आज हमारी पीढ़ी, हमारे नये युवक-युवती किस दिशा की ओर अग्रसर हो रहे हैं? क्या माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कारों को निभाने में चूक हो रही है या माता-पिता को ही संस्कार देने में चूक हो रही है?यह बात की बात है, किंतु यह बात इतनी घातक होती जा रही है कि एक महिला — जिसे सहनशीलता और अन्नपूर्णा माता के रूप में देखा जाता है, जिसे देवी की मूर्ति कहा जाता है — आज वही महिला रिश्तों को मज़ाक बना रही है, वैवाहिक जीवन को नर्क बना रही है।माता-पिता की मर्ज़ी से शादी करने की सज़ा किसी पुरुष को देना कहाँ तक उचित है? अपने दांपत्य जीवन में प्रेमी को पाने की लालसा रखते हुए, सात फेरे लेकर पति को मौत के घाट उतार देना — क्या ऐसा करके कोई स्त्री क्या हासिल करना चाहती है?क्या उनकी चेतना मर चुकी है? या फिर वे पैसे के घमंड में इतनी अंधी हो गई हैं कि उन्हें रिश्तों की अहमियत ही नहीं रही?एक पत्नी, जो सात फेरे लेते समय मंडप में बैठकर अपने पति की दीर्घायु की कामना करती है, वही पत्नी जब अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने ही पति की हत्या कर देती है, तो वह एक मां को, एक भाई को, एक बहन को, उनके अनमोल बेटे का ग़म दे जाती है। यह ग़म एक औरत के हाथों दिया जाता है। क्या औरत की सहानुभूति और संवेदनाएं मर चुकी हैं?
क्या आज की औरत इतनी निष्ठुर हो गई है कि अपने ही सुहाग को उजाड़ने में उसे तनिक भी संकोच नहीं होता? जब उसका कत्ल ही करना है, तो वह भागकर अपने प्रेमी से शादी क्यों नहीं कर लेती? किसी और की ज़िंदगी को बर्बाद करके उसे क्या मिलता है? क्या वह प्रेमी के साथ इस हत्या के बाद खुशी से रह सकती है?यह बातें उन सभी स्त्रियों को समझनी चाहिए। और उन पुरुषों को भी, जो ऐसे रिश्तों में पड़कर अपने पति या पत्नी — दोनों में से किसी एक को खो देते हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि इसके बाद जीवन आसानी से नहीं गुजर पाएगा। दिन-ब-दिन जीवन नर्क बनता जाएगा।तो हम क्यों ऐसी बेवकूफी कर बैठते हैं? क्यों अपने माता-पिता को शर्मसार करते हैं? उनके संस्कारों को तार-तार कर देते हैं — जिन्होंने हमें बहुत लाड़-प्यार से पाला है, हमसे अनगिनत उम्मीदें की हैं, और आज हम उनकी सारी उम्मीदों को निरर्थक करके उन्हें जीते-जी मार डालते हैं।
यह सब कमियाँ आज हमारे अंदर इसलिए आ रही हैं क्योंकि हमें रिश्तों की समझ कम सिखाई जा रही है। हम रिश्तों की अहमियत भावनाओं और संवेदनाओं से नहीं, पैसों से आंकने लगे हैं। हमारी पीढ़ी आए दिन अपने रिश्तों को मौत के घाट उतार रही है — जैसे कोई सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी खरीदकर लाया हो और घर लाकर तिनका-तिनका काटकर फेंक दे।ऐसी घटनाएँ आए दिन हो रही हैं — शादी के बाद एक पत्नी ने अपने पति को काटकर फेंक दिया, एक पति ने अपनी पत्नी का गला घोंटकर मार डाला। क्या यह सब घटनाएँ हमारे समाज में शोभनीय हैं?इसका निवारण यदि करना है, तो इसे हमारे अभिभावक और हम स्वयं ही कर सकते हैं। यदि लड़का या लड़की शादी के लिए तैयार नहीं हैं, तो दोनों पक्षों को आपस में बात करके ऐसे बच्चों की शादी न करें। उन्हें समय दें, बात करें, समझें — क्योंकि ऐसे बच्चों की वजह से एक नहीं, दो परिवारों की खुशियाँ एक साथ ही लुट जाती हैं। समाज में अशांति फैलती है, अहिंसा का भाव मर जाता है।
लोग अपने बच्चों की शादी करने से डरने लगे हैं। इसलिए मैं लड़कियों और लड़कों से भी यही निवेदन करती हूँ — प्रेम वही होता है जो त्याग और समर्पण सिखाए। प्रेम कभी यह नहीं कहता कि अगला व्यक्ति मारा जाए और तुम हमें चाहो — वह प्रेम नहीं, हवस होती है। वह प्रेम नहीं, स्वार्थ होता है, जो एक प्रेमी या प्रेमिका के नाम पर दिया जाता है।सच्चा प्रेमी वह होता है जो अपनी प्रेमिका को, चाहे वह जहाँ भी रहे, खुशहाल देखे — ना कि उसके हँसते-खेलते परिवार में आग लगा दे।और मैं अपने कलम के माध्यम से यह भी संदेश देना चाहती हूँ कि हर गलती माता-पिता की नहीं होती। जब हम स्वयं को ‘मैच्योर’ कहते हैं, तो हममें इतनी समझ होनी चाहिए कि यदि कोई हमसे सच्चा प्रेम करता है, तो वह हमें कभी गलत रास्ते पर नहीं ले जाएगा। वह हमारी खुशियों का, हमारी सामाजिक छवि का ध्यान रखेगा, हमारे जीवन पर कोई कलंक न लगे — यह सुनिश्चित करेगा। अगर कोई हमें उकसाकर गलत कामों के लिए तैयार कर रहा है, तो वह प्रेम नहीं है — वह धोखा है। और यह धोखा एक लड़के या लड़की के लिए करके हमें अपनी परवरिश पर हमेशा के लिए दाग लगाना पड़ता है, जो कि अशोभनीय है।
माता-पिता अगर हमारा विवाह अपनी मर्जी से करते हैं, तो वह हमारे हित के लिए करते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि कोई भी माता-पिता अपने बच्चों का अहित नहीं चाहता। हाँ, सौ में से एक प्रतिशत अपवाद हो सकते हैं, जो अपने बच्चों को बलि चढ़ाने के लिए तैयार हों। लेकिन आज के बच्चे — सौ में से 91% — ऐसे हैं जो अपने माता-पिता की इज्ज़त को माटी में मिलाने से पीछे नहीं हटते। वे जीवन भर की कमाई और मेहनत को एक प्रेम की ख़ातिर सूली पर चढ़ा देते हैं।ऐसी औलाद से अच्छा है कि औलाद न हो। हम इस संसार में इसलिए नहीं आए हैं कि दूसरों की ज़िंदगी को नर्क बनाएं। हम इसलिए आए हैं कि अपने जीवन को सार्थक बना सकें। ईश्वर द्वारा दिया गया यह मनुष्य जीवन किसी के लिए वरदान बनना चाहिए, अभिशाप नहीं।
ज्योति सिंह, वाराणसी
(वर्तमान पता – लेह लद्दाख)
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