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बचपन की वो दिवाली-पूनम

कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -4 संस्‍मरण
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दीपावली की बात आते ही घर की साफ-सफाई और सजावट, मिठाई, नए-नए सामान, गहने-कपड़े आदि हम सबके मन में चलने लगता है साथ-ही-साथ पटाखे भी।
यदि चालिस पचास साल पीछे जाकर देखें तो आज के समय और उस समय में बहुत बदलाव आ गया है। हालांकि पहले भी घर की साफ सफाई और सजावट होती थी, लेकिन दीपक से न कि रंग-बिरंगी व झिलमिलाती लाईट से। यदि ये कहें कि आज घर सजाना बहुत आसान हो गया है तो कोई गलत नहीं होगा। बिजली से जलने वाली छोटी-छोटी लाईटें लाकर लोग घर के चारों ओर लटका देते हैं। बस फिर क्या जब मर्जी ऑन कर लें और घर जगमगा उठता है।
लेकिन वही पहले पंद्रह दिन से बाती बनाकर रखना, दीपक लाकर धोकर रखना वगैरह-वगैरह की तैयारी चलती थी।
मुझे याद है जहाँ माँ तरह-तरह की मिठाई बनाने, दीपक-बाती आदि की तैयारी करती थी तो वहीं मेरे भैया सब पटाखे की लंबी लिस्ट बनती थी। हालांकि मेरे बाबूजी बहुत अधिक पटाखे लाते नहीं थे। एक-दो पैकेट मिर्ची बम, एक पैकेट चकरी और फुलझड़ियाँ ढेर सारी बस हो गई ये दिला देते थे। लेकिन मेरे भैया सब माँ से पैसा लेकर चुपके से ढ़ेर सारे पटाखे खरीद लाते थे वो भी बड़े-बड़े जैसे चाॅकलेट बम,राॅकेट बम, सूतली बम, अनार, डबल सांउड बम आदि ।
दीपावली के दिन शाम को दीपक में तेल बाती डालकर जल्दी- जल्दी घर के छत, बरामदा, रेलिंग, सीढी सब जगह हम सब भाई-बहन मिलकर सजा देते थे। मुझसे चार बड़े भाई हैं। चूंकि मैं सबसे छोटी थी, इसलिए मेरे जिम्मे बहुत कम काम आता था। दूसरी बात ये थी कि सभीको दीपक सजाकर पटाखे चलाने की जल्दी रहती थी।
माँ और बाबूजी पूजा में लग जाते थे। सबको हिदायत थी कि लक्ष्मी पूजन से पहले पटाखे नहीं छोड़ा जाएगा। सभी लक्ष्मी पूजन और आरती का इंतजार करते रहते थे। पूजन खत्म होते ही प्रसाद लेकर पटाखे छोड़ने बाहर निकल जाते थे।
होता ये था कि लक्ष्मी पूजन के बाद बाबूजी डेढ-दो घंटे जप और पाठ करते थे। इसलिए बाहर आते नहीं थे। बस यही मौका मिलता था उनलोगों को बड़े-बड़े पटाखे चलाने का।
उस समय हम लोग झारखंड के जारंगडीह में रहते थे। हमारे गार्डेन के बाहर खाली मैदान था वहीं पटाखे छोड़ते थे।
मुझे याद है वो दीवाली जब मैं छ:-सात की थी शायद। मेरे से बड़े भैया मतलब चारों में सबसे छोटे भैया पटाखे की आवाज से बहुत डरते थे। तेज आवाज होते ही डरकर घर के कोने में घुस गए थे और रो रोकर जोर-जोर से बड़े भैया सबको बुरा भला कह रहे थे। इधर मैं बाहर खड़े होकर मजे से पटाखे चलते देख रही थी, साथ ही दौड़-दौड़कर उन्हें भी बुलाने जाती थी।
इस समय तक मैं मात्र फुलझड़ी ही चलाती थी।
लेकिन अगले वर्ष मैंने प्रण किया और भैया को लेकर बड़े-बड़े पटाखे चलाती ताकि उनका डर भागे। मैं मिर्ची बम, चकरी, बल्कि एक दो राॅकेट भी छोड़ी। न जाने मुझे इतनी हिम्मत कहाँ से आ रही थी। मेरे छोटे भैया को भी अब डर नहीं रहे थे, बल्कि वह भी पटाखे चलाने लगे।
लेकिन ये सब हमें बड़े तीन भाईयों से छिप-छिपकर करना पड़ता था।
हाँ सच में ये डर-डरकर और छिप-छिपकर पटाखे चलाने का अलग ही आनंद था।
बड़े तीनों भैया बाबूजी से छिप-छिपकर और हम दोनों बड़े तीनों भाईयों से छिप-छिपकर पटाखे चलाते थे।
बाबूजी का पाठ खत्म होते ही सभी भैया फुलझड़ी और मिर्ची बम चलाने लगते थे और बचे हुए पटाखे बाद में छठ के घाट पर या इक्का-दुक्का कभी-कभार चलाया जाता था।
छोटे भैया का डर उसके बाद से चला गया। बल्कि बाद में उन्होंने ही मुझे चाकलेट बम, सूतली बम चलाना सिखाए। यहाँ तक कि हम इतने निडर हो गए थे कि बहुत खतरनाक ढंग से पटाखे चलाने लगे। जैसे चाकलेट बम या सूतली बम में आग लगाकर हाथ से दूर फेंक कर हवा में फोड़ना आदि। अब सोचती हूँ तो लगता है कि ये गलत करते थे, लेकिन उस समय ये कहाँ समझ थी। उस समय तो इसमें बहुत आनंद आता था।
सच में वो दिन भी क्या दिन थे।
आज मैं भी कहती हूँ कि पटाखे नहीं चलाना चाहिए, क्योंकि पटाखे चलाने का भला-बुरा समझने लगे हैं।
फिर भी वो बचपन की दिवाली अविस्मरणीय है।

–पूनम झा ‘प्रथमा’
जयपुर, राजस्थान

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