो समझ आता है,पर पास वो कैसे? प्रांजल मुस्कुराते हुए बोला- तुम्हे पता है तुम्हारा सामने वाले फ्लैट किसका है? शर्मिला – किसी एनआरआई का है। बहुत समय पहले खरीदा गया था।पर वो रहने अभी पंद्रह दिन पहले ही आए हैं।प्रांजल – नाम पता है उनका।शर्मिला कुछ सोच कर आश्चर्यचकित सी होती हुई बोली,कहीं वो आप तो नहीं? प्रांजल – बिल्कुल सही।वो मैं ही हूँ जो लौटा है अपना वादा निभाने।जो उसने अपनी जान से किया था। इतना बोलकर दोनों ही सूर्यास्त की लालिमा में प्रेम की ऊष्मा को महसूस करते हुए भास्कर को निहारने लगे।
आशा झा सखी
जबलपुर ( मध्यप्रदेश)
94258 66945
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