
तकरीबन दस साल के बाद गांव के बस स्टैंड पर उतरा है रामधन।जब गांव छोड़ा था तो यह सड़क जहां अब बस स्टैंड के रूप में अवस्थित है वह मात्र खंडहर था।आजू-बाजू झुग्गी- झोपड़ी से सुसज्जित अस्थाई दुकान था जिसमें सिगरेट,बीड़ी, पान,गुटखा,चाय,पकौड़ी वगैरह इत्यादि मिलता था। कभी-कभी इक्के-दुक्के सब्जी वाले भी आकर जम जाते थे। किंतु वह अपने लिए झुग्गी नहीं लगाए थे बल्कि दिन भर में ही बेच कर निकल जाते थे।क्योंकि वे लोग स्थायी रूप से दुकान नहीं लगाते थे।सीजन के अनुसार खेतों में जो साग-सब्जी पैदा होता था वही लेकर आते थे तथा औने-पौने दामों में देकर झटपट निकल जाते थे।क्योंकि उनके पास ढेर सारा कार्य हुआ करता था इसलिए थोड़ा कम रेट में बेचते थे ताकि दूसरा भी कुछ कमा ले।उनका मानना था कि एक काम से समाज के दूसरे लोग भी लाभान्वित हों।
रामधन जब गांव छोड़ा था तो उसके पिताजी जीवित थे मां तो बहुत पहले ही निकल गई थी।इसलिए रामधन का मुंह देखकर उसके बाबू रामनाथ सौतेलेपन का दाग़ लगाकर उसके खुशियों में बाधा बना नहीं चाहते थे।हालांकि गांववालों ने भरसक रिश्ता जोड़ने का प्रयास किया था।किंतु रामनाथ इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर जीवन के बोझ को अकेला ढ़ोना ही उचित समझा था।हालांकि रामधन के मामा भी यही चाहते थे कि बहनोई का घर एक बार फिर से आबाद हो जाए,निहाल हो जाए।किंतु रामनाथ जीवन के अनुभव को बहुत गहराई से जीते हुए उसके उतराव-चढ़ाव से भली-भांति परिचित होआत्मसात कर लिए थे।इसलिए नकारात्मक जवाब से सबको पस्त कर फिजूल की बातों पर ध्यान देना छोड़ दिए थे।वे सौतेलेपन का दाग़ लगाकर बेटे के जीवन को नरकमय बनाना नहीं चाहते थे।रामधन का उम्र भी दस के लपेटे में चल रहा था।हल्का-फुल्का कार्य तो रामधन अपने से निपटा कर बाबू के बाहर के कामों में भी हाथ बटाने लगा था।हालांकि शुरू में उसे खाना बनाने में परेशानी होती थी।किंतु बाबूअपने हाथों से जब रोटी बेलते थे तो बड़े ही ध्यान से देखा करता था।धीरे-धीरे वह भी रोटी बनाना सीख गया।समस्याओं के भंवरजाल में उलझे इंसान को परिस्थितियां जो न कराए वह सब कुछ सिखा देती है।उसकी बातें सुन-सुनकर रामनाथ आवाक हो जाता है।आजू-बाजू के लोग भी उसकी बातें सुनने के लिए लालायित रहते हैं।उसके बातों में परिपक्वता का एहसास पैवस्त होता था।अब रामनाथ स्वयं से सवाल कर कहता-‘सौतेलेपन का दाग़ यदि लग गया होता तो दाग,झाग में परिवर्तित होकर अब तक दम तोड़ दिया होता।उसके मन को काफी सुकून व तसल्ली मिली थी।इस विषय पर वह किसी का एक नहीं सुना।आत्म निर्णय ने इस घोर पाप होने से बचाया था।अब तक तो बाप बेटे के बीच रिश्तों की आस्था के कितने चिथड़े उड़ गए होते।यदि नहीं संभल पाता होता तो लोग अपनी बातों से उसके भावनाओं को रौंदकर और विकृत कर दिए होते।किंतु रामनाथ समय के चक्र को वक्र होने से पहले ही उठ रहे सवालों को नेस्तनाबूद कर उनके प्रवाह को आगे बढ़ने से रोक दिया था।थोड़ी सी मोहलत या संदेह के गुंजाइश होते उनके रिश्तेदारों,पड़ोसियों ने उसके भावनाओं,जज्बातों पर वार करना शुरू कर नेकनीयत का कचूमर निकाल दिए होते।वह अपने बच्चे का भविष्य बर्बाद करना नहीं चाहता था।दुनिया में लोग औलाद के लिए मरते हैं फिर दैहिक सुख के लिए अपने जिगर के टुकड़े पर सौतेलेपन का दाग़ क्यों लगाए?वक्त अपने रफ्तार से बढ़ते जा रहा था।इसी तरह रामधन भी कुलांचे भर रहे अपने मन के मृग को दबाकर अपना सारा ध्यान पढ़ाई-लिखाई पर झोक दिया था।जबकि उसके साथ के लड़के अपने उम्र के सीमा को पार कर गलत सोहबत में पड़कर अपने भविष्य की राह को परवाह न कर लापरवाही के दलदल में घुस बाप का पैसा फिल्म देखने,गुटखा,सिगरेट पीने में ही खर्च कर डालते थे।जबकि रामधन अपने पिता के बातों को भविष्य हेतु उनके कथन को गांठ बांधकर आगे बढ़ रहा था।
उसके साथ के बच्चे रामधन का खूब खिल्ली उड़ाते।किंतु रामधन इन फिजूल बातों पर ध्यान देना छोड़ अपने काम में ही लीन रहता।उसके सुशीलऔरआज्ञाकारी स्वभाव से गांव के जितने मलिन लोग थे उससे खुश रहते थे।वह अपने से उम्रदराज लोगों को देखकर कुछ पल रुककर हाल-समाचार पूछ कर हीआगे बढ़ता।उसके इस तरह के शालीनता और सौम्यता पर सारा गांव मुग्ध था।आप सभी को लगने लगा था कि रामनाथ को जिस तरह दूसरी शादी के लिए पुरजोर कोशिश किया जा रहा था और रामनाथ एक सिरे से फंदे को काटते हुए न में सिर हिला देते थे।गांव में बहुत लोगों के रिश्तेदारी में बहुत सी ऐसी लड़कियां थी जो असमय ही वैधव्य का जीवन जीते हुए एक मुकम्मल हाथ के तलाश में उनकी आंखें जमीन तलाश रही थी।उसी में से एक प्रहलाद सिंह थे उनके एहसान से रामनाथ दबा हुआ था।उसकी पत्नी सुनीता लाइलाज़ बीमारी के चपेट में थी तब प्रहलाद सिंह जी खोलकर आर्थिक मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहे।लेकिन एहसान का मतलब यह तो नहीं कि दैहिक सुख हेतु जीवन को नरकमय बना लिया जाए।
रामनाथ कुशवाहा की गिनती मध्यम वर्गीय किसान में होता था।किंतु उसकी मित्रता कुछ ऐसे शालीन और कुलीन लोगों के साथ थी जो उसके अंदर थोड़ी बहुत जहिलीयत भरी थी वह शनै-शनै निकलकर उसमें शालीनता का विस्तार होते चली गई थी।गांव के जब सड़क के चौड़ीकरण करने हेतु मापने का कार्य चल रहा था।मुख्य डाक बंगले पर जितने बाहर से आए साहब थे उसी सरकारी बंगले में ठहरे हुए थे।उनके देख-रेख के लिए गांव के कुछ लोगों भी नियुक्त किया गया था।साथ में गांव का चौकीदार दया ठाकुर मुखिया जगतनारायण सरपंच बुलाकी सिंह हमेशाआगे-पीछे लगे रहते थे।उसके पीछे बेरोजगार बेटे का दर्द उनके सामने बोल रहा था ताकि साहब की कृपा दृष्टि पड़ जाए तो अस्थाई तौर पर कुछ दिनों के लिए समस्या का समाधान हो जाएगा।साहब पुराने घाघ खिलाड़ी उनकी भावों को भांपकर इस तरह के दकियानूसी बातों पर ध्यान नहीं दिए।कारण जैसा लोग चाह रहे थे वहां उस तरह का कोई प्रबल संभावना नहीं दिख रही थी।उनका आशय समझ ख़ामोश हो गए थे।साहब घर का ही चाय पीना पसंद करते थे।गाय का दूध सबसे प्रिय था।इसलिए होटल के चाय से हमेशा बच कर ही रहते थे। मजबूरी में कभी-कभी पी लिया करते थे।क्योंकि शुरू से ही उनकी आदत थी।घर में हमेशा गाय के दूध की चाय बनती थी। क्योंकि गाय रखने का प्रचलन पुश्तों से चली आ रही थी।
कोल्हान गांव में यदि किसी के पास लगहर गाय थी तो वह शख्स रामनाथ कुशवाहा थे जो हमेशा से गाय पालते आ रहे थे।कारण भैंस रखकर रोजाना धोने का झंझट क्यों पाले। इसलिए उनके घर गाय दूध का ही सेवन होता था।फिर भी रामनाथ को भैंस का दूध से किसी तरह का परहेज वगैरह नहीं था।कमासुतआदमी वह भी गवर्ई किसान हमेशा बाहर-भीतर कार्य प्रयोजन में जाना होता था।लेकिन घर में गाय दूध का सेवन होता था।जब यह बात रामनाथ ने सुना तो एक लोटा औटा हुआ दूध लेकर ही पहली बार मिलने चले गए।रामनाथ का यह आदत साहब को बहुत पसंद आया।इसलिए बहुत जल्द ही उनके गुड बुक में उसका नाम दर्ज हो गया।वे अपना फर्ज निभाने में कभी किसी तरह की कमी नहीं किए।उन्हीं के संगत सोहबत आपसी स्नेह,आशीष व लगाव के बदौलत रामनाथ उनसे जानकारी लेकर रामधन के साथ प्रतिदिन चर्चा व दिनचर्या पर नजर रखने लगे थे।आज्ञाकारी रामधन बाबू के कथन पर,उनके कसौटी पर खरा उतरता गया।नतीजा यह कि उसके नजर में अपने हम हमजोलियों के खुराफाती करिश्मा को देख-देख आहत हो जाता।किंतु आदत की शुमार इतनी प्रौढ व जड़ हो गई थी कि उस मिथक को तोड़ कर सही राह पर प्रशस्त करना रामधन के बूते के बाहर की थी।समझाने का असरअपना कसर छोड़ता इसके पहले ही रामधन के प्रति सबका चेहरा तम-तमाकर लाल हो जाता।
रामधन अब उन सभी को समझाना छोड़ अपने काम से काम रखने लगा।अपना सारा ध्यान पढ़ना अपने घर के कार्यों के प्रति समर्पण का भाव तथा कुछ बचे समय को बाबू के कामों में हाथ बटाता।इसी तरह दाएं-बाएं,हल्की-फुल्की कार्यों का देखरेख में उसका बाइस वसंत कैसे गुजर गया इसका तनिक भीआभास ही नहीं हुआ।रामनाथ अब काफी बुजुर्ग हो गए थे।आंखों सेअभी कम सुझता था।रामधन घर बाहर के सारे कार्यों को अपने जिम्मे में लेकर एक तरह से उनको बैठोर बना दिया था।फिर भी वह छोटी-मोटी कार्यों को कर लिया करते हैं।अब पहले जैसा उनके अंदर कुब्बत तो थी जो ढंग से कर पाते।उम्र की आड़ी-तिरछी रेखाएं उसके चेहरे पर उग आई थी।रामधन का पढ़ाई भी समाप्त हो गया था और वह अल्प समय में ही एक बेहतरीन सरकारी नौकरी के लिए उसका चयन हो गया था।वह चाहता था कि गांव के आजू-बाजू में कोई नौकरी हो जाए।नौकरी की बातें सुन रामनाथ पूरे गांव में लड्डू बटवाए थे।उस दिन खुशी से फूले नहीं समा रहे थे जबकि रामधन भीतर से उसका हृदय विदीर्ण व बिछुड़ने का गम सता रहा था।वह जाना नहीं चाह रहा था।इस विषय को बाबू पर जाहिर कर बहुत बड़ी भूल कर गया था। जिसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था।नौकरी के आवेदन करते समय ही जिसमें उसकी चयन हुआ था वह इसको बार-बार रिफ्यूज कर रहा था।वह कहता-बाबू लिखा है इस नौकरी में विदेश जाकर भी सेवा देना पड़ सकता है।विदेश मंत्रालय के अंतर्गत नौकरी है।बॉड लिखना पड़ेगा।’तो क्या हुआ।”आपका देखभाल कौन करेगा।वह बोला-‘सबसे बड़ी फिक्र है। मैं भारीअसहज व सहरपंज में हूं।रामधन ने कहा-‘एक नौकरानी की व्यवस्था कर भी दूं तो क्या आप का देखभाल एक सहृदय नारी की तरह सेवा करेगी।”गांव के लोग अपने परिवार की तरह होते हैं तुम मेरी फिक्र मत कर।””अपना जितनी खेती है यहां रहकर भी एक बढ़िया ऊंचे दर्जे का जीवन जिया जा सकता है।’लेकिन रामधन के कथन पर बाबू के पल्ले कुछ असर नहीं पड़ा।नतीजा यह कि शीघ्र ही उसकी नियुक्ति पत्र आ गया। उसका पहला पोस्टिंग दिल्ली में होने वाला था।उसके बाद विदेशों में जाना लगभग तय था।
अभी रामधन को ज्वाइन किए महीना भी नहीं गुजरा होगा कि रामनाथ तबीयतअचानक बिगड़ गया।स्थिति दिन-प्रतिदिन दयनीय होते जा रही थी।बुलाने के नाम पर उनके अंदर एक जोश जग जाता वह कहते-‘जब आप लोग हैं तो फिर क्या जरूरत है रामधन की।नई नौकरी है।सब कुछ खत्म हो जाएगा।प्रशिक्षण के बाद पता चलेगा तो आएगा लेकिन उनको एहसास हो गया था कि उनका इहलीला समाप्त होने वाला है।गांव वाले उनके नजदीकी हित मित्र थे सब साथ थे।उनके देख-रेख के लिए कोई-न-कोई होता था।रामधन ने सिर्फ देखने के लिए रख कर गया था सारा काम एक बेटी की तरह सेवा सुश्रुवा करती थी।महीने भर के अंतराल में ही तो चल बसे रामनाथ।झाड़ू- पोछा करते हुए बहुत घरेलू हुआ परिवारिक हो गई थी एक बेटी की तरह सेवा की थी। अपना देह त्यागने से पहले ही उसने अपना मंसूबा अपने मित्रों में प्रकट कर दिए थे।उस साल के पैदा में से तीन हिस्सों को गांव के विकास व एक हिस्सा उस बेटी को जो अंतिम समय में उनका सेवा की थी उसको देने के लिए कहकर स्वर्ग सिधारे थे।जब रामधन आएगा तोअपना देख-रेख करेगा।यदि नहीं आता है तो गांव के विकास में सारा फसल बेचकर लगा दिया जाए।’ गांव के मुखिया और सरपंच के सौजन्य से यह सारा कार्य का निष्पादन हो रहा था।रामधन फ्रांस गया तो वह वहीं का होकर रह गया था।उसके साथ में काम करने वाली एक सहकर्मी सरिता से परिणय-सूत्र में बंध गया था।जो मूल रूप से गुजरात की रहने वाली थी।उसे एक दो बार वापस आने का मौका मिला था किंतु सरिता का पांव भारी होने के कारण वह नहीं आ पाया था।
वक्त बीत रहा था वह विदेश में सरिता संग विलासिता भरा एक रसूखदार जीवन जी रहा था।उसका गांव उसके नजर में एक तरह से विस्मृत हो गया था।इसी तरह आठ साल का समय देखते-देखते,बंद मुट्ठी में कैद रेत की तरह धीरे-धीरे सरक गया।नन्हा राजू अब एक साल का भी नहीं हुआ था।चाहकर भी सरिता को साथ नहीं ला सका।इसलिए अकेले आने का ही प्लान बनाया था।गांव जब आया था उसके बाबू के संग के जितने भी मित्र थे उसमें से अधिकांश कुच कर गए थे।अब गांव पहले जैसा नहीं बल्कि सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा था।सरकारी बाबू ने गांव का कायाकल्प कर दिए थे। रामधन को याद आ रहा था सरकारी बाबू ने बुलाकर कहा था-‘रामधन तुम्हारे गांव का कायाकल्प हो जाएगा।तुम्हारे गांव में अब रोजगार की कमी नहीं रहेगी।यदि चाहों तो पढ़ें-लिखे लोग गांव में रोजगार पैदा कर इसके खुबसूरती को चार-चांद लगा सकते हैं।वाकई सब कुछ बदल गया था।मुखिया जगतनारायण चाचा जो काफी बुजुर्ग हो गए थे।उसने झुककर चरण स्पर्श किया तो आशीष देते समय उनकी आंखें डबडबा गई।वे रूआंसे होकर बोले-‘रामधन मैं कसम से बंधा हुआ था मैंने तुमको खबर नहीं किया।लेकिन जाते-जाते रामनाथ बहुत कुछ कर गए।यह सब तेरे बाबू का ही देन है।गांव के विकास में उसके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। इसके लिए गांव उसका ऋणी रहेगा।उसके बाद मुखिया जी रामधन को अपने यहां ले गए। कुछ पल सुस्ताकर थकान दूर कर हल्के नाश्ता के उपरांत मुखिया जी उसको घर का चाबी थमाकर साथ आ रहे थे।
रामधन जब घर का दरवाजा खोला तो पुरानी स्मृतियां भर-भराकर एकदम से उसकी यादें ताजा हो गई।ऐसा लगा मानों उसके बाबू कह रहे हो-‘आ गया रामधन।’उसकी आंखें एक बार फिर से डबडबा गई।उन्होंने मुखिया चाचा से कहा-‘अगले माह बाबू का पुण्य तिथि ढंग से मनाऊंगा।अब जाना नहीं है।आगे का विकास मैं करूंगा।अब नौकरी बहुत हो गया मुखिया चाचा।वह उसी दिन वापस लौट गया था।उसे पूरी तरह से समझ में आ गया था बाहर के दुनिया से अपनी दुनिया का कोई तोड़ नहीं।
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