राहुल और स्नेहा कभी एक-दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकते थे। हर बात साझा करना, एक-दूसरे की आंखों में झांकना, और देर रात तक बातें करना — यही उनका रिश्ता था।
पर न जाने समय की धार में कहीं कुछ चटक सा गया हो… घर की बत्तियाँ बुझ चुकी हैं, एक हल्की पीली रोशनी कमरे के कोने से बिस्तर पर स्नेहा फोन पर कुछ देख रही है, राहुल लैपटॉप पर कुछ टाइप कर रहा है।
“राहुल, तुमने सुना? आज ऑफिस में नेहा ने शादी का कार्ड दिया…”
राहुल की आंखें स्क्रीन पर ही टिकी रहीं।
“हूँ… अच्छा है, भेज देना उसे बधाई।”
स्नेहा ने एक गहरी सांस ली—
“पहले तुम ऐसे नहीं थे। हर छोटी बात पर मुस्कुराते थे, अब तो जैसे साथ होकर भी साथ नहीं हो…”
राहुल—”स्नेहा, अभी काम है… कल बात करेंगे।”
“वही तो… कल…” स्नेहा मानों करवट लेते खुद से ही बुदबुदाई..!
स्नेहा ने मोबाइल एक तरफ रखा और कहा,
“रात के खाने में नमक ज़्यादा था, पता चला?”
राहुल ने बिना देखे जवाब दिया,
“शायद… मैंने महसूस नहीं किया।”
स्नेहा करवट बदल सोने का प्रयास करने लगी… “वही तो…”
कुछ देर बाद सन्नाटा फिर लौट आया… स्नेहा की आंख लग गईं।
पता नहीं राहुल के बेड लाइट बंद करते हुए कैसे टेबल पर रखे हथौड़े का हैंडल एक धीमी सी चिटकाहट के साथ गिर पड़ा..!
आज पहली बार राहुल की नज़र कहीं उस टेबल पर गईं—ये क्या—यह स्नेहा भी बहुत अजीब है, जाने क्यों हमेशा कुछ न कुछ अजीबोगरीब बिस्तर के बीचोंबीच एक छोटी-सी मेज़ पर सजाती रहती है न जाने क्यों। बहुत गौर से उसने देखा…
यह पुल तो साबुत था—यह कब टूट गया? टूटा हुआ पुल… उसे लगा यह कभी दो किनारों को जोड़ता था, अब मानों केवल दूरी का संकेत कर रहा हो..!
टेबल पर रखे टूटे पुल की छाया दीवार पर लहराने लगी, दीपक को लगा मानो वो दोनों की तरफ मुँह चिढ़ा
रहा हो—
“अब तो हम भी जोड़ने लायक नहीं बचे… तो तुम क्या…!”
यह गोंद की बोतल—जिस पर मोटे अक्षरों में स्नेहा का लिखा : “प्यार का गोंद”, लेकिन यह क्या, अब तो यह सूख चुकी है, अरे इसका तो नोज़ल भी जाम है।
दीपक को लगा जैसे “गोंद की सूखी नोक से एक पतली दरार बिस्तर की चादर पर फैल रही है—बिल्कुल वैसी ही, जैसी रिश्ते में कहीं आ गई है..!”
यह हथौड़ा—इस पर चिपका यह कागज़: “समझदारी की हथौड़ी”, लेकिन उसका हैंडल टूटा हुआ, जबकि उसका सिरा अब भी बहुत मज़बूत… न जाने क्यों राहुल को ऐसा महसूस होने लगा… यह क्या, यहां कोई रोया नहीं, कोई लड़ा नहीं—पर कुछ है जो उस कमरे में दम तोड़ रहा है..!
अचानक राहुल की आंख जैसे वास्तव में खुल गई हो—कमरे में ऐसी खामोशी पसरी हुई थी—जिस खामोशी को सिर्फ दीवारें सुनतीं या बिस्तर ही समझता है..!
वह उठा, उसने कुछ सोचा और इन सबके बीच उसने एक नई चीज़ रखी—एक छोटा सा मिट्टी का दीपक जिसे उसने जला दिया—दीपक कांपती लौ के साथ जल उठा..!
स्नेहा ने करवट ली और उसने दीपक को देखा।
“ये रखा तुमने?” उसकी आवाज़ में—न उलाहना, न उत्सुकता—सिर्फ एक थकी हुई, सच्ची जिज्ञासा सी…
राहुल ने आँखें झुका लीं। “हाँ… सोचा, टूटे पुलों की दरारों में भी रोशनी हो तो शायद रास्ता दिखे…”
स्नेहा चुप रही। उसने धीरे से ‘प्यार का गोंद’ उठाया, नोज़ल खोली—सूखी है, पर लगता है गहराई में अब भी थोड़ी नमी बची है..!
“शायद ये थोड़ा बचा हुआ ही काफी हो…” दीपक ने फुसफुसाते हुए कहीं स्नेहा या जैसे खुद से ही कहा..!
राहुल ने हथौड़ा उठाया, उसे पलटकर देखा और मुस्कराते हुए
“अरे, हैंडल बदल सकता है, सिरा तो अभी भी काम का है…”
कोई बड़े शब्द नहीं कहे गए उस रात। पर दो दिलों के बीच एक टूटा पुल… मरम्मत के लिए शायद तैयार..!
उनके बीच की दूरी वैसी ही थी, लेकिन अब वह दूरी सज़ा देने के लिए नहीं, समझने के लिए थी।
दीपक की लौ अब स्थिर थी—मानो कमरे की दरारों में कोई फुसफुसा रहा हो:
“रिश्ते तब नहीं टूटते जब चीजें ख़त्म हो जाएँ, बल्कि तब जब हम कोशिश करना छोड़ दें। अगर थोड़ा सा प्यार बचा हो, थोड़ी सी समझदारी बची हो—तो अंधेरे में भी एक दीपक जल सकता है। और कभी-कभी, बस वही दीपक काफ़ी होता है शायद…”
डॉ. सुनीता शर्मा
न्यूज़ीलैंड / ऑस्ट्रेलिया
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