दस पैसे-डॉ. राधा दुबे

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मैं बचपन में बहुत नटखट थी। दिनभर उछलकूद यहाँ से वहाँ, मम्मी को परेशान करती रहती। वह डाँटकर भगा देती तो मामा जी के पास चली जाती। उन्हें भी खूब परेशान करती, उस समय मामा जी हमारे साथ ही रहते थे। मैं उन्हें भी चैन से नहीं बैठने देती। नित नई माँग करती रहती हालांकि मैं ऐसी कोई भी मस्ती या शैतानी नहीं करती थी जिससे किसी का नुकसान हो। हाँ लेकिन किसी भी तरह सभी को अपने काम से व्यस्त रखती। एक दिन मम्मी ने मामा जी से कहा कि- ’यह दिनभर बहुत परेशान करती है, इसका पास वाले विद्यालय में प्रवेश करा दो।’ मामा जी भी खुश हो गए क्योंकि उन्हें भी मेरी शैतानियों से छुटकारा  मिलने वाला था। दूसरे दिन ही वह मुझे विद्यालय ले गए जो मात्र घर से कुछ ही दूरी पर था और वहाँ मेरा प्रवेश करा दिया। मैं भी बहुत खुश थी, ढेर सारे बच्चंे मिलेंगे। सभी के साथ बहुत खेलूँगी परंतु माँ नहीं मिलेगी यह सोचकर थोड़ा दुखी हो गई और विद्यालय जाने से मना कर देती हूँ। तब मामा जी समझाते हैं कि- ’घर के इतने पास विद्यालय है, तुम कभी भी मम्मी से मिलने आ सकती हो और हाँ यदि तुम प्रतिदिन विद्यालय जाओगी तो तुम्हें मैं दस पैसे दूँगा।’
दस पैसे का नाम सुनते ही मेरी आँखों में चमक आ गई, मैंने कहा- अरे वाह! मामा जी मुझे प्रतिदिन दस पैसे मिलेंगे ’फिर तो ठीक है मैं कल से ही विद्यालय जाऊँगी’ और दूसरे दिन तैयार होकर पहुँच गई मामा जी के पास पैसे लेने। अब यह प्रतिदिन का क्रम बन गया, पैसे लेती और दौड़ लगा देती विद्यालय की तरफ, सीधे विद्यालय में जाकर रुकती। कभी-कभी खाने की छुट्टी में भी आकर दस पैसे माँगती तो मामा जी कहते- ’सुबह विद्यालय जाते समय तो ले गई थी।’ तब मैं कहती- ’हाँ पर अब घर आकर फिर से विद्यालय जा रही हूँ न।’ मामा जी थोड़ा गुस्सा करते, थोड़ा मुस्कुराते और मेरी बढ़ी हुई छोटी-सी हथेली पर दस पैसे रख देते और मैं खुशी-खुशी उछलते हुए विद्यालय की ओर चल देती। 

डॉ. राधा दुबे जबलपुर (म.प्र.)

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