“कमलेश द्विवेदी प्रतियोगिता -01″
बात उन दिनों की है जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे। हम लोग अंडमान द्वीप समूह में रहते हैं। हमारे यहाँ हर साल दो महीनों की गर्मी की छुट्टियों हुआ करती थी और उन छुट्टियों में हम सपरिवार अपने पैतृक निवास यानी कि दादी के घर जाया करते थे। हम उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद के रहने वाले हैं। जब हम गांव में जाते थे वहाँ की हर चीज़ हमें आकर्षित करती थी। वहाँ जिस तरह से स्वच्छंद तरीके से हम घूमते, मिट्टी में खेलते थे और वहाँ के स्थानीय जो फल होते हैं उसे खाते थे तो एक अलग ही मज़ा आता था। मेरी दिनचर्या ही ऐसी होती थी कि सुबह उठे, नाश्ता वाश्ता किया और उसके बाद कभी इसके घर, कभी उसके घर। मेरी दादी जो कि जरा पुरानी ख्यालों की थीं, वो अक्सर हम लोगों को डांटती रहती थी, इधर मत जाओ, उधर मत जाओ, उधर मत खाओ, ये मत खाओ। मतलब किसी चीज़ के लिए हाँ तो निकलता ही नहीं था उनके मुख से। कभी कभी बड़ी कोफ्त होती थी, इतनी कि हम झल्ला कर कहने लगते थे.. क्या दादी हमेशा टोकती रहती हो। फिर दादी कहती.. आज कल के तो बच्चों को कुछ बोलना ही बेकार है। ये शहर के बिगड़े बच्चे हैं जिनसे तो भगवान ही बचाये।… इस तरह से हम मस्ती करते, खेतों- खलिहानों, बाग-बगीचे में उछल कूद मचाते अपने दिन बिता देते। जब वहाँ से वापसी होती तो हमें बड़ा दुख लगता था कि अरे अब जाना है, फिर से वही स्कूल, वही पढ़ाई लिखाई और वही घर। चूंकि शहरों में लोग अपने घर या काम की जगह से ही मतलब रखते हैं तो गांव से वापस लौटने का मन ही नहीं करता। धीरे धीरे करके वो दिन भी आ गया। तय दिन के अनुसार हमने बोरिया बिस्तर बांधा और निकलने लगे। तब हमें रेलवे स्टेशन तक बस से जाना पड़ता था। जब भी हम बस में चढ़ने लगते तो दादी कहती कि अरे बेटा अगली बार जल्दी ही आना, 4 दिन की जिंदगी है मेरी, पता नहीं कब मर जाऊं। तुम लोगों को देख न पाऊंगी। सुन कर मुझे भी दुख लगता कि हाय बेचारी दादी चार दिन के बाद मर जायेंगी, क्योंकि तब मैं बहुत छोटी थी तो मुझे समझ में नहीं आता था। उस समय की 4 दिन की जिंदगी मैं तो सच मान लेती थी। फिर तो मैं भी रूआंसी हो जाती और दादी को समझाती कि दादी तुम चिंता मत करो तुम्हें कुछ नहीं होगा। फिर अगले साल गर्मी की छुट्टियों में हम आते तो यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता कि दादी तो अभी जिंदा है, ये तो मरी नहीं। फिर उसके बाद जब हम छुट्टियां बिता कर निकलने लगे तो दादी ने फिर वही रोना रोया कि बेटा जल्दी आना, कुल चार दिन की जिंदगी है मेरी, मैं मर जाऊंगी तुम से मिल नहीं पाऊंगी। फिर तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने दादी से कहा… तुम तो पिछली बार भी यही बोली थी कि 4 दिन की जिंदगी है पर तुम मरी कहां? तुम तो अभी भी जिंदा हो। अरे फिर तो दादी ने रोना धोना छोड़कर जो मुझे कोसना शुरू किया…. करमजली जो मुँह में आता है बोल देती है, कुछ समझ में तो आता नहीं, यह शहर के बच्चे कुछ समझते ही नहीं हैं, इसके अंदर तो प्रेम है ही नहीं, पत्थर के हैं ये….. पता नहीं और भी क्या क्या कहती चली गई वो और अम्मा-बाबूजी का हंस हंस कर बुरा हाल हो रहा था। आज भी गर्मी की छुट्टियों का जब जब जिक्र होता है मुझे वही सब बातें याद आने लगती हैं। उनकी चार दिन की ज़िंदगी आगे कई बरसों तक कायम रही।
लेखिका – आशा गुप्ता ‘आशु’
पोर्ट ब्लेयर, अंडमान द्वीप समूह
इमेल- ashag754@gmail.com
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