अस्तित्व: निरंतर यात्रा-डॉ सुनीता शर्मा

ऋचा अपनी किताबें समेटते हुए अचानक माँ से बोली,
“माँ, एक बात पूछूं?”
सुनीता, जो खिड़की के बाहर धूप में भीगी दोपहर को निहार रही थी, मुस्कुराई, “हां बेटा, पूछो।”
“हम कौन हैं?” ऋचा का सवाल साधारण था, लेकिन उसमें छुपा असमंजस सुनीता के दिल के तार छेड़ गया।
“मतलब?” सुनीता ने धीरे से पूछा, लेकिन मन में हलचल मच गई।
“मतलब… हम भारतीय हैं, लेकिन भारत में हमें ‘एनआरआई’ कहते हैं। यहाँ विदेश में हम ‘प्रवासी’ हैं। तो असल में हैं कहां हम, माँ? धरती के या आकाश के?”
उस मासूम सवाल ने सुनीता को वर्षों पीछे लौटा दिया। वह दिन याद आ गए जब पहली बार वह विदेश आई थी—हाथ में एक सूटकेस, दिल में ढेर सारे सपने और आँखों में भारत की माटी की खुशबू समेटे। यहाँ आकर, हर त्यौहार पर रंग, रौशनी और गीतों से भारत को अपने घर में जिंदा रखा। भाषा और संस्कृति को सीने से लगा कर रखा।
जब भी कोई फॉर्म भरना होता, गर्व से ‘भारतीय मूल’ पर टिक करती। सोचती थी—”हम भारतीय संस्कृति और भाषा का परचम विदेश में लहरा रहे हैं।” पर जब भारत जाती, वहाँ के लोग अलग ही चश्मे से देखते।
“अरे, एनआरआई हैं? आपके लिए तो सब आसान है। आपके बच्चे विदेश में पले-बढ़े हैं, इन्हें क्या मालूम असली भारत?”
वो ‘अपना देश’ जो कभी उसकी रग-रग में बसा था, अब जैसे पराया सा लगता। वहाँ के लोगों की नजरों में एक अजनबी, और यहाँ विदेश में एक ‘प्रवासी’।
गहरी सांस लेकर, सुनीता ने कहा,
“ऋचा, हम त्रिशंकु हैं… न पूरी तरह उस देश के, न इस देश के। हमारे पांव धरती पर हैं, लेकिन दिल और पहचान दोनों जगह बंटे हैं।”
ऋचा ने माँ की आँखों में झांकते हुए पूछा,
“फिर हम कहाँ जाएंगे माँ, जब हमें दोनों जगह ही ठिकाना न मिले?”
सुनीता के दिल में जैसे कुछ चटक गया। उसे याद आया, जब ऋचा छोटी थी और पहली बार हिंदी बोलने पर स्कूल में बच्चों ने चिढ़ाया था। और वो दिन भी, जब सुनीता ने भारत में अपने पुराने दोस्तों से मिलने की कोशिश की थी, और जवाब मिला था, “अरे, तुम्हें तो अब यहाँ की आदत नहीं होगी!”
क्या यही था प्रवासी होने का मतलब? एक ऐसा पुल जो दो देशों को जोड़ता तो है, लेकिन खुद कहीं टिक नहीं पाता?
सुनीता ने ऋचा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
“जहां हमारी जड़ें हैं, वहीं हमारा असली ठिकाना है। चाहे लोग जो भी कहें, हम भारतीय थे, हैं और रहेंगे। बस फर्क इतना है कि हमारी पहचान अब सीमाओं में नहीं बंधी।”
उसने थोड़ा रुक कर, दर्द को छुपाते हुए कहा,
“हमें दोनों जगह की हवा मिली है, दोनों की मिट्टी की खुशबू है हमारे भीतर। हम उन सभी जगहों के हैं जहाँ हमारी संस्कृति, भाषा, और दिल मौजूद हैं।”
ऋचा ने हल्की मुस्कान दी, पर उसकी आँखों में अब भी वो सवाल तैर रहा था— क्या यह पहचान का बोझ हमें हमेशा ढोना पड़ेगा? क्या हमारी जड़ें कभी किसी एक जमीन में गहरी हो पाएंगी?
सुनीता ने चुपचाप खिड़की से बाहर आसमान की ओर देखा। सूर्यास्त की लालिमा में धरती और आकाश का मिलन हो रहा था, पर फिर भी दोनों अलग थे। शायद जवाब वहीं कहीं था—असीमित और बेफिक्र, बिना किसी सीमा के, जहाँ पहचान की कोई जरूरत नहीं होती, सिर्फ अस्तित्व ही काफी होता है।
डॉ सुनीता शर्मा
न्यूजीलैंड /ऑस्ट्रेलिया (मैलबोर्न )

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