साप्ताहिक आयोजन क्र-2 कहानी शीर्षक पहला प्यार
पुरानी दिल्ली में ब्रह्मपुरी एक साधारण-सा मुहल्ला है। तंग गलियां और घनी बसावट–इसके अलावा इसकी कोई और पहचान भी नहीं है। मगर, मेरा मन आज भी वहीं कहीं विचरता रहता है। बचपन की यादें बार-बार उन्हीं गलियों में खींच ले जाती हैं। लगता है जैसे कल ही की बात हो।
विद्यालय में स्वतंत्रता-दिवस की तैयारी चल रही थी। तब मेरी उम्र यही कोई तेरह-चौदह की रही होगी। माला-जब कभी ये नाम लेता हूं, मेरे वदन में एक सिहरन-सी दौड़ जाती है। हां तो मैं ये कह रहा था कि माला ऑडिटोरियम को सजाने में इतनी तल्लीन थी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब जलती हुई मोमबत्ती की लौ उसके स्कर्ट को पकड़ ली। मैं पास में ही चहलकदमी करता भाषण की पंक्तियों को नाटकीय अंदाज में बोलने का अभ्यास कर रहा था। अचानक कुछ जलने की गंध ने मेरा ध्यान आकर्षित किया और पीछे से किसी के चिल्लाने की आवाज़ भी आई “अरे देखो, आग ! आग लग गई है !!” “दौड़ो ! बचाओ !!”
बिना कोई पल गंवाए मैंने पास में रखे बाल्टी के पानी को उसपर उड़ेल दिया। तब तक और भी कई लड़के-लड़कियां वहां इकट्ठे हो गये।
“क्या हुआ ?” “कैसे हुआ?” एक शोर-सा मच गया। मेने देखा सभी एक गोल घेरा बनाते हुए माला को सहारा दे रहे थे । तभी आरती मैम, हमारी आर्ट ऐंड क्राफ्ट टीचर, आई और सबको अलग करते हुए उसे ऑडिटोरियम से बाहर ले जाने लगी। माला पूरी तरह से भीग चुकी थी। जाते-जाते उसने मेरी तरफ देखा। उसकी आंखों में न जाने वो कौन-से भाव थे, जो आज भी मेरे दिल को किसी जल-भंवर की तरह उद्वेलित करते रहते हैं।
माला मेरे ही मुहल्ले में रहती थी। एक्स ब्लॉक में मेरा घर था और बी-ब्लॉक में उसका। हम एक ही क्लास में पढ़ते थे । पहले भी हमारी कैजुअल बात-चीत होती थी और गली-मुहल्ले में या मंगल बाजार में जब कभी आमने-सामने होते थे तो हमारी ‘हाय-हैलो’ होती रहती थी। लेकिन, ऑडिटोरियम में उस दिन की घटना के बाद हमारा लगाव अत्यधिक प्रगाढ़ हो गया। एक दिन उसने मुझसे विज्ञान की नोट-बुक मांगी और जब उसने लौटाया तो मेने नोटिस किया कि उसपर एक नई जिल्द चढ़ी हुई थी, खूबसूरत हैंडराइटिंग में मेरा नाम लिखा हुआ था और प्रथम पृष्ठ पर एक सुंदर कमल का चित्र भी बना हुआ था। एक मीठी-सी अनुभूति मेरे मन को मुग्ध कर गई।
प्यार की अपनी एक सुगंध होती है, मानो ह्दय-वाटिका में असंख्य पुष्प एक साथ खिल उठे हों; एक उजाला होता है, मानो सूर्य का रथ बादलो को चीरता ज़मीन पर उतर रहा हो; एक शोर होता है , मानो सहस्त्र ऋषि एक साथ मंत्रोच्चारण कर रहे हों; एक बेचैनी होती है, मानो कस्तूरी की तलाश में कोई मृग वन-वन भटक रहा हो। हम करीब आते गए और प्यार के बंधन में ऐसे बंधते चले गए मानो हमारा एक-दूसरे से अलग कोई अस्तित्व ही न हो।
दिसम्बर में क्रिसमस की छुट्टियां हुई। मेरा परिवार एक सप्ताह के लिए गोवा जा रहा था। मेरी इच्छा बिल्कुल भी नहीं थी जाने की । मगर, पिताजी से कुछ कह पाने की हिम्मत नहीं हुई और जब वापस लौटकर आया तो एक ऐसी हृदय-विदारक ख़बर मिली जिसने मेरे पैरों तले की ज़मीन ही खिसका दी। माला मुझे अकेला छोड़कर इस दुनिया से चली गई थी। पूछने पर पता चला कि करंट लगने से उसकी मृत्यु हो गई। आज भी मेरी बेचैन निगाहें उसे ढूंढती रहती है। वह अब इस दुनिया में नहीं है, मगर मेरा दिल कहता है कि वह है, यहीं कहीं मेरे आस-पास ही है और मैं उसे महसूस कर सकता हूं।
दिनेश कुमार राय
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