कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 कहानी शीर्षक – बनारसी साड़ी। शब्द सीमा – 500 शब्द
चारों ओर उदासी और अवसाद…सब कुछ बिखरा-बिखरा… मेरे जीवन की तरह। बालों को एक जूड़े में समेटने की असफल सी कोशिश कर,अनमनी सी कमरे को कुछ व्यवस्थित करने में जुट गई।फैले हुए कपड़े तहा कर,रखने के लिए अलमारी खोली तो साड़ियों के ढेर में सबसे नीचे रखी हुई अपनी बनारसी साड़ी पर बरबस ही मेरी निगाहें अटक गईं। झट उस बनारसी साड़ी को निकाल हृदय से लगा लिया।साड़ी में से अरुण का चेहरा झाँका-“पहनों न।कितने प्यार से करवा चौथ पर तुम्हें यह साड़ी दी थी।इस लाल बनारसी साड़ी में कैसी दीपशिखा सी दमक रही थीं तुम।”शिखा ने साड़ी को सिर से ओढ़ दर्पण में स्वयं को निहारा। ऊँहह कहाँ दिख रही है वह भला दीपशिखा सी?मन बुझ सा गया।अरुण तो यों ही…एक बार फिर आईने में अपनी छवि को ध्यान से देखा।क्लांत-उदास, शुष्क मुख, बेतरतीब केश,सूना माथा…आँखें बरबस बरस पड़ीं।अतीत में डूबते-उतराते उसकी हिचकियाँ बंध गईं।अरुण के जाने के बाद उसका पूरा जीवन ही बदल गया। पतझड़ सी शुष्कता उसके इर्द-गिर्द बिखर गई। “शिखा! शिखा!कहांँ हो तुम?”अर्णब का स्वर। अर्णब,अरुण और शिखा एक साथ,एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। तीनों अच्छे दोस्त थे। अरुण और शिखा दोस्त से कुछ अधिक। कॉलेज की पढ़ाई के बाद तीनों अपने-अपने जॉब में व्यस्त हो गए पर मित्रता अपनी जगह यथावत बनी रही।
शादी के लिए शिखा पर घरवालों का दबाव बढ़ रहा था।मुँह खोल के अपने और अरुण के बारे में माँ-बाऊजी बता भी नहीं पा रही थी।मन ही मन घुटती…अरुण को कुछ कहती तो वह समझाता-“सब ठीक हो जाएगा। समय आने पर मैं माँ -बाऊजी से बात करूँगा।” समय आने पर अरुण उसके घर आया।पूरी शिष्टता से माँ-बाऊजी से बात भी की परंतु बात न बनी। लड़के तो अच्छा है पर जात अलग है… बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी… क्या यह सब करने के लिए तुम्हें पढ़ाया-लिखाया है…वह बिना अपराध किए अपराधिनी बन गई। अरुण उसे और वह अरुण को पूरी तरह अपना मान चुके थे सो कोर्ट में विवाह के लिए अर्जी दे दी। तीन माह प्रतीक्षा… जैसे-तैसे मंद गति से समय बढ़ रहा था। घरवालों की इच्छा के विरुद्ध अर्णब और कुछ लोगों की गवाही संग कोर्ट में उनका विवाह हो गया। सोने से दिन और चांदी सी रातें…दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे।पर शायद उसकी खुशियों को किसी की नज़र लग गई।
एक रात अरुण जो सोया तो उसकी सुबह ही नहीं हुई। हार्ट फेल!उस काली रात ने उससे उसका सब कुछ छीन लिया। ज़िंदगी आँसुओ में डूब गई। इतने बड़े संसार में वह निपट अकेली। ऐसे में अर्णब ने उसे हिम्मत दी।अपने आँसू पोंछ मन कड़ा कर उसने ऑफिस जाना शुरू कर किया। अर्णब शिखा के चेहरे पर खुशी लाने की हर संभव कोशिश करता।कभी यूँ ही बाहर घूम आते तो कभी वीकेंड में लंच या डिनर…पर शिखा अपने दुख में मानों धँसती ही जा रही थी। आज कुछ निश्चय कर अर्णब शिखा से मिलने आया था। “अर्णब तुम!’ । “हाँ शिखा। मुझसे शादी करोगी?मैं विश्वास दिलाता हूँ तुम्हें हर खुशी दूंंगा।आई लव यू। ” एक ही सांस में वह अपने मन की बात कह गया। शिखा स्तब्ध-हतप्रभ थी। “बेटी हम तुम्हें अपनी बहू बनाना चाहते हैं। बनोगी न हमारे घर की लक्ष्मी?”अर्णब की माँ ने शिखा की बड़ी-बड़ी आँखों में देखते हुए पूछा। “आप! आप कब आईँ आंटी?” “आंटी नहीं माँ।” और शिखा के सूने माथे पर बिंदी लगा दी।देखो कैसी दीपशिखा सी लग रही है मेरी बिटिया।” दर्पण में उसने खुद एक नज़र देखा- लाल बनारसी साड़ी और माथे पर लाल बिंदी। धीरे से सिर झुकाकर माँ को प्रणाम किया तो माँ ने उसे गले से लगा लिया। अर्णब कानों तक खिंच आई शिखा की मुस्कान में खो गया। “चलो जल्दी!घर पर बाबा हमारी राह देख रहे होंगे। मुझे भी ढेरों तैयारियाँ करनी हैं।” “जी माँ।” शिखा एक नई जिंदगी की ओर बढ़ चली।
यशोधरा भटनागर
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Madhya Pradesh
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