तारीफ- संतोष शर्मा शान

मैं हमेशा परिवार के प्रति सजग और इमानदार रही लेकिन कभी भी पूरा परिवार तो क्या पति तक के मुंह से प्रसंशा के दो शब्द नहीं सुनाई दी मेरे कानों में  फिर भी अपनी गृहस्थी संभालकर एक अच्छी बहू  बनने का प्रयास हमेशा की और बनी भी  |जब भी घर में   मेहमान या कोई रिश्तेदार आते तो सासु माँ लग जातीं उनके मुँह से निकली हर बात का समर्थन करने…..साथ में परिवार के अन्य सदस्य भी हजारों तारीफें कर देते उन परायों के घर की बहूओं के लिए  ,कभी कभी मन बहुत ही दुखी होता तो कभी बड़ा  क्रोध आता उनकी हां में हां  तो ऐसे मिलाते  और साथ में कहते जाते अरी हमारी कहाँ ऐसी किस्मत जो हमें ऐसी बहू मिलती… !जैसे वो हर दिन इन्हीं सब लोगों की सेवा करती हो !! और ये सभी सब कुछ जानते हों ।कभी कभी तो मेरी सहनशीलता से ज्यादा बोल जाते और मै  दुखी मन को समझा लेती की क्या फायदा जवाब दे कर माहौल खराब करने से….. ये लोग तो चले आएंगे रहेगा मेरा परिवार और मै इन्हीं के बीच……. ये तो बदलने से रहे….  !?हाँ मैं ऐसी नहीं हूँ बस .। ऐसे ही कल हमारी बुआ सास की बड़ी बहू आ टपकीं और मैने हमेशा की तरह उनकी सेवा चाकरी में कोई कमी नहीं छोडी जबकि मुझे मालूम है नौकरी पेशा बहू होने के कारण वह  घर परिवार को अपने ठेंगे  पर रखती हैं और मोटी रकम कमाने का धौंस भी झाड़ती रहतीं हैं। उनके दोनों बच्चों को बुआजी ने ही पाल पोस कर बड़ा किया  बावजूद इसके यदि उनको एक गिलास पानी भी चाहिए होता है तो गिरते पडते उन्हें स्वयं लेना पड़ता है  और यहाँ देखो……! उसकी तारीफ तो ऐसे की जा रही है मानो वह सेवा की साक्षात प्रतिमूर्ति हो  !!?
शाम को जैसे ही मैंने सभी को खाने के लिए बैठाया वो खाने पर ही शुरू हो गईं मैंने एक बारगी उन्हें टोका की पहले शांति से भोजन कर लें बाद में बतिया लिजिएगा…. सो वे बोलीं  ” अरे  हां  !  बतियाने की बात तो मैं भूल ही गई…..!! मैं तो अब कार भी चला लेती हूँ….. बाईक और स्कुटी में तो आपको पता है मै पहले ही एक्सपर्ट थी अब कार भी पूरा संभाल लेती हूँ  ” ।अब तो मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई और मैने पहली बार परिवार वालों के सामने जुबान खोलीं। ” जीजी  मुझे कोई गाड़ी नहीं  चलाना आता परंतु घर चलाना आता है और मुझे कार नहीं अपनी गृहस्थी और परिवार चलाना है….. और हाँ…! बेटा बड़ा हो गया है सो सास बहू के आपसी सामंजस्य बिठाने की तैयारी कर रही हूँ वह भी अपनी ही सासु माँ से….. बाकी जीजी  ! मुझे किसी टीन के डिब्बे को सम्भालने की कोई आवश्यकता नहीं…।मैं तो रसोई घर में  अपना काम  करने चली गई लेकिन ये अच्छी तरह जानती हूँ कि मेरे शब्दों का किस किस पर और कितना असर हुआ होगा  ….. बस पतिदेव को कनखियों से देखा वे निरूत्तर और अव्वाक दिखाई दे रहे थे  |

संतोष शर्मा   ” शान  “
हाथरस  (  उ. प्र. )

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